होता ही है जड़ता को तोड़ने के प्रयास का विरोध

आज से 10-11 साल पहले जब हम वाराणसी से यहाँ पंजाब शिफ्ट हुए तो कुछ तो करना था, सो Insurance Sector में ही जा घुसे. ज़िंदगी मे एक ही काम आता है, पढ़ना-पढ़ाना. सो कुछ समय बाद हम दोनों Insurance agents को IC 33 पढ़ाने लगे. फिर कुछ समय के लिए अलग अलग Insurance कंपनियों में Trainer के तौर पे काम भी किया. मैं Bharti-Axa में था और धर्मपत्नी Birla Sunlife में.

उन दिनों हम पंजाब भर में घूमते फिरते. रोज़ाना ही 100-200 किलोमीटर बस से आना जाना होता. उस दौरान जालंधर से नवांशहर तो साल भर रोज़ाना अप-डाउन किया.

जालंधर से नवांशहर 60 किलोमीटर दूर है. जालंधर बस अड्डे से चल के पंजाब रोडवेज़ की बस, रास्ते मे 5 जगह सवारी चढ़ाती उतारती, ऐन 60 मिनट में नवांशहर उतार देती है. यदि फगवाड़ा बायपास चली जाए तो अक्सर 50 या 55 मिनट में भी गए हैं. फगवाड़ा शहर के अंदर से भी गयी तो 70 नहीं तो 75 मिनट. वैसे 75 मिनट जो ड्राईवर लगा दे उसको पब्लिक मन ही मन गरियाती है.

इसी तरह अम्बाला चंडीगढ़… 60 किलोमीटर है. 55 मिनट में आम सामान्य बस उतार देती है. दिल्ली अम्बाला 200 किलोमीटर… अगर जाम में न फंसे तो चंडीगढ़ या PRTC की बस सवा तीन घंटे में अम्बाला उतार देगी. रास्ते मे 7-8 जगह सवारी भी उतारेगी. अगर पिपली में लंच ब्रेक ले तो पौने चार घंटे में …

साल भर पंजाब में रह के आदमी जब अपने घर यूपी बिहार आता है तो सिर पीट लेता है. बनारस से गाज़ीपुर 70 किलोमीटर है. स्टैण्डर्ड टाइम 3 घंटे है, सुपरफास्ट बस का. बनारस से मऊ गाज़ीपुर होते हुए गोरखपुर की दूरी 230 किलोमीटर है… 7 से 9 घंटे लगते हैं. मैंने महसूस किया कि जितना पिछड़ा इलाका उतनी धीमी यात्रा.

एक बार मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ खजुराहो चला गया घूमने. बनारस से बुंदेलखंड एक्सप्रेस पकड़ी, महोबा उतरे. महोबा से खजुराहो… दूरी बमुश्किल 80 किलोमीटर… सुबह 7 बजे चले, बड़ी मुश्किल से शाम 5 बजे पहुंचे. जबकि खजुराहो ज़बरदस्त पर्यटन स्थल है…

मैंने महसूस किया कि पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोगों को अपनी इस धीमी यात्रा में कोफ्त भी नहीं होती. उनको कोई दिक्कत नही. सब मस्त रहते हैं. वो खजुराहो वाली बस हर 10 किलोमीटर पे किसी गाँव कस्बे में 30-40 मिनट रुक के सामान लादती उतारती थी. पब्लिक को कोई फर्क नहीं पड़ता. वो बिल्कुल भी चीखती चिल्लाती नही. प्रतिकार नहीं करती.

औसत हिंदुस्तानी को अपने पिछड़ेपन, अपनी गरीबी, अपनी बदहाली, अपने इर्द गिर्द फैली गंदगी, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से कोई फर्क नहीं पड़ता. हमने इसे ही अपनी नियति मान लिया है. समझौता कर लिया है. हममें एक जड़ता आ गयी है.

ऐसे में जब कोई इस जड़ता को तोड़ने का प्रयास करता है तो अजीब सा लगता है… क्या ज़रूरत है? ठीक ही तो चल रहा है सब…

ऐसे में जब मोदी जैसा कोई बुलेट ट्रेन या हाइपर लूप की बात करता है तो विरोध स्वाभाविक है. आखिर ज़रूरत क्या है इतना तेज चलने की? आराम से चलो… ये सुपर फ़ास्ट यात्रा तो अमीरों के चोचले हैं जी… गरीब हिंदुस्तान को कहाँ जाना है?

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