उनके चूज़ों को कंट्रोल करिये नहीं तो प्रसवकाल में ही 92 साल की साधना लील जाएंगे. यहां चूज़ों से साफ-साफ मतलब देश भर में उभर आए हज़ारों नेता-पुत्रों से है. कुतरने का स्पष्ट मतलब लगाइये भारतीय लोकतंत्र से, जिसे आज तक कांग्रेस की राजशाही परिवारवादी राजनीति से चला रही थी.
इधर भारतीय जनता पार्टी के आने से देश भर में आशा की किरण उपजी थी कि राजतंत्रात्मक प्रवृत्ति से देश को अब छुटकारा मिलेगा. लेकिन इस साल के यूपी चुनावों में इसकी प्रवृत्ति बढ़ी महसूस हुई है. फिर देश के लगभग सभी राज्यों में महज 20 सालों में उभर आये पैरासाइट नेताओं के पुत्रों की महत्वाकांक्षा दिखाई दे रही है.
इनसे व्यक्तिगत मिलिए तो नौकरशाहों का घमंड भी इनके आगे फेल है. उनके अंदर घमंड, ऐंठ, दुश्चरित्रता, ढीठता, उजड्डपन, लुटेरापन कहाँ से उपज रहा है, यह भी अध्यय्यन का विषय है. शायद उन्हें पता नहीं यह सत्ता काल उनके पिता की योग्यता से नहीं बल्कि संगठन की त्याग-तपस्या, ध्येयनिष्ठा से उपजा है.
यह स्वभाव कहां से मिला, ठीक से अध्ययन करिए. उन्हें लग रहा है यह स्थिति उनके पिता ने पैदा की है और वे उसे खा-भोग रहे हैं. तो उन्हें बताने की जरूरत है यह संगठन कांग्रेस, या सपा, बसपा, डीएमके, तृण मूल जैसी बपौती नहीं है.
उनके किये की सज़ा उनके अभिभावक को कठोरता से मिलनी चाहिए. जिससे सबक मिल सके. बाल-बच्चो को संस्कार कैसे दें. हम संस्कारों के संगठन से जुड़े हैं. यह अहसास हरदम बना रहना चाहिए. बल्कि मेरा मानना तो यह है नेता पुत्रों को किसी भी तरह के राजनीतिक पदों से दूर रखा जाए.
इसका सर्वश्रेष्ठ उदारहण अटल जी, आडवाणी जी ने प्रस्तुत किया है. आडवाणी जी के पुत्र-पुत्री जयंत आडवाणी और प्रतिभा आडवाणी दोनों ही राजनीति में नहीं आए. न ही उन्होंने अपना कोई रिश्तेदार राजनीति में आने दिया. ऐसे ही अटल जी की दत्तक पुत्री और उनके दामाद दोनों ही राजनीति में नहीं आए. उनके एक-दो रिश्तेदार आए तो अटल जी ने बिल्कुल महत्व नहीं दिया.
भाजपा में ऐसे हज़ारों कार्यकर्ताओं के उदाहरण हैं जिन्होंने अपने रिश्तेदारों और पुत्रों को राजनीति से दूर रहने की ताकीद की. लेकिन इन दिनों कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हज़ारों नेताओं ने अपने चूज़ों को पार्टी-विचार धारा को कुतरने में लगा दिया है. और अभी तक उनको समाप्त करने का कोई ठोस उपादान नहीं खोजा जा सका है.
सौभाग्य से प्रधानमंत्री मोदी, और अध्यक्ष अमित शाह के रिश्तेदार भी राजनीति में नहीं है. वे इन उदाहरण पुरुष के तौर पर है. आशा की किरण बाकी है. हमें प्रश्न करके उन नीतियों को लागू करवाना चाहिए जिससे नेता-पुत्र और उनके रिश्तेदार भाई-भतीजे मूल राजनीति से दूर रहें. उन्हें वनवासी कल्याण, सेवा भारती आदि के काम दिए जाएं. 55 साल की उम्र तक उनको राजनीति के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए. नहीं तो कांग्रेसी संस्कृति या कांग्रेसी स्वरूप लेने में देर नहीं लगेगी.
यह ट्रांज़िशन पीरियड है. हर पल सजग रहिये. हर चूल-पेंच कस के रखिये. किसी की भी करनी संगठन के तपस्वियों की साधना को खा रही हैं तो उस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. उन को साफ-साफ समझाइए संगठन इनके पिता का नहीं है. इनके पिता का इतना ही योगदान है कि वे सबकी तरह एक साधारण कार्यकर्ता रहे. उनका कोई बड़ा योगदान नहीं है. वे कभी मंदिर, कभी मोदी, कभी संगठन पर जंन विश्वास के नाम पर सत्ता में आये हैं.
संगठन सामूहिकता की ताकत से बना है. ज़रा सा भी दाग समस्त त्याग, तपस्या को बेकार कर देगा, क्योंकि मीडिया, विरोधी पार्टियां और समस्त वामी, सामी, कामी नज़र लगाए बैठे है. वे छोटी घटना को भी बहुत बड़ा बना कर पेश करेंगे. दुश्मन के हर तीर का सामना करने के लिए हमें चरित्र और ध्येयनिष्ठा का मज़बूत कवच तैयार रखना होगा.