हज़ार साल क्यों गुलाम रहा हिन्दुस्तान?

कुछ तो होगा, वरना अति प्राचीन सभ्यता और समृद्ध संस्कृति यूं ही इतने लम्बे समय के लिए गुलाम नहीं होती. क्या कभी इसका गहराई से विश्लेषण हुआ? कौन करता? जो बुद्धिजीवी थे उनमे अधिकांश विदेशी शासक के द्वारा प्रायोजित और स्थापित थे, वो भला ये काम क्यों करते.

लेकिन सवाल उठता है, जो सवाल अब तक अगर नहीं उठाया गया तो अब उठाना चाहिए, यह जानने के लिए की आखिरकार इसका जवाबदार था कौन? जहां तक मैं समझ पाया हूँ, वो यह है कि कोई एक इसका जवाबदार नहीं हो सकता.

इसको समझने के लिए अतीत में सर मारने की जरूरत नहीं. वर्तमान को भी देख कर समझा जा सकता है. और उदाहरण के साथ समझना हो तो, पांच साल के अटल शासन के बाद सोनिया शासन को दिये गए दस साल से इसे समझा जा सकता है.

यकीनन अटल सरकार में कुछ कमियां रही होंगी, लेकिन क्या वो इतना बड़ी थीं कि उसके बाद हमने दस साल की गुलामी चुनी और झेली. उन दस सालों को गुलामी इसलिए कह रहा हूँ कि उस समय के नुकसान का आकलन हम आज नहीं कर पा रहे मगर उसका भुगतान हमारी आने वाली पीढ़ियां करेंगी.

ठीक उसी तरह जिस तरह से हम स्वतंत्रता के बाद भी 1947 और उसके पूर्व की गलतियों को आज भोगने के लिए अभिशप्त हैं. अफ़सोस इस बात का है कि उसी तरह की गलतियाँ एक बार फिर अकेले सिर्फ शासक के द्वारा नहीं, बल्कि इस बार समर्थकों के एक बड़े वर्ग द्वारा भी की जा रही हैं.

सुना है हमारे देशीय राजाओं ने कई गलतियां की थी, कुछ-कुछ उसी तर्ज पर वही आज कल फिर दुहराई जा रही हैं, लेकिन दुर्भाग्य इस बात का अधिक है कि आज के कुछ समर्थक वो गलतियां कर रहे हैं जो पूर्व में की गई प्रजा की मूर्खता से भी अधिक घातक है.

इतिहास में पढ़ा है कि जब विदेशी आक्रान्ता, जिनकी संख्या कुछ हजार भी नहीं होती थी, उनके सामने लाखों हिन्दुस्तानियों की निष्क्रियता हैरान करने वाली होती थी. इसी का फायदा उठा कर मुठ्ठी भर विदेशी हमारे चंद लोभी हिन्दुस्तानियों के साथ मिल कर षड्यंत्रपूर्वक हजार साल तक हम पर राज करते रहे.

मगर आज स्थिति इसलिए भयावह हो गई लगती है क्योंकि समर्थकों का एक बड़ा वर्ग अपने ही शासक के पीछे हाथ धो कर पड़ गया है. वो इतना भी नहीं समझ पा रहा कि अपनी इस करतूत से वो अपनी ही हानि करने जा रहा है. क्या उसे इतना भी नहीं पता कि आगे बढ़ते समय पिछला पैर तब तक नहीं उठाना चाहिए जब तक अगला पैर मजबूती से जमीन पर स्थापित ना हो जाए.

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