आजकल मुसलमानों ने “इस्लाम परफेक्ट है, मुसलमानों से गलतियाँ होती रहती है” का झूठा प्रलाप करना बंद कर दिया है. अब खुलकर आक्रामक तेवर होते हैं. कोई ऐसे भी मिलते हैं जो विक्टिम कार्ड खेलकर धमकी देते हैं कि आप ही लोग ऐसी बातों से देश को और एक बँटवारे की ओर धकेल रहे हैं. मतलब बात न करो, चुपचाप सहो, बंटवारा नहीं होगा, बस हमारा शासन होगा. इस तरह से सीधा सवाल करो तो बस हल्के से मुसकुराते हैं, जवाब नहीं देते वे.
शरिया शासन में गैर इस्लामी की जिंदगी क्या होती है यह हिंदुओं को पता नहीं है. अंग्रेजों द्वारा इस्लामी रियासत खत्म करने के परिणामवश हम ये जानते नहीं और ना ही यह ज्ञान जनसामान्य के लिए जनभाषाओं में कभी उपलब्ध किया गया. वैसे इस्लाम का पूरे भारत में कभी भी सीधा शासन नहीं रहा ये बात सिद्ध है. सामंतों द्वारा शासन चलता था और ज़्यादातर सामंत हिन्दू ही थे. बादशाह के नौकर भले ही थे लेकिन उनके अपने राज्य – रियासतों में इस्लामी शासन या नियम नहीं थे. हिन्दू, हिन्दू से ही शासित रहे थे.
आज के मुसलमान इस बात को छुपाते हैं, और सरासर झूठ बोलते हैं कि भारत पर हमारे पूर्वजों ने हुकूमत चलायी, चाहते तो सब को मुसलमान बना सकते थे. यह एक गंदा झूठ है लेकिन मुसलमानों के लिए इस्लाम का महत्व बढ़ाने के लिये झूठ जायज होने के कारण उन्हें ऐसे झूठ बोलने में कोई अपराधबोध या शर्म का एहसास नहीं होता. वैसे जिन्होंने हुकूमत चलायी वो कोई इन के पूर्वज नहीं लगते और अगर कहीं DNA मिला तो भी वे इनको अपना DNA ब्रदर नहीं मानते. उन बाहरी लुटेरे बलात्कारियों के आज के वंशजों की नज़र में इनकी औकात क्या है, यह समय समय पर सिद्ध होते रहता है.
खैर, बात यह कह रहा था कि शरिया शासन में गैर इस्लामी की जिंदगी क्या होती है यह हम आम हिंदुओं को पता ही नहीं है! ज़हरवंशियों ने यह काम कभी होने नहीं दिया, ऐसा कहना एक हद तक ही सही है. लेकिन हिन्दुत्व की ठेकेदारी करती संस्थाओं और पार्टियों ने भी इस कार्य को करने में कभी रुचि नहीं दिखाई. क्या गत तीन सालों में यह काम नहीं हो सकता था? आज भी यह जरूरी है. देखते हैं क्यों.
चूंकि इतिहास एक कमाऊ विषय नहीं है इसलिए उस पर कोई ध्यान नहीं देता, ना ही लोग समझते हैं कि मुसलमान के लिए बिद’अत कितना महत्व रखती है. इस बात से समझने की कोशिश कीजिये.
मेरा एक सहकर्मी था, कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर. सुशिक्षित था लेकिन कंपनी में उसे उसके हमउम्र सभी तालिबान बुलाया करते थे क्योंकि वो बात-बात में इस्लाम की बड़ाई करता था. अपने हिन्दू जूनियर को जब इस्लाम की महानता सुनाने में हिन्दू देवताओं के बारे में कुछ बोल गया तो HR से कान उमेठने की व्यवस्था करानी पड़ी.
खैर, वैसे बातें बहुत होती थी, उनमें एक दिन बोल गया कि मुसलमान दुनिया पर हुकूमत करते थे, यह तब कर पाये जब मुसलमान कुर’आन को सीने से लगाता था. जब कुर’आन से दूर हुआ, अल्लाह ने उसे हुकूमत से दूर किया, काफिरों की हुकूमत सहने पर मजबूर किया.
एक इंजीनियर यह बात पूरे विश्वास और श्रद्धा से कह रहा था. आप किसी हिन्दू इंजीनियर की कल्पना भी कर सकते हैं ऐसे कुछ कहते हुए कि “हमने गीता या वेद छोड़े इस कारण हमारी यह दुर्गति हुई? उनकी ओर लौटो तो विश्व पर सत्ता चला सकते हैं हिन्दू !”
कोई ऐसा कहते मिले तो आप की प्रतिक्रिया क्या होगी? दुबारा दिखाई दिया तो रास्ता क्रॉस करेंगे, राइट? और सनद रहे कि मैं इसमें आप को कोई दोष नहीं दे रहा. लेकिन मैं बात उस युवा मुस्लिम इंजीनियर की कर रहा हूँ, जिसने इस बात को गंभीरता से माना और दुनिया पर नहीं लेकिन भारत पर हुकूमत करने वालों में एक होना – याने “हुक्मरान कौम” का हिस्सा होना – उसका सपना है.
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यह हुकूमत करना क्या होता है उसके लिए? क्या वो खुद को शहर का या राज्य का या देश का भावी सुल्तान समझता है?
हर्गिज नहीं, वो बिलकुल प्रैक्टिकल व्यक्ति है. उसकी दुनिया सीमित है लेकिन उसमें जो काफिर हैं उन पर हुकूमत चलाने के वो सपने देखता है. और यह हुकूमत में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि उनके दिलों में उसका डर हो, ये उनसे जो मांगे वो उसे वे बिना शिकायत दे दें और ये चाहे तो इससे अपमान भी सहें – बस इसके लिए इतनी सी बात हुकूमत है.
और यह बताएं, इस्लामी हुकूमत का अलग अर्थ क्या देखा है इस देश ने? लेकिन यह बात हम भूल रहे हैं, हमें लगता है कि उनके हमारे सपने एक हैं. नहीं, न कभी थे न हैं और न रहेंगे. बाहर से आई इस्लाम नामक इस विषवल्ली ने उन्हें हम से अलग किया और जब तक वे उससे पोषण पाते रहेंगे, अलग रखेगा. उन्हें ऐसे ही हुकूमत के सपने दिखाते रहेगा. सपने जो इनके समझ में आए. सपने जो सच हो सकते हैं अगर वे अपने खलीफाओं का साथ दें.
सपने जहां वे कैराना के लोगों को भगाएं और उनकी अचल संपत्ति पर कब्जा कर सकें. ऐसे घर जो वे खुद कभी न बांध सकते थे, उनके मालिकों को भगाकर कब्जा सकें. इनके लिए यही हुकूमत के मायने है और इनके लिए उतना काफी है. लेकिन अपनी ऐसी गली भर की हुकूमत पाने के लिए और फिर उसे बनाए रखने के लिए वे अपने खलीफाओं का देश की हुकूमत के लिए लड़ाई में जी जान से साथ देंगे. दे ही रहे हैं.
एक बहुत सरल उदाहरण है, आप के कॉलोनी के बाहर अवैध झुग्गी बस्ती में रहने वाला कोई आप के फ्लैट पर, आप के पैसों पर और पसंद आए तो आप के परिवार पर ऐसी हुकूमत के सपने देखता है. इसीलिए वहाँ उस बस्ती में मस्जिद खड़ी करता है, और उसमें डेसिबेल लिमिट तोड़ने वाले भोंपू लगाकर शोर जिहाद करता है, दिन में पाँच बार अजानास्त्र चलाता है.
क्या इस डरावनी सच्चाई को हम समझ भी रहे हैं? क्या हम इस भयावह सत्य को पहचान भी रहे हैं?
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सावरकर को वामी और मुसलमान क्यों बदनाम करने की जी तोड़ कोशिश करते रहते हैं? क्योंकि मलाबार के मोपला विद्रोह पर उन्होने जो ‘मोपला’ लिखी, इसमें वे यही सत्य का अपने पाठकों से परिचय कराते हैं. यही परिचितों पर हुकूमत का सपना. और अपना सच सामने रखने वालों से ये दोनों विचारधाराएँ द्वेष करती हैं.
पाकिस्तान या बांगलादेश में हिन्दू से क्या व्यवहार होता है यह बताने के लिए वहाँ उनकी निरंतर गिरती लोकसंख्या पर्याप्त है. लेकिन हमें उनकी कहानियाँ मुख्य धारा की मीडिया में नहीं मिलती. ना ही उन्हें रेकॉर्ड करने के लिए ऐसे लोग मिलते हैं जो रोहिंग्या या बंगलादेशियों के लिए उपलब्ध किए जाते हैं. बाकायदा स्क्रिप्ट के मुताबिक रिकॉर्डिंग होती है, इस तरह से डायलॉग डिलीवेरी होती है कि लोग पिघलने ही चाहिए. उनके किस्से बड़े दुखी रंग भरके लिखे जाते हैं.
कश्मीर के पंडितों के ऐसे वीडियो नहीं बनते. न केरल या कर्नाटक के मारे गए संघ कार्यकर्ताओं के परिजनों के. और न मीडिया में उन्हें जगह मिलती है. वहाँ भी वे निष्कासित हैं. उन्हें यू ट्यूब पर खोजना पड़ता है. कौन जाता है खोजने? कभी WhatsApp पर आता है तो भी देखते कम हैं लोग. क्योंकि उसमें कलात्मकता नहीं होती, प्रेजेंटेशन में कमियाँ होती है. और मीडिया में उनकी कोई पैठ नहीं जो उन्हें स्लॉट मिले.
सब से दुख की बात है कि हिन्दुत्व की ठेकेदारी करने वाले संगठन और हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगने वाले पक्ष भी इस बात से पूर्णतया उदासीन है. बस चुनाव के समय यहाँ वहाँ बातें होती हैं लेकिन आम तौर पर सेक्युलरिज़्म का इंजेक्शन लेते देते रहते हैं. हिन्दुत्व के अन्य संगठन कुछ नहीं करते क्योंकि उनका कहना है कि इसका फायदा अगर दूसरे पक्ष को ही मिलेगा तो हम कोयल का अंडा क्यों सेवें?
इस्लामी सत्ता के तहत गैर इस्लामी प्रजा के क्या हक़ हैं? क्या गैर इस्लामी व्यक्ति को उतने ही हक हैं जो आज मुसलमान के एक गैर इस्लामी देश में हैं? कभी पूछिए अपने मुसलमान मित्रों से, वे इतना ही बताएँगे कि इस्लामी देशों में उनके अपने कानून होते हैं और वे उनके हिसाब से होते हैं. देश के अपने अपने कानून होते हैं. कभी इस मुद्दे पर बात नहीं करेंगे कि भारत में इस्लाम की हुकूमत होगी तो क्या हम उनके बराबर होंगे? क्या वे तब हमारा साथ देंगे या अचानक हम उनके आँखों में हुकूमत के कोई अरमान दिखने लगेंगे?
बंगाल में जो ‘जिहादीदी’ की सल्तनत में हो रहा है, क्या इससे अभी भी हिन्दू कुछ समझने को तैयार नहीं? हिन्दू धर्म की आन बान शान कहलाते राजपूतों के राजस्थान की राजधानी जयपुर में जो इस्लामी नंगा नाच होता है क्या उससे कुछ भी सीख नहीं लेना हिंदुओं को? कब कब हिंदुओं का साथ दिया गिनाने वाली पार्टी की सरकार है वहाँ.
जब तक हम आँखों पर की गुलाबी सेक्युलरिता की पट्टी हटाएँगे नहीं, सच्चाई जानने का आग्रह मीडिया से रखेंगे नहीं, झूठ के पैरोकार मीडिया कर्मियों का सामाजिक बहिष्कार नहीं करेंगे, इस समस्या का समाधान नज़र भी नहीं आयेगा, हाथ में आना दूर की बात है.
और हाँ, आज कल अमेरिका भागना मुश्किल है. यह केवल बाबू लोगों के लिए आसान है. आप की बहन बेटी बहू को आप को ही बचाना पड़ेगा, उनकी बेटियों को वे अमेरिका सेटल कराते हैं. हवलदार से इंस्पेक्टर के लिए चिंता है, आला अफसरों के लिए नहीं.
लंबी हो गई बात इसलिए लेखनी को यहाँ विराम दे रहा हूँ.