अलौकिक प्रेम कथा-1 : मैं हूँ ही नहीं इस दुनिया की

धीरे धीरे उसकी आंखें खुलने लगी, दैवीय प्रकाश से अतिरिक्त शुभ्रता लिए हुए दृश्य कुछ ज्यादा ही आदर्श सा दिख रहा था.
कर्ष ने जैसे ही चेतना पाई कि स्वयं को एक शानदार होटल के कमरे में लेटा हुआ पाया. खिड़कियों से दिखते सुंदर दृश्य ने उसके मस्तिष्क में चेतना का तीव्र संचार कर दिया.

हल्के सिरदर्द के साथ उसने जैसे ही अपने साथ हुए अंतिम घटनाक्रम को स्मरण करने का प्रयास किया कि अचानक एक साया सा उसके समीप आता हुआ लगा.

लावण्या !
तुम !
ओह ! क्या यह कोई स्वप्नजगत है ?? कहाँ हूँ मैं?
कुछ याद क्यों नहीं आ रहा मुझे ??

लावण्या ने एक अद्भुत मुस्कान उत्पन्न करते हुए कहा – “आप इसी दुनिया मे है कर्ष. मनाली में ही. तीन दिन पहले आप एक फोटो शूट करते हुए फिसल गये थे खाई में, बड़ी मुश्किल से आपको वहाँ से निकाला गया और जिस हॉस्पिटल में आपको उपचार के लिए लाया गया था वहीं मैं भी अपनी सहेली को लेकर आई थी जिसे अचानक बहुत तेज बुखार आ गया था.

आपको देखा तो पहले विश्वास ही नहीं हुआ कि आप यहां मनाली में क्या कर रहे हैं? फिर जब देखा कि आपके साथ कोई नहीं है तो आपका उपचार करवाकर अपने साथ यहाँ इस होटल में ले आई, जहाँ हम ठहरे हुए थे अपनी सहेलियों के साथ. वैसे आपने बताया ही नहीं कि आप मनाली जाने वाले हो?

मन कुछ उद्दिग्न सा था तो अचानक ही इच्छा हो उठी हिमालय के सानिध्य की, बस चला आया, आ …..आह …..।” – कर्ष ने कराहते हुए कहा.

लेकिन तुमने भी तो नहीं बताया कि तुम मनाली जा रही हो? – कर्ष ने वक्रता से पूछा.

जी, सहेलियां ले आई अचानक ही, बोली यहाँ दिल्ली में बहुत गर्मी है, चलो मनाली चलते हैं 2-3 दिन के लिए वीकेंड पर. हमने मना किया लेकिन ये लोग माने ही नहीं. अब बाकी सहेलियां तो गई बस ये एक कृत्या है यहां मेरे साथ. अब आपको भी होश आ गया है तो आप अपने परिजनों को बुलवा लीजिये या कहें तो हम आपको जयपुर छोड़ दें, आपके घर.

कृष ने उठने की कोशिश की पलंग से तो काफी दर्द महसूस हुआ. असहज लगा तो वह फिर से बैठ गया पलंग पर और गौर से लावण्या को देखने लगा.

ओह्ह अब तक बस फेसबुक, व्हाट्सअप पर ही जो देखा था उसने लावण्या को लेकिन प्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष ही होता है.

हवा का एक झोंका आया लावण्या के तन को छूता हुआ तो उसको अलौकिकता का अनुभव करवा गया. कितनी सुंदर हो तुम लावण्या, अपनी किसी भी श्रेष्ट तस्वीर से कई गुना बेहतर. वे कवितायेँ जो उसने लावण्या पर लिखी थी व्हाट्सप्प पर उसकी एक छवि मात्र देखकर, उसे लगा वे बस सूर्य को दीपक दिखाने की तरह थी.

लावण्या पढ़ रही थी कर्ष की दृष्टि को जो स्वयं उसे ही पढ़ रही थी या कहे अपने कल्पना के दृश्य के सापेक्ष नाप रही थी. मौन और भी खतरनाक हो सकता था सो लावण्या बोल उठी.
“कहिये आपके लिए क्या सुविधजनक रहेगा?”

ओह्ह ! उसके विषय में थोड़ा रुककर सोचेंगे, अभी यह दुर्लभ दिवास्वप्न तो ठीक से देख लेने दो . – कर्ष

ऐसा कहकर कर्ष लावण्या के सुनेत्रो में डूबने लगा.

कुछ क्षण के लिए लावण्या ने कर्ष का साथ दिया और फिर नज़रें नीची करते हुए बोली आप अब थोड़ा आराम कीजिये, मैं नाश्ता लेकर आती हूँ थोड़ी देर से.

कर्ष अभी उहापोह में ही था कि एक बलिष्ट, सुदर्शन व्यक्ति ने कमरे में आने की अनुमति मांगी. कर्ष ने स्वीकृति प्रदान की और उसने कहा कि मैं आपकी सहायता के लिए उपस्थित हुआ हूं.
उसकी सहायता से कर्ष अपने नित्य कर्मो से निवृत्त होकर खिड़की की तरफ चला गया और बाहर का दृश्य देखने लगा.
दूर श्वेत हिमाच्छादित पर्वतश्रृंगों पर जमी बर्फ सूर्य के मद्धिम प्रकाश से प्रकाशित होती हुई रजत भंडार सी प्रतीत हो रही थी, नीचे कोलाहल करती व्यास नदी अपने उद्गम से उत्पन्न होकर अपने गंतव्य तक पहुंचे की शीघ्रता में दौड़ती सी दिख रही थी.

कर्ष सोच रहा था जो व्यक्ति अभी सहायतार्थ आया था वह इतने अद्भुत वातावरण में, मनाली की दिलकश घाटीयों में इतना बेरंग, फीका और भावशून्य क्यों था? बिल्कुल निर्जीव सा, एक बार हंसा भी तो ऐसे जैसे सच में चेहरे की छत्तीस मांसपेशियों को बलात व्यायाम करवा रहा हो.

छोड़ो उसे, मुझे कौन सा उस पर कोई शोध करना है, यह सोचो कि यह दुर्लभ योग कैसे बैठे कि जिसकी रिप्लाई के लिए पंद्रह- बीस मिनट युगों की तरह गुजरते हैं, वह आज साक्षात सामने है वह भी इस रूमानी फिज़ा में!
कर्ष फिर अपने स्वप्नजगत में खो गया.

कर्ष के हृदय की धड़कनों के संगीत में आये परिवर्तन और दरवाजे के नीचे से आते प्रकाश के प्रवाह में अवरोध बने दो कदम देखकर कर्ष वापस यथार्थ में लौट आया. लावण्या नाश्ता लेकर आई थी.
“आइये ! कर्ष नाश्ता कर लीजिये.”- लावण्या
कर्ष कुर्सी की तरफ बढ़ा, दर्द का प्रभाव अभी पीड़ित करने लायक तीव्रता लिए था. लावण्या सहारा देने को उद्यत हुई लेकिन कर्ष स्वयं प्रयास करता हुआ कुर्सी तक पहुंच ही गया. वह कुर्सी पर बैठा और नाश्ता लेने के लिए प्रयास करने लगा कि हाथ में होने वाली पीड़ा ने उसे रोक दिया.

“रुको कर्ष ! मैं करती हूं.”
लावण्या ने प्लेट सजा कर डोसे का एक कौर तोड़कर कर्ष की तरफ बढ़ाया. कर्ष ने मुस्कान के साथ अपना मुँह खोल दिया.
जब भी अनायास लावण्या की अंगुलियों के पोर कर्ष के होंठ छू जाते, कर्ष एक विचित्र स्पंदन से तरंगित हो उठता लेकिन उसे हो रही शारीरिक पीड़ा के आवरण में वह कम्पन्न तिरोहित हो जाता था. फिर भी मन तो दोनों के सबकुछ जान ही रहे थे.
अल्पाहार करवा के लावण्या ने एक टेबलेट देते हुए कहा कि यह ले लीजिए बस इसके बाद शायद आपको एक बार फिर गहरी नींद आएगी और जब आप जागेंगे तो बिल्कुल पीड़ारहित एवं पूर्ण स्वस्थ अनुभव करेंगे.

“कौन सी जादुई दवाई है ये, हमने तो नहीं देखी पहले कभी, जो इतने तेज दर्द को गायब कर दे? – कर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा.

“विश्वास नहीं क्या मुझ पर?” – लावण्या ने हल्की उदासी से पूछा.

विश्वास ! आप के हाथों से तो हम जहर भी पी ले बिना पूछे.

कर्ष ने टैबलेट लेकर झट से निगल ली और इसी झटके की वजह से उसकी पीड़ा ने अपना असर दिखाया और वह चीत्कार उठा – आह ………

फिर से किसी के कदमों की आहट हुई दरवाजे पर, एक सुंदर और आदर्श शारीरिक संरचना वाली एक युवती अंदर आई और लावण्या को सुप्रभात कहकर कर्ष से मुखातिब हुई.

“नमस्ते जी! मैं कृत्या हूँ, लावण्या की मित्र. अब कैसे हैं आप?

जी नमस्ते, मैं ठीक हूँ, बेहतर अनुभव कर रहा हूँ अब.

कृत्या को एक नजर ठीक से देखकर कर्ष सोचने लगा कि आखिर लावण्या को छोड़कर आज सभी भावशून्य से क्यों दिख रहे हैं, बेजान से.
संभव है मेरी वजह से इनका इतना उत्साह से भरा कार्यक्रम जो नष्ट हो गया है, पता नहीं कब से मेरी सार संभाल में लगी हुई हैं लावण्या?
शायद कृत्या भी इसी वजह से अपनी क्षोभ को भावशून्यता से आवृत करने का प्रयास कर रही हो.

कुछ देर औपचारिक बातचीत के बाद लावण्या उठी और कर्ष से बोली –
“अब आप आराम कीजिये, मेरा रूम नं 1607 है, आप कॉल कर दीजियेगा, और हां अभी आप अकेले कहीं जाने का श्रम ना कीजियेगा.”

लावण्या के साथ कृत्या भी कमरे से बाहर चली गई. कर्ष को भी दवाई के असर से नींद आ गई.

कर्ष जागा तो दृष्टि सर्वप्रथम घड़ी पर जा टिकी. देखा करीब 3:30 बज रहे थे. कृष ने अंगड़ाई ली और उठकर खिड़की की तरफ चला गया. बाहर कुछ दूरी पर लोगों की चहल-पहल थी लेकिन खिड़की का कांच अचल होने की वजह से वहां से आवाजे उस तक नहीं पहुंच पा रही थी. कृष ने टेबल से पानी का जग उठाया और पानी पीने लगा.

अचानक उसे अनुभव हुआ कि, “यह क्या दर्द बिल्कुल गायब? ना अंगड़ाई लेते हुए कुछ अनुभव हुआ और ना पानी का जग उठाते हुए! जाने कौन सी दवाई दे गई लावण्या? सम्पूर्ण देह नवउर्जा युक्त एवं पीड़ारहित थी. आज सब कुछ आश्चर्यपूर्ण ही घट रहा था उसके साथ.

वे पर्वतश्रृंग जो सुबह चांदी से ढंके लग रहे थे अब प्रखर सूर्य के ताप से प्रकाश किरणों को परावर्तित करते हुए चमक रहे थे, जैसे सूर्य से शिकायत कर रहे हो कि हमें भी प्रेम की आवश्यकता है आपका यह तेज हमसे सहन नहीं होता. सच तो है जड़ हो या चेतन, सभी को प्रेम ही चाहिए तभी तो पूर्णावतार कृष्ण प्रेमावतार भी है, “मधुराधिपति अखिलं मधुरं ……..”

उसका हाथ अपनी जेब में गया और जैसा कि आजकल की आदत- ऐ- हयात है, वैसे ही कर्ष भी अपना मोबाइल ढूंढने लगा. जेब में नहीं मिला तो पलंग पर, तकिए के नीचे, ड्रावर में…
फिर भी नहीं मिला तो सोचने लगा कि शायद कहीं खाई में ही गिर गया होगा उस दिन या फिर किसी ने निकाल लिया होगा जेब से अचेतावस्था में.

मन थोड़ा उदास हो गया. मोबाइल क्या नहीं है आजकल??
यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है, सहज ज्ञात है सभी को लेकिन प्रेम दीवानों की तो बस जान ही है आजकल मोबाइल.

फिर से खिड़की के पास खड़ा होकर कर्ष बाहर के दृश्य में दृष्टि स्थिर कर अपने अतीत को जागृत करने लगा. कैसे फेसबुक पर उसकी कविताओं की नई प्रसंशक बनकर जुड़ी लावण्या ने एक दिन उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी और उसने प्रसन्नतापूर्ण आश्चर्य के साथ उस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया था तत्काल.

दोनों के बीच पोस्ट से होता हुआ संवाद इनबॉक्स में और फिर व्हाट्सप्प पर आ पंहुंचा था. धीरे धीरे दोनों को ही एक दूसरे से बात किये बिना चैन ही नहीं पड़ता था.

उसने तो बाकायदा लावण्या के मैसेज की नोटिफिकेशन ध्वनि ही बिल्कुल अलग सेट कर दी थी और जब भी वह विशिष्ट ध्वनि गूंजती वह प्रफुल्लित हो मोबाइल की तरफ दौड़ पड़ता था.

उसकी लेखनी अब धीरे धीरे लावण्या की तरफ संघनित होने लग गई थी. बस हर समय उसी का ख्याल, उसी की बातें. दिनभर में 8 से 10 स्वचित्र परावर्तन (सेल्फी एक्सचेंज) और हर सेल्फी पर कोई शेर या कविता दिल से निकली हुई, नवीन, सरस.

याद आ गई वह कविता जो लावण्या को प्रसन्न करने की लिये उसने लिखी थी डेढ़ मिनट में मात्र तब जबकि उसे एहसास हो गया कि लावण्या भी मित्रता के क्षितिज का अतिक्रमण कर प्रेम के अनंत व्योम में प्रविष्ट हो गई है.

प्रेम और क्या है? प्रेमी और प्रेमिका द्वारा एक दूसरे को प्रसन्न करने के नित नवे जतन, प्रिय से प्राप्त उस प्रसन्नता का अलौकिक उत्सव, देह से परे भी साथ होने की गुलाबी सहानुभूति.

शब्द जैसे स्वतः फूट पड़ते हैं मन से जो किसी और विधि से संभव नहीं. कर्ष भी कह उठा …..

हृदयप्रदेश की रानी हो
स्वप्निल सी कोई कहानी हो
सीख रही हो विधाएं उच्च
मैं एक अनपढ़, लोभी तुच्छ…

तुम संस्कारी, प्रज्ञा कृष्णा सी
सदा उत्सुक ज्ञान तृष्णा सी
तुम सहज, सुगम्य, सरल सी हो
हर पात्र में निरूपित तरल सी हो…

जाने किस जन्म का संचित पुण्य हो,
दर्प, दुर्गुणों, विकारों से शून्य हो,
ज्ञान, विनय, स्नेह से युक्त हो
परनिंदा के दोष से मुक्त हो…

जब भी मुझ पर तुम होती आसक्त हो
लगे राजसी गिरिजा शंकर की भक्त हो,
कैसा अद्भुत संयोग प्रिये ये
दर्शन को विचलित युग्म हिये ये..

ऐसी ही कई कविताओं का स्मरण करता हुआ कर्ष वर्तमान में लौटा तो घड़ी 6 बजा चुकी थी. दरवाजे पर डोरबेल बजी और कर्ष ने दरवाजा खोला. वही सुबह वाला व्यक्ति चाय लेकर हाजिर था.

” मैडम ने चाय भिजवाई है, साहब ” – भावशून्य व्यक्ति.
” रख दीजिए, मैडम कहाँ है ??”- कर्ष

” जी, वे कहीं गई है अपनी सहेली के साथ, 8 बजे डिनर आपके कमरे में ही लेंगी, कहकर गई हैं. आपको और किसी वस्तु की आवश्यकता है तो कहिये?- व्यक्ति.

“नहीं, ठीक है तुम जाओ.”
कर्ष ने चाय पी और फिर नहाने चला गया.

क्रमश:

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