दीवाली पर 50 लाख पटाखे : आख़िर सुप्रीम कोर्ट कैसे जारी करता है ऐसे वाहियात फ़ैसले/ निर्देश?

आप सबको आपके सारे त्योहारों के लिए शुभकामनाएँ. सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओं के सारे त्योहार पर जगता है और उनके मानक तय करता है. यही कारण है कि कुछ एनजीओ वालों के पिछले साल दीवाली पर बॉम्बे हाइकोर्ट जाने पर कहना पड़ गया कि क्या कारण है कि आप लोगों को हमेशा हिन्दुओं के त्योहारों में ही दिक्कत आती है!

इसीलिए जब आज सुप्रीम कोर्ट का ये डिसीज़न आया कि दिल्ली में 50 लाख पटाखे ही आएँगे तो मुझे हँसी आई. हँसी इस बात पर कि ये गिनती होगी कैसे? लगभग दो करोड़ दिल्ली की जनता में डेढ़ करोड़ हिन्दू तो होंगे ही. कितनी दुकानों पर सरकार ऑडिट करने बैठेगी कि कितने पटाखे आए? क्या ये कभी संभव हो सकेगा? कल को ये जजमेंट दे दीजिएगा कि रक्षाबंधन में भाई की कलाई पर बाँधी गई राखी का कसाव कितना होना चाहिए. या ये कि दुर्गा पूजा में मूर्तियों की जगह काग़ज़ की तस्वीरें लगाई जाएँ.

इसके पीछे का वाहियात तर्क सुनकर दिमाग खराब हो जाता है. मैं पटाखे नहीं चलाता क्योंकि वो मेरा चुनाव है. लेकिन मैं ये भी नहीं मानता कि एक दिन पटाखे नहीं चलाने से प्रदूषण कम हो जाएगा. ये अलग बात है कि दिल्ली में पहले से ही इतना प्रदूषण है कि उस रात साँस लेने में भी दिक्कत आती है. लेकिन इस पर अवेयरनेस फैलाने की ज़रूरत है, न कि वाहियात और लागू ना किए जा सकने योग्य फ़ैसलों की. क्या दहेज पर कानून बनने से वो बंद हो गया? या समाज में जागरुक लोग खुद ही छोड़ रहे हैं?

ऐसे फ़ैसले सामाजिक न होकर राजनैतिक लगने लगते हैं कि आखिर सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओं के ही विरोध में क्यों खड़ा नज़र आता है? उसकी मंशा जरूर प्रदूषण कम करने की रही होगी लेकिन क्या इतने पढ़े-लिखे और अनुभवी बुज़ुर्गों को ये पता नहीं है कि हमारे देश के सिस्टम में ये निर्णय इम्प्लीमेंट करना असंभव है? क्या इनको नहीं लगता कि लोग इसे किस तरीक़े से देखेंगे? मेरे जैसा आदमी भी बस सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना करने के लिए पटाखे चलाएगा.

क्या इस तरह के डिसीज़न से आप एक पूरे तबके को त्योहार मनाने से रोक नहीं रहे? जहाँ आपकी विद्वता की समाज को ज़रूरत हैं वहाँ आप फ़ैसले धर्म के ठेकेदारों पर छोड़ देते हो और आपको समाज को ये दिखाना पड़ जाता है कि पाँचों जज अलग-अलग धर्मों के हैं. आपको अयोध्या की ज़मीन के तीन हिस्से बनाने का फ़ैसला देना पड़ जाता है.

आपको अपने घर के फ़ाउंटेन चलाने के लिए पानी है, लेकिन क्रिकेट ग्राउंड की सिंचाई के लिए, जो कि सीवर के ट्रीटेड वॉटर से होता है, आपको एक साल जजमेंट देना पड़ जाता है! अगले साल भी क्यों नहीं आया जजमेंट? देश के सारे ग्राउंड की सिंचाई क्यों नहीं रुकी जज साहिबान? पानी तो हर बार बर्बाद होता है. यही कारण है कि आपकी बुद्धिमत्ता पर शक होता है कि आप लोग आख़िर ऐसे बेहूदे जजमेंट पास कैसे कर लेते हैं जो कि एक साल लागू किया जाता है, दूसरे साल नहीं? आपको खुद राष्ट्रगान पर खड़े होने में कमर दर्द करता है और सारे सिनेमाघरों पर आप ये जजमेंट देते हो कि सब खड़े होंगे?

किस तर्क के आधार पर चलते हैं आप? अगर प्रदूषण की बहुत ज्यादा चिंता है तो फिर सारे पटाखा फ़ैक्टरी को बंद करवाइए. सिगरेट का उत्पादन बंद कराइए क्योंकि इससे होने वाली बीमारियों से जूझने में सरकार का अरबों रुपया जाता है. जानवरों का क़त्ल बंद कराइए क्योंकि ये जो घास चरते हैं उससे पर्यावरण को दीवाली के प्रदूषण से लाख गुणा ज्यादा ख़तरा है. कभी पढ़िए इस पर जाकर कि माँस वाले मवेशियों से पर्यावरण को कितना नुक़सान होता है.

क्यों एक-एक घर में चार कारें हैं? आखिर अमीर आदमी कार, एसी, फ्रिज और तमाम साधनों से जो पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाता है उसका प्रभाव तो ग़रीबों पर भी पड़ता है जो पैदल चलते हैं, ईंट ढोते हैं, और गर्म पानी पीते हैं. वो किसी और के द्वारा बर्बाद किए गए पर्यावरण के प्रभाव को क्यों झेलें?

है हिम्मत इन्हें रेगुलराइज़ करके देश की आबोहवा बदलने का? या फिर इसी तरह के नी-जर्क जजमेंट पास करते रहेंगे मीलॉर्ड? आपको बस अपना इमेज सुधारना है जज साहब कि लगे जब आपके मुख्य न्यायाधीश रो देते हैं तो सही में इन्हें देश की चिंता है. लेकिन सच तो ये है कि आप लोगों ने भ्रष्टाचार की हदें पार की हुई हैं. वकीलों के फीस पर कोई कैप नहीं है, आपकी छुट्टियों पर कोई कैप नहीं है, आप लोअर कोर्ट की नियुक्तियाँ रोके हुए हैं जबकि केस करोड़ों में लटके हुए हैं.

आप से वहाँ कोई काम नहीं होगा. आप इसी तरह के लोकलुभावन फ़ैसले लेंगे जिसका कोई मतलब नहीं होता. जो ज़मीन पर उतारे नहीं जा सकते. आपने कह दिया, पेपर में छप गया, लोगों ने पढ़ लिया और बात ख़त्म. पर क्या बात ख़त्म हो जाती है? इमेज बिल्डिंग मत कीजिए, जुडिशरी को सुधारिए क्योंकि लोकतंत्र के इस स्तंभ पर से भी लोगों का भरोसा उठता जा रहा है. ये फर्जी के जजमेंट मत पास कीजिए जो लागू ही नहीं हो सकते.

पटाखा लो, उसमें आग लगाओ… फटाक की आवाज़ आएगी, थोड़ा धुआँ निकलेगा. खुद को जलाओ मत, किसी पर फेंको मत, कुत्तों की पूँछ में मत बाँधो. दिए जलाओ, पटाखे चलाओ, दिवाली मनाओ. और हाँ उसके पीछे की कहानी जानो कि क्या है. इसे मनाना ज़रूरी है क्योंकि ये हमारी सामूहिक संस्कृति का एक हिस्सा है. त्योहार संस्कृति को साथ लेकर चलते है. ये मानवता के इतिहास के वो पन्ने हैं जो ना खोएँ तो बेहतर है. दीवाली पर धुएँ से हुआ वायु प्रदूषण साल भर के प्रदूषण का कितना परसेंट होता है इसका हिसाब भी कोई गणित के ज़रिए कर ले.

पानी लो, इसमें रंग घोलो… रंग ना हो तो नल खोलकर आते जाते लोगों पर फेंकते रहो… पूरा दिन यही करो. एक दिन ऐसा नहीं करने से देश की पानी की समस्या पर कोई असर नहीं पड़ता. किसी को गणित आती हो तो जोड़-घटाव करके देख लो. इसीलिए, होली मनाओ क्योंकि होली हमारी संस्कृति का वाहक है. इसकी कहानी जानो. इसे मनाना ज़रूरी है क्योंकि बेबी, लाइफ में सेलिब्रेशन तो चाहिए ही.

बकरा लाओ, उसकी गर्दन काटो, उसकी खाल उतारो, उसके टुकड़े करो, मसाले डालो, बनाओ और खाओ. मूड खराब हो गया? अरे! केएफसी का चिकन दबाते वक़्त तो नहीं सोचते कि ये अंडे से निकला होगा, फिर गर्दन रेत दी गई होगी, फिर चमड़ी निकाली गई होगी, फिर टुकड़े कटे होंगे, फिर ऑवन में रखकर मसाले छिड़के गए होंगे. बकरे खाते हो तो खाओ. नहीं खाते हो तो मत खाओ. बक़रीद मनाना ज़रूरी है. क़ुर्बानी की कहानी याद रखने के लिए. जश्न में ज़ायक़ा ज़रूरी है, इसीलिए बकरे खाते हो तो खाओ.

होली में पानी बहाना पसंद नहीं, तो तुम मत मनाओ. दिवाली में पटाखों से धुआँ और शोर होता है तो तुम मत चलाओ. मैंने 1997 से नहीं चलाया, लेकिन किसी को मना नहीं करता. एक दिन के लिए त्योहार आते हैं. इसको मनाना ज़रूरी है. ज्ञान देना बंद कीजिए और बकरे काट कर खाइए.

पानी पर सामाजिक जागरूकता एक दिन होली नहीं खेलने से नहीं आती, क्योंकि दाँत धोते वक़्त पूरी दुनिया उससे लाख गुणा ज्यादा पानी बहा देती है. प्रदूषण पर सामाजिक जागरुकता एक दिन दिवाली नहीं मनाने से नहीं आएगी, क्योंकि हम एक-एक घर में चार-चार कारें ख़रीद कर उस से लाख गुणा ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं. शाकाहार पर सामाजिक जागरुकता बक़रीद में बकरे नहीं काटने से नहीं आएगी, जबकि हर होटल, रेस्टोरेंट में बकरे रोज़ कटते हैं.

लेकिन हाँ, अगर होली वॉटरलेस की बात करते हो, दीवाली क्रैकरलेस की बात करते हो, विसर्जन सांकेतिक हो इसकी बात करते हो तो बक़रीद भी ब्लडलेस हो, थैंक्सगिविंग भी टर्कीलेस हो, क्रिसमस भी मीटलेस हो, न्यू इयर भी क्रैकरलेस हो, ऐसी बात भी तुम्हीं को करनी होगी. नहीं तो एक शब्द है तुम्हारे लिए : दोगला.

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