रोहंगिया मुसलमानों को लेकर पिछले कुछ महीने से भारत में बात होने लगी है. यह बात इसलिये होने लगी है क्योंकि भारत की 99.999% जनता को अब पता चला है कि हमने भी यूरोप की तर्ज़ पर कोढ़ पाल लिया है. यह म्यांमार से, अलग इस्लामिक राज्य की मांग से भगाए गये लोगों को भारत के ही सेक्युलरों ने, भारत की जनता से छुपा कर बसाया है. इस कार्य मे मुस्लिम व ईसाई संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.
मैने, आज से लगभग दो साल पहले, सीरिया से भागे हुये शरणार्थियों के यूरोप पहुंचने और उनका स्वागत करने वालों पर कुछ लिखा था, उसी को थोड़ा और विस्तार देते हुये फिर साझा कर रहा हूँ, ताकि भारत का हिन्दू यह समझ सके कि भारत का ईसाई हमेशा, हिंदुओं के विरुद्ध भारत के मुस्लिमों का साथ देगा क्योंकि ईसाई के लिए इस्लाम को मानने वाला उसका करीबी है.
मेरे इस बड़े लेख को पूरा पढ़ने वाले कम ही होंगे लेकिन जो पढ़ लेगा उसको यह समझ मे आ जायेगा कि आज का भारत, ईसाई शिक्षा द्वारा प्रस्थापित मानवतावाद और लोकतंत्र के छलावे में उलझ कर रह गया है.
सीरिया से भागे शरणार्थियों को किसी अरब देश ने नहीं लिया और न ही उनको वहां घुसने दिया गया है. इसकी बजाय अरबों ने उन्हें मेडिटेरेनियन समुद्र पार करा के यूरोप पहुंचा दिया है. यूरोप में इन शरणार्थियों के लिये दया का सागर उमड़ पड़ा है और वहां के विभिन्न राष्ट्रों ने उनको गले लगा लिया है.
यूरोप में लोग उन्हें गले लगा रहे है और पता नहीं क्यों हमारे यहां लोग हाय तौबा मचा रहे है? सब लोग, अपना-अपना आंकलन कर रहे है और सब यूरोप को समझा रहे है की “हे मूर्ख ये क्या कर रहे हो? हम इस मूर्खता का परिणाम भुगत चुके हैं, कुछ हमसे सीखो!”
लेकिन यूरोप हमारी बात नहीं सुनेगा और न ही उसका न सुनना हम लोगों को समझ में आ रहा है. लेकिन जो हो रहा है वो सही हो रहा है, क्योंकि यूरोप का हमारा न सुनना हमको इसलिए समझ में नहीं आ रहा है क्यूंकि हम लोग यूरोप को समझने की जगह उनको समझा रहे है.
यह मसला यूरोप और अरब का नहीं है, यह मसला ईसाइयत और इस्लाम का है. ये मसला दो पट्टीदारों का है, ये मसला दो खानदानों की आपसी रंजिश का मामला है जो 1300 साल से चल रहा है.
बहुत विस्तार में न जाते हुए केवल कुछ मुख्य बिन्दुओं और इतिहास पर उसकी पड़ी छाप के द्वारा, आज जो हो रहा है और कल जो होगा, उसे बताने की कोशिश करता हूँ.
अरब क्षेत्र, जिसे आज मिडिल ईस्ट कहते हैं वह रोमन साम्राज्य के अधीन था. वहां कबीलाई संस्कृति के साथ वैदिक संस्कृति थी और धर्म के नाम पर, केवल एक यहूदी धर्म ही था, जो अपने को अब्राहम से उत्पन्न मानते थे और यह धर्म, मोनोथेइस्टिक यानि एकेश्वरवादी था. उस भूखण्ड पर शासन करने वाले, रोमन साम्राज्य के शासकों का धर्म पॉलीथेइस्टिक, यानि बहुदेववादी था.
वहीं से 2100 साल पहले ईसाइयत का प्रादुर्भाव हुआ. ईसा के जीवन काल में उनके लोग अनुयायी हो गये थे और उन्हें ज्यूइश क्रिश्चियन या यहूदी ईसाई कहा जाता था. वे यहूदी ही थे लेकिन ईसा को मसीहा और देव पुत्र मानते थे. ये शुरू में एक सम्प्रदाय के रूप में स्थापित हुये, जो अगले 100 सालो में, उनके मठाधीशों द्वारा एक ईसाई धर्म के रूप प्रतिस्थापित कर दिये गये.
यह धर्म, रोमन साम्राज्य के धर्म से अलग, मोनोथेइस्टिक यानि एकेश्वरवादी था. इसका विस्तार अरब क्षेत्र में हुआ और शुरू के 300 सालों में, रोम साम्राज्य ने इस नये धर्म के लोगों का प्रतिकार किया. लेकिन चौथी शताब्दी में रोम साम्राज्य के सम्राट कोंस्तांतिने और थेओडोसियस ने अपने फैले हुए साम्राज्य के बिखराव को रोकने के लिए, इस धर्म को अपना राष्ट्रीय धर्म बना लिया और उसके बाद से ही ईसाई धर्म का प्रसार यूरोप में हुआ.
इसी अरब के भूखंड से, 1400 साल पहले एक और धर्म निकला, जो इस्लाम कहलाया. ये धर्म भी यहूदी और ईसाई धर्म से ही निकला हुआ था. शुरू के इस्लाम धर्म को अपनाने वाले वहां के यहूदी कबीले के ही थे. यह नया धर्म इस्लाम भी, यहूदी और ईसाइयत की तर्ज पर मोनोथेइस्टिक यानि एकेश्वरवादी ही था. इन तीनों धर्मो में केवल एकेश्वरवाद होना ही एक समानता नहीं है, बल्कि इन तीनों धर्मों को मानने वाले लोग अपनी उत्पत्ति अब्राहम से मानते हैं. अब्राहम को ही अपना आदि पुरुष मानते है.
इस्लाम भी अब्राहम को अपना आदि पुरुष मानता है और उनकी पवित्र किताब कुरान, ईसा का उल्लेख भी करती है. वह ईसा को भगवान का दूत मानती है लेकिन ईसा को भगवान का पुत्र नहीं मानती है. इसके अलावा इस्लाम, मोहम्मद को भगवान का आखिरी दूत मानता है और यह भी मानता है कि इसके बाद कोई भी भगवान का दूत होगा भी नही.
इस्लाम और ईसाई धर्म के बीच शुरू में टकराव, धर्म की अपनी मान्यताओं के अलावा साम्राज्य के विस्तार को लेकर भी था क्यूंकि दोनों ही धर्म, धर्मांतरण को ही अपने प्रसार का केंद्र बिंदु बनाये हुए थे, जो अब तक चल रहा है. इन्होंने, युद्ध और जिहाद के द्वारा, धर्मांतरण करे जाने को धर्मिक मान्यता भी दी हुयी है. इसलिये इन दोनों धर्मो में समानता होने के बाद भी, एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी थी और है.
भौगोलिक रूप से इस्लाम और ईसाई जिस अरब-भूखंड से निकले थे, वो पश्चिम जगत और पूर्व जगत के व्यापार का मार्ग भी था. इस मार्ग पर कब्जा होने का मतलब यह था कि उस क्षेत्र पर शासन करने वाले को उस व्यापार मार्ग से दौलत मिलना था और उससे शक्तिशाली होना था.
इस मार्ग पर कब्ज़ा होने से, इस्लाम मजबूत हुआ और उसका प्रसार, रोमन साम्राज्य के पराभव पर, पश्चिम की तरफ हुआ. जहाँ कई शताब्दी लड़ने के बाद यूरोप के पूर्वी हिस्से में अरब के इस्लाम ने राज्य किया, वही, मेडिटेरेनियन समुद्र के रास्ते स्पेन में भी उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया था. 8वीं शताब्दी से लेकर 15 वीं शताब्दी के बीच के संघर्ष ने जहाँ इस्लाम के अनुयायियों को स्पेन के ईसाईयों ने खदेड़ दिया वहीँ 17वीं शताब्दी तक वियना, ऑस्ट्रिया की हार के बाद, इस्लाम के अनुयाइयों के साम्राज्य को ईसाईयों ने पूर्वी यूरोप से पीछे धकेल दिया था.
आज भी किसी भी मुस्लिम से बात कीजिये तो वो स्पेन को नहीं भूलता है. वो नहीं भूलता है कि तुर्की का ओटोमन साम्राज्य पूर्वी यूरोप तक था. यह साम्राज्य इस्लाम का सिरमौर था. वहां के खलीफा सारे इस्लामी जगत के राजनैतिक और धार्मिक स्तम्भ थे. 15वीं शताब्दी में जहां यूरोप ने पोप की राजनैतिक सत्ता को चुनौती देते हुए, धर्म को राजनीति से अलग रखने की अलख जगाई, तो वहां ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आये थे. वहीं इस्लाम के अनुयायी, धर्म को राजनीति से अलग नहीं कर पाये और उसका 15वीं और 16वीं शताब्दी तक का उत्कर्ष उसी जगह रुक गया था. इस काल तक के इस्लाम के अनुयाइयों के साम्राज्य ने बेहद तरक्की की थी.
जहां इस्लाम की किताब और उन किताबों के मायने बताने वालों ने, इस्लाम के सबसे सफल काल पर ही इसे रोक दिया. जिसके चलते बदलते हुये समय में इस्लाम को चलाने वाले अपने धर्म की व्याख्या नहीं कर पाये. दूसरी तरफ, ईसाई बहुल यूरोप जहां सामंतवादी दर्शन से निकल कर लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा था, वही इस्लाम सामंतवादी दिशा को ही पकड़े रहा.
इस सबका परिणाम यह हुआ कि 19वीं शताब्दी तक ईसाई प्रभाव का यूरोप, इस्लाम प्रभावित अरब क्षेत्र को अपना उपनिवेश बनाने में कामयाब हो गया. पहले विश्व युद्ध और दूसरे युद्ध के बाद अरब जगत का भूगोल और राजनैतिक समीकरण भी यूरोप ने बदल दिया. जो आज हम अरब राष्ट्र और शासकों को देख रहे है वे सब 100 साल की ही पैदाइश है.
आज 21वीं शताब्दी में हम देख रहे हैं कि एक ही जगह से निकले दो धर्म, जो अपनी उत्पत्ति एक ही स्रोत से मानते हैं, उनके बीच का संतुलन असामान्य रूप से बिगड़ गया है. एक धर्म के अनुयायी, अपनी पवित्र किताब से आगे निकल कर, ज्ञान, विज्ञान और लोकतंत्र का नया क्षितिज गढ़ रहे हैं, वहीं 15 वीं शताब्दी से चिपटा हुआ धर्म, अपनी पवित्र किताब में ही ज्ञान, विज्ञान और शासन का तंत्र अब तक ढूंढ रहा है. एक धर्म उसी ज्ञान के बल पर, लोकतंत्र में ही साम्राज्यवादी हो कर, ईसाइयत का प्रसार और धर्मांतरण कर रहा है और दूसरी ओर दूसरा धर्म 15वीं शताब्दी की सीखों पर धर्मांतरण के द्वारा ही नए राष्ट्रों का उदय करा रहा है.
इस्लाम और अरबों के लिए यूरोप एक सपना है. वे वहां शताब्दियों पहले थे और उनको ही वहां पर होना चाहिये, यह उनके जहन में छाया हुआ है. अरब यह भी नहीं भूलना चाहते हैं कि उनको ईसाई यूरोपीय ताकतों ने अपने उपनिवेश बनाया था, भले ही वह खुद उसके जिम्मेदार थे.
वो फिर 1000 साल पहले की दुनिया चाहते हैं, जब वे स्पेन में थे और पूर्वी यूरोप में तुर्की के खलीफा बादशाहत करते थे. आज इस्लाम वो पट्टीदार है जो अपने पट्टीदारों की समृद्धि और सफलता से जलता और कुढ़ता है. आज उसको 15वीं शताब्दी की प्रतिष्ठा उन्ही शर्तों पर, फिर पानी है और इसलिए उसे यूरोप में फिर जाना है.
इसीलिये पेट्रो डॉलर से अमीर अरब राष्ट्र, उनके भूखंड से भगाए गये इस्लामियों को, यूरोप में अपने इस्लामी मज़हब का पालन करने और फ़ैलाने के लिए खूब पैसा देंगे. यह उनकी सोच है कि यह शरणार्थी, उनका उन पट्टीदारों की संस्कृति में पहुंच कर, अपने धर्म इस्लाम के प्रसार में सहायक होंगे.
फिर जब यह सही है तो यूरोप यह गलती कर क्यों रहा है? असल में यूरोप का ईसाई समुदाय ज्ञान, विज्ञान और संपदा के बल पर, अध्यात्म और मानवतावाद के मतलबों को समझने की भूल कर बैठा है. उनको दम्भ है कि वो पहले ही की तरह इस्लाम के अनुयायियों को ईसा के सलीब पर लटका देंगे. वे पिछली एक शताब्दी से होने वाली प्रगति की चकाचौंध में, यूरोप के अंधकार युग के इतिहास की जानबूझ कर अवेहलना कर रहे हैं.
यूरोप और ईसाई, एक बात समझने में भूल कर रहे हैं कि जब एक ही घर के दो बच्चों में बहुत ज्यादा आर्थिक और सामाजिक विषमता हो जाती है तब कमजोर बच्चा हीन भावना से ग्रसित होकर, मजबूत बच्चे को नुकसान पहुंचाता है. डाह और ईर्ष्या में वो जल उठता है और यही सब कुछ आज हो रहा है.
अरब से उठा इस्लाम फिर अपने पुराने दिन वापस लाना चाहता है. उनको फिर खलीफा चाहिये, जिसकी तूती अरब से लेकर स्पेन तक, सम्पूर्ण यूरोप में बोले. उनको दिग्भ्रमित ईसाइयों से ईसा को देवदूत मनवाना है. उन्हें ईसाईयों से मोहम्मद साहब को आखिरी ईश्वरीय दूत कबूल करवाना है.
यूरोप के दो सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों में एक जर्मनी, जो हिटलर को लेकर अपने अंदर उपजी कुंठा के कारण, शरणार्थियों को पनाह देकर, भूतकाल की गलती का हिसाब बराबर करना चाहता है और वहीं फ्रांस, लोकतांत्रिक और मानवतावाद की शक्ति का मूल स्रोत के होने के अभिमान में, कई दशकों से, राजनैतिक शरणार्थियों को अपने यहाँ शरण देते आ रहा है.
भारतवासियों को सिर्फ इस से दूर रहना है और यूरोप की मार काट से उत्साहित कुछ अरबी मुस्लिम मानसिकता से सतर्क रहना है. यहां भारत में भी तुर्की के खलीफा के लिए, 100 साल पहले लोग खड़े हुए थे और मोहन दास गांधी ने उनके साथ खड़े होकर, आधुनिक भारत की पहली बेवकूफी की थी.
भारत में आज भी ‘खिलाफत आंदोलन’ की तर्ज पर, मोमबत्ती लिये लोग खड़े मिलेंगे और अब उनसे परेशान होने का वक्त खत्म हो चुका है क्योंकि उनकी मोमबत्तियों को बुझाना ही भारत और हिन्दू को बचा सकता है.