बीतते क्षणों के साथ
गड्ढा और गहराता जाता
वह रोज मिटटी डालती
उसे भरने के प्रयास में –
पर,
चलने वाले रौंदते हुए निकलते
उनके जूतों में सटी मिट्टी
उनके साथ ही निकल जाती…
उसने भरसक प्रयास के बाद
रोपा एक पौधा – स्वप्न का
शाम हुई,
दबे पाँव रात भी आई –
वेला हुई स्वप्न के फूलने की
इठलाती वह चली –
दिखाने सबको – अपने स्वप्नों की कली . . .
देखने वालों की भीड़ में
किसी ने नोंच लीं पंखुड़ियाँ
शुभकामनाओं के तूफ़ान में
छिपे थे ईर्ष्या के अंधड़ –
निराशा की रात काटी उसने किसी तरह
पर,
सवेरा नहीं हुआ…
जीवन की दोपहरी में
मन के जलते रेगिस्तान पर
अंगारों की नदी थी बह रही –
पंखुड़ियाँ हो चुकीं थीं भस्म…
उबलती नदी को बाँधने
वह फिर मन की मिटटी लाई थी –
इस बार वह मिटटी में
मिला लायी थी आँसुओं की गोंद –
शायद मन का गड्ढा भर जाए
फेविकोल का जोड़ न सही
मन का जुड़ाव हो कहीं –
शायद मन का पौधा
जी जाए…
स्वप्नों की हथेली की रेखाएँ
कभी पढ़े कोई,
और
जूतों के सोल में नहीं,
अंजुरी में उठा कर
करे कोई समर्पित अर्घ्य
आशा का पौधा हरा-भरा हो
बस यूँ ही रीतता गड्ढा भर जाए !!