देश पर जिसे गर्व नहीं, उसे न हो कलम उठाने का भी हक़

री चुन ही 74 साल की हैं. उत्तर कोरिया के नागरिकों की चहेती ये न्यूज़ रीडर 40 साल से एंकरिंग कर रही हैं. हाल ही में हाइड्रोजन बम के परीक्षण की खबर को उन्होंने इतने उत्साह से प्रस्तुत किया कि देश अपनी इस उपलब्धि पर झूम उठा. भले ही किम जोंग ने सरासर अनैतिक कदम उठाया है लेकिन देश तो साथ खड़ा है. इसे एक उदाहरण समझा जाए.

भारत भूमि ने सत्तर साल बाद करवट बदली है. परिवर्तन सदा ही पीड़ादायक होते रहे हैं. पुरानी परम्पराएं, मान्यताएं, सरकार चलाने के ढंग, यहां तक कि भारतीय राजनीति में आमूलचूल बदलाव के संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं. एक आम भारतीय इस बदलाव से एक तनाव महसूस कर रहा है.

ऑपरेशन तकलीफदायक होता ही है लेकिन तकलीफ़ और बढ़ जाती है जब मिजाजपुर्सी के लिए आए रिश्तेदार अंडबंड बकने लगते हैं. ‘डॉक्टर सही नहीं चुना’, ‘ऑपरेशन गलत हॉस्पिटल में करवा लिया’, ‘अब देखना परेशानी बढ़ेगी’. ऐसा ही ‘रिश्तेदार’ बना हुआ है विपक्ष और मीडिया का एक धड़ा, जो सरकार के अच्छे काम पर बात नहीं करता, उसे प्रोत्साहित नहीं करता.

मिस्टर रवीश कुमार इस समय आप खाऊ कुमार नज़र आ रहे हैं. कल प्रेस क्लब से लाइव में उनका भाषण सुना. उसमें भी मोदी राग के सिवा कुछ नहीं मिला. वे दाधीच नामक व्यक्ति से नाराज़ थे कि उसने गौरी पर अमर्यादित ट्वीट किए और इस बात का गुस्सा ज्यादा था कि मोदी इसको क्यों फॉलो करते हैं.

अब मोदी ज्योतिष भी बन जाएं और पता लगा लें कि अगले दिन कौन क्या ट्वीट करने वाला है. जिस तरह से रवीश कुमार की बीमारी बढ़ती जा रही है, मुझे यकीन है कि कल अपने घर के नलके के जाम होने का दोषी भी मोदी को ठहराएंगे. गौरी की हत्या का मोदी और सोशल मीडिया से क्या संबंध है, मुझे तो समझ नहीं आया. वहां तो भाजपा की सरकार भी नहीं है. रवीश ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री से कोई सवाल नहीं किया, हैरानी की बात है.

हर एंगल से मीडिया साबित करने पर तुल गया है कि गौरी की हत्या हिंदुत्ववादियों ने की है. आज एनडीटीवी एक आत्मसर्पण कर चुके नक्सली से बात कर रहा था. पूर्व नक्सली का नाम है ‘नूर श्रीधर’ (मुझे तो इस नाम में ही घपला नज़र आता है). इनका कहना था कि नक्सली ऐसा घटिया काम नहीं करेंगे (यानि अपने वाले को नहीं मारेंगे) ये है मुख्य धारा की पत्रकारिता का हाल. यानि फौजी की हत्या घटिया नहीं होती, वीरता होती है.

अंत में फिर री चुन ही की बात. एक वो 74 साल की वृद्धा हैं जो अपनी सरकार के बड़े फैसले का समर्थन कैसे हुंकार भरकर करती हैं. और एक है रवीश कुमार, जिन्हें एक पत्रकार की हत्या पर भी मोदी को रोना रहता है. अपने देश पर जिसे गर्व नहीं, उसे कलम उठाने का भी हक़ नहीं होना चाहिए. ऐसे सौ रविशों और प्रसूनों से भली ये वृद्धा है.

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