लव जिहाद हो या तिहरा तलाक, कश्मीरी पंडित-हत्याएं हो या कैराना हिन्दू-पलायन, ज़ाकिर नाइक की राष्ट्र-विरोधी हरकतें हों या कश्मीरी अलगाववादियों का आईएसआई सम्बन्ध – इन तमाम मुद्दों की आशंकाओं पर न्यायालय ने या अन्य अन्वेषणों ने या मानवाधिकार आयोग ने पिछले कुछ समय में वास्तविकता की मुहर लगाई है. कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने, इन्हें कल्पना करार देते हुए, इनके अस्तित्व को खारिज करने का पुरजोर प्रयत्न किया था.
दूसरी ओर, ‘भगवा आतंक’ – जो महज़ मिथ्या अवधारणा थी – का अस्तित्व सिद्ध करने हेतु कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था, जबकि अब कुछ न्यायालयीन कदमों और वस्तुनिष्ठ जांचों के प्रकाश में ‘भगवा आतंक’ एक कोरी कल्पना के सिवा और कुछ सिद्ध नहीं हो रहा.
कल्पना को वास्तविकता और वास्तविकता को कल्पना सिद्ध कर देने का ये वही ‘लाल’ जादू है जिसकी सहायता से कम्युनिस्ट इस देश के गौरवशाली इतिहास और संस्कृति के विरूपित प्रस्तुतीकरण में सफल हो पाए. अपने इन प्रयासों में, ‘कम्युनिस्टी बौद्धिकता’ के आधार माने जाने वाले ‘कम्युनिस्टी इतिहासकारों’ ने सत्यनिष्ठा और शालीनता की वो सीमाएं लांघीं कि माननीय उच्च न्यायालय को इनकी नीयत पर सवाल उठाने पड़े और यह भी टिप्पणी करनी पड़ी कि इनके ज्ञान का स्तर बेहद छिछला है.
स्वाधीनता पश्चात तत्कालीन कांग्रेसी-सत्ता के सहयोग से कई महत्वपूर्ण केन्द्रों में स्थापित हो गए कम्युनिस्टों ने अपने ‘वस्तुनिष्ठता-रहित शब्दाडम्बर’ व ‘अस्पष्ट सामान्यीकरण’ (‘objectivity-less rhetoric’ and ‘vague generalization’) और ‘लच्छेदार भाषा’ को ‘बौद्धिकता’ के मानक के रूप में स्थापित कर डाला और स्वघोषित बुद्धिजीवी बन बैठे.
लेकिन, इक्कीसवीं सदी आते आते सूचना-प्रौद्योगिकी क्रान्ति ने वस्तुनिष्ठ सूचना-तथ्यों को भारतीय आम-जन की पहुँच में ला दिया और फलस्वरूप जनता के सम्मुख असलियत खुल गयी और ‘कम्युनिस्टी-बौद्धिकता’ का मिथक ताश के पत्ते की तरह ढहने लगा. देश में ‘सूचना-तंत्र का विकास’ और ‘चुनावी राजनीति में कम्युनिस्टों का पतन’ – इन दो घटनाओं के बीच एक संभावित सम्बन्ध एक शोध योग्य विषय है.
थॉमस सोवेल ने ठीक ही कहा था, “Rhetoric is no substitute for reality”, यानि “शब्दाडम्बर कभी भी सच्चाई का स्थानापन्न नहीं हो सकते”. कम्युनिस्टों के शब्दाडम्बर से सच्चाई छुप नहीं सकी, देर सबेर सामने आ ही गयी. देर आयद दुरुस्त आयद!