एक पत्रकार ने कुछ साल पहले एक नेता पर आरोप लगाया कि उन्होंने एक जौहरी से एक लाख रुपये की धोखाधड़ी की है. नेता जी इस आरोप से आहत होकर न्यायालय चले गये. न्यायालय ने पत्रकार महोदय से कहा कि आप आरोप के पक्ष में सबूत प्रस्तुत करिए. पत्रकार महोदय सबूत देने में नाकाम रहे. लिहाजा न्यायालय ने पत्रकार महोदय पर दस हजार का जुर्माना लगाते हुये छह महीने की कैद की सज़ा सुना दी. पत्रकार महोदय किसी तरह से पच्चीस हजार के निजी मुचलके पर जमानत कराके वापस घर लौटे.
पत्रकार महोदय के इस कृत्य से नेता जी के प्रतिपक्ष वाले बड़े खुश हुये. चूंकि पत्रकार महोदय नक्सलियों की पैरोकारी भी किया करते थे, लिहाजा प्रतिपक्ष वाले नेता जी ने अपनी सरकार बनने पर पत्रकार महोदय को नक्सल समस्या सुलझाने वाली समिति का सदस्य बना दिया.
इस तरह से पत्रकार महोदय को अपनी मेहनत का फल मिलने लगा. सरकारी खर्चे पर वह नक्सलियों की पैरोकारी का काम करने लगे और कोई उनके इस कृत्य पर अंगुली न उठाये इसके लिये विरोधी दल के नेताओं के खिलाफ बयानबाजी भी करते रहते थे.
लेकिन इसी बीच कुछ नक्सलियों को उनकी चाल संदिग्ध लग गयी. वह सभी इन्हें धमकी और चेतावनी देने लगे. अभी यह सब क्रम चल ही रहा था कि एक दिन पत्रकार महोदय की गोली मारकर हत्या कर दी गयी.
हत्या किसने की यह तो पता नहीं चला लेकिन सरकार ने अपनी भद्द पिटने से बचने के लिये उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ दफना दिया. बाकी लीपापोती का काम उनके अन्य समर्थक करने लगे.
बहरहाल कहानी पढ़ कर तो आप समझ ही गये होंगे कि वह पत्रकार महोदय नहीं बल्कि महोदया थीं. जी हां… गौरी लंकेश. फिर इन्हें ‘पत्रकार’ लिखने के लिये माफी के साथ यह बताना है कि इनके भाई के अनुसार नक्सली इन्हें धमकी भरे ईमेल भेज रहे थे.
फिर भी कुछ तथाकथित पत्रकारों की राय है कि इनकी हत्या मोहन भागवत और मोदी ने की है. ये वही पत्रकार हैं जो फर्जी खबरें छापने वाली किसी सजायाफ्ता महिला को पत्रकार बता रहे हैं, वह भी विशेषण लगाकर कि “भाजपा विरोधी पत्रकार”.