मैं मुक्ति की आकांक्षा की परिणति हूँ
बूँद भर आँखों में
सागर को उड़ेल देने का स्वप्न,
और गज भर आँचल में
वृहद समाज के लांछनों को ढोने पर भी
उसके छूट जाने का
या फट जाने का संदेह
मुझे विचलित नहीं करता…
न ही रोकता है
मेरे पैरों को
जो शांत श्वासों की थाप पर
नृत्य करते हैं बेसुध हो कर…
मैं मुक्ति की आकांक्षा की परिणति हूँ…..
दो मुट्ठियों में
धरती और आकाश को भींचकर
और नाज़ुक से कंधों पर
संस्कारों में लपेटी परतंत्रता को ढोने पर भी
थक जाने का
या टूट जाने का संदेह
मुझे विचलित नहीं करता…
न ही रोकता है
मेरी बाहों को
जो प्रकृति को समेट लेती हैं
जब पैर थिरकते हैं श्वासों की थाप पर…
मैं मुक्ति की आकांक्षा की परिणति हूँ….
जीवन और मृत्यु के बिम्बों पर
आनंद के सूक्ष्म कणों को टिकाकर
और आत्मा की मिट्टी पर
देह के ऊग आने पर भी
पलीत नहीं होती
ना ही पतित होती है…
मैं मुक्ति की आकांक्षा की परिणति हूँ….
जहां सारे संदेहों को द्वार मिलता है
समाधान का,
जहां से सारे द्वार खुलते हैं
मोक्ष के……