शिक्षक दिवस : उस अनजान भविष्यवक्ता को भी नमन….

ये बात तकरीबन 46 वर्ष पुरानी है. मैं जबलपुर विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग से एम.ए कर रहा था. सायकिल से जाना-आना होता था. कभी-कभार पिता जी बाहर चले जाते तब स्कूटर की शाही सवारी नसीब हो जाया करती थी.

एक दिन दोपहर में विश्वविद्यालय से लौट रहा था तभी सिविल लाइंस में मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री स्व. पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के बंगले से निकल कर शहर की तरफ आते एक बुजुर्ग पर निगाह गई. एक झोला लिए, गांधी टोपी धारी वह बूढ़ा अत्यंत साधारण या यूं कहें कि मध्यमवर्गीय गरीब लग रहा था.

मैं उसके बगल से गुजर गया और फिर थोड़ी दूर जाकर अचानक लगा कि उससे पूछें कि उसे कहां जाना है? ज्यों ही वे मेरे करीब आये मैंने पूछा, “बाबा कहाँ जाओगे”, तो वे अत्यंत कातर भाव से बोले, “बेटा बाई के बगीचे में रहता हूँ”. मैंने कहा, “कैसे जाओगे”, तो हंसकर बोले, “पैदल आया था और वैसे ही जाऊंगा”.

तब मैंने कहा, “चलिए मैं छोड़ देता हूँ”, तो संकोच में पहले मना करने के उपरांत स्कूटर पर किसी तरह पीछे बैठे और गिरने के भय से मेरे दोनों कंधे जोर से पकड़ लिए.

सफर शुरू हुआ तो मैंने कुरेदा, “मिश्र जी के यहां काम करते हो”, तो बोले, “नहीं पुराना परिचय है. कभी कांग्रेस का काम करता था. उन्होंने सरकारी मास्टर बनवा दिया. रिटायर हूं. कभी-कभी दर्शन हेतु आ जाता हूँ. आज आराम कर रहे थे तो मिलना न हो सका”.

हाइकोर्ट चौक आते ही बोले, “बस यहीं छोड़ दें, मैं चला जाऊंगा”, किन्तु मैंने उन्हें घर के पास वाली सड़क तक छोड़ा और चलते समय स्कूटर खड़ा कर उनके चरण छुए तो वे बोले, “बेटा मैंने तुम्हें पहिचाना नहीं”.

मैंने उनसे कहा, “जानता तो मैं भी आपको नहीं हूँ लेकिन आप शिक्षक रहे हैं उस नाते आपका आशीर्वाद लेना मेरा कर्तव्य है”.

बुजुर्गवार की आंखों में चमक सी आ गई. झुकी गर्दन कुछ सीधी हुई औऱ बोले, “कहाँ से पढ़े हो”, तब मैंने उस फूटाताल सरकारी प्राथमिक शाला का नाम बताया जिसकी टाट पट्टी पर बैठ कर मेरा विद्यार्थी जीवन शुरु हुआ था.

सिर पर हाथ रखकर उन्होंने आशीष देते हुए कहा, “किसी अच्छे घर के लगते हो. पिता जी क्या करते हैं”?

मैने बताया तो खुश होकर बोले, “अरे वे तो बड़े पत्रकार हैं, उन्हें नमस्कार कहना और आओ चाय पीते जाओ”. मैंने विनम्रता से इनकार किया तो कहा, “बेटा अच्छे से पढ़ना और अपने पिता जैसा बनना”.

मुझे उनकी आखिरी बात तनिक भी रुचिकर नहीं लगी क्योंकि तब ज़िन्दगी में सपनों का कोई अंत न था. वक़्त बढ़ता गया. विश्वविद्यालय से मिली राजनीति शास्त्र की किताबी शिक्षा और घर में व्याप्त उसके प्रायोगिक अनुभव के बाद भी अपनी पृष्ठभूमि और स्वभाव के विपरीत मैं बैंक की सेवा में आ गया.

अच्छा खासा भविष्य था किंतु प्रारब्ध ने वह अफसरी छुड़वा दी और मैं बन गया पत्रकार. अपने पिता के संघर्ष और अभावों को देखने के बाद मैं इसके बारे में कभी सोचता तक न था किन्तु अंततः मैं उसी क्षेत्र में स्थायी रूप से आ गया.

कभी-कभी सोचता हूँ कहीं मेरे जीवन की दिशा को मोड़ देने में उस बुजुर्ग शिक्षक का वह आशीर्वाद “अपने पिता जैसा बनना” तो काम नहीं कर गया. सचमुच जीवन में ऐसी कई छोटी-छोटी घटनाएँ होती हैं जिनका प्रभाव चमत्कारी होता है.

मुझे अपने शिक्षकों का स्नेह और आशीर्वाद सदैव मिला. वे सभी मेरे हितचिंतक रहे किन्तु उस अनजान शिक्षक के शब्दों में मेरा भविष्य छिपा था, ये बहुत बाद में समझ सका.

आज भी कभी विश्वविद्यालय जाता हूँ तो मिश्र जी के उस बंगले की तरफ देखता हूँ जो टूटकर कॉलोनी में बदल गया है और उस सड़क पर चलते हुए उस बूढ़े मास्टर को भी याद करता हूँ जिसने थोड़ी दूर के सफर में साथ चलते हुए मेरी मन्ज़िल जान ली थी. उनके निवास वाले इलाके से गुजरते हुए भी पूरा दृष्टांत मानस पटल पर तैर जाता है.

आज शिक्षक दिवस पर सभी अपने शिक्षकों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त कर रहे हैं तब मैं उस अपरिचित शिक्षक का आदरयुक्त स्मरण करना अपना फर्ज समझता हूं जो किसी सिद्धहस्त भविष्यवक्ता से कम नहीं था.

– रवींद्र वाजपेयी (वरिष्ठ पत्रकार)

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