पक्की तारीख मेरी माताजी से पूछनी होगी लेकिन 1983 की सर्दियों में श्रीनगर में जो हमारी दुकान थी, 200 मुसलमानों के भीड़ ने बंद करवाई.
कारण? मेरे नानाजी के देहांत के बाद उनका कारोबार हमारे पास आया. तब हम दिल्ली में रहते थे. लेकिन नानाजी के एक मुसलमान नौकर ने एक फर्जी पार्टनरशिप का डीड बनवाया और ऊपर नानाजी के फर्जी दस्तखत कर लिए.
सीधा दिखा रहा था कि फ़ोर्जरी है. हमने उस कागज़ को खारिज किया. हमारे नानाजी के जो भी मुस्लिम परिचित थे, जिनमें राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री भी थे, उन सब से सहायता के लिए याचना की.
सब का एक ही जवाब था – क्यों एक मुसलमान का हक़ मार रहे हो?
वहाँ की मुसलमान पुलिस से तो सहायता की आशा करना भी बेकार था. तो एक दिन इन सब बातों से प्रोत्साहित होकर उस आदमी ने थोड़ी भीड़ जुटाई और दुकान में घुसने की कोशिश की.
मेरी माताजी उस समय दुकान में उपस्थित थीं. मेरे पिताजी और भाई भी थे. माताजी ने उन्हें और दुकान में उपस्थित अन्य नौकरों को आवाज़ लगाई और तुरंत शटर गिरा दिया.
जब ये हो रहा था तब आस पास के सभी दुकानदार, जो हिन्दू ही थे, हमारे साथ खड़े नहीं रहे. एक भी नहीं.
डॉ पंकज नारंग की जब हत्या हुई तो यही बात हुई थी. उस वक़्त सोशल मीडिया में कई हिन्दुत्ववादियों ने फेसबुक आदि पर डॉ नारंग के पड़ोसियों को कायर कहकर उन पर तिरस्कार बरसाया था. मुझे नहीं लगता कि इनको ऐसे प्रसंग का सामना करना पड़े तो इनका आचरण कुछ अलग होगा, यही कायरता ही दिखेगी.
– एक ज्येष्ठ मित्र की इंग्लिश पोस्ट का भावानुवाद.
या ये वीडियो देख लीजिएगा