एक रेल मंत्री का यूं जाना…

26 जून 2012, सुबह चार बजे. तमिलनाडु के काठपाडी स्टेशन पर उंघते अलसाई आखों वाले अनुज अग्रवाल तत्काल आरक्षण की लम्बी लाइन में लग जाते हैं. उस समय न तो लैपटॉप था हाथों में और न ही तेज इन्टरनेट कनेक्शन. वरना आजकल की तरह घर बैठे टिकट कर लेते शान से. तब साईट भी धीमी ही चलती थी रेलवे की. कछुओं से बराबरी करती हुई. हिम्मत भी नहीं होती थी साइबर कैफे से रिजर्वेशन करने की.

8 बजे और विंडो खुली. मोटा ऐनक पहले एक प्रौढ़ा सीट पर आई. धीरे धीरे काम शुरू हुआ. 8.03 पर टिकट बुक हुई. ट्रेन थी GT एक्सप्रेस कोच A 2 सीट नंबर शायद 33. थर्ड एसी नहीं मिली थी. मजबूरन सेकंड एसी के पैसे खर्च करने पड़े. खैर अग्रवाल साहब बहुत खुश थे. प्रथम बार एसी टू टियर में बैठ के जाने वाले जो थे.

एक आम आदमी की चाहत होती है एसी में सफ़र करना. हवाई जहाज में उड़ना. जनरल में सफ़र करने वाले आदमी के लिए स्लीपर में बैठना एक उपलब्धि के समान होती है. स्लीपर मैं सफ़र करने वालों के लिए भी एसी में सफ़र वो भी टू टियर मैं बैठना सपने जैसा ही है.

उस समय तक मैं भी कुछ भिन्न नहीं था. एक उत्सुकता थी एलीट क्लास में सफ़र करने की. सोच रहा था कैसे होते होंगे एसी कोचेस. क्या स्लीपर की तरह गंदे, भद्दे और बदबू से भरे हुए ? चूहे और कॉकरोच के पनाहगार जैसे स्लीपर कोचेस होते हैं ? नहीं-नहीं… उसमे तो बड़े लोग सफ़र करते हैं. उसमे तो अच्छी साफ सफाई होती होगी. इस तरह मन में विचार लिए अग्रवाल साहब फाइनली ट्रेन में सवार हो गए. अस्तु

घर वापस जाने के उल्लास में चेन्नई की उमस भरी शाम भी सुहानी प्रतीत हो रही थी. अग्रवाल साहब ट्रेन में बैठते ही गबन पढने बैठ गए. लम्बे सफ़र में आपकी सच्ची साथी किताबें ही हुआ करती हैं. फिर प्रेमचंद तो शब्दों के जादूगर हैं. शब्दों की ऊन से भावनाओं की सलाई द्वारा कहानी बुनने में तो प्रेमचंद माहिर थे. आप प्रेमचंद को पढ़ते नहीं हैं बल्कि आप खुद प्रेमचंद के उपन्यास का एक किरदार बन जाते हैं. उनके उपन्यास के नायक की पीठ पर लगने वाले कोड़ो के निशान आपकी पीठ पर उभर आते हैं. निर्मला को आप अपनी सखी पाते हैं. एक अजीब सी कशिश है उनकी कहानियों में. जो बरबस पाठकों को अपनी ओर खींचती है.

गबन पढने का सिलसिला 9 बजे तक चलता रहा. फिर अग्रवाल साहब खाना खाने बैठे. रेलवे का खाना. शायद 70 या 80 का रहा होगा. खाना क्या था 2 परांठे टाइप रोटियां. कच्ची तो नहीं कहूँगा हाँ अधपकी कहूँगा क्योंकि हर परिस्थिति में सकारात्मक ही रहना चाहिए. दाल जिसमे तड़का नहीं था. उसका पीला पानी अलग था. शर्माती दाल नीचे बैठी हुई. नई दुल्हन की तरह खुद को एक कोने में समेटे हुए. एक सब्जी भी जो शायद उमस की वजह से भुस(ख़राब) गई थी.

खैर परिस्थितियां आदमी को कीड़े खाने सिखा देती हैं मुझे तो फिर भी भाग्य से अधपकी रोटियां मिली थीं. तमिलनाडु में रहते हुए ख़राब नार्थ इन्डियन खाना खाने का अभ्यास विगत 3 दिनों में हो चुका था. इसीलिए २ आचार के पाउच खरीद लिए थे. धीरे धीरे पानी के सहारे सूखी रोटियां हलक से उतार ली थीं. फिर सो गया.

रात सिर के पास कुछ हलचल सी हुई. न चाहते हुए भी उठ के बैठना पड़ा. फोन की टॉर्च जलाई तो देखा एक कॉकरोच महोदय बुद्ध की सी मुद्रा में अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं. एकदम शांत और निर्विकार. शायद उन्हें इस बात का भान न हो कि उन्हें इस वक्त वहां नहीं होना चाहिए था. उन्हें झटक कर हम प्यारी निद्रा रानी के आगोश में पुन: सो गए. रात भर चूहे और शायद छछुन्दरों ने भी ची ची करने की कोशिशे बहुत की. किन्तु हम उनके रुदन को दरकिनार कर बेखबर हो सो गए.

सुबह जगे तो शायद 9 बज चुके थे. वाशरूम की हालत किसी थर्ड क्लास स्कूल की केमिस्ट्री लैब की तरह हो चुकी थी. लग रहा था कि किसी ने अमोनिया गैस को कृत्रिम रूप से बनाया हो. और प्रयोग की हुई परखनलियाँ बाथरूम में ही तोड़ दीं हो. वहां का वर्णन अब भी नासिका में तीक्ष्ण गंध भर देता है. अत: वाशरूम वृतांत नहीं सुना रहा. आप स्वयं कल्पना कर लीजियेगा कि उस कठिन समय ,में परिस्थितिया कितनी विषम रहीं होंगी.

पूरे सफ़र में एक बार भी कोचेस की सफाई नहीं हुई. कई बार एसी ओन ऑफ हुआ. चूहे इधर से उधर घूमते रहे. कॉकरोच वगैरह का भी यदा कदा विचरण होता रहा. ऐसा लगता कि ये सब भी मेरे सहयात्री हैं. ठीक ए जी गार्डिनर की ‘अ फेलो ट्रैवलर’ वाली फीलिंग दिलाते रहे ये सब. अंतर सिर्फ इतना था कि उनका फेलो ट्रैवलर सिर्फ एक मच्छर था और मेरे साथी ये अनगिनत कीड़े मकौड़े.

जैसे तैसे 2 टियर के सफ़र वाली पहली यात्रा दिल्ली में आके पूरी हुई. साथ में वो उत्सुकता भी चकनाचूर हुई जिसे मेरी कल्पनाओं ने जन्म दिया था. समझ आ गया था. एसी की सुविधाएं भी कुछ खास नहीं हैं. भले ज्यादा पैसे गए हो आपके. किन्तु ये तत्कालीन रेलवे का समतावादी सिद्धांत ही था जो वो अपने हर यात्री को समदर्शी होकर समान सुविधाएँ प्रदान करता था.

फिर अचानक देश में एक नया सवेरा भी हुआ. सुरेश जी सरीखे रेलमंत्री हमारे देश को मिले. रेल की स्थिति में आपने आमूलचूल सुधार किये. स्टेशंस पर वाईफाई दिया. प्लेटफोर्म्स को खड़े होने लायक बनवाया. सफाई करवाई. खाने लायक खाना मयस्सर करवाया. रेलयात्रा के दौरान कोचेस की सफाई होना भी शुरू हुआ. कुछ ऐसे कोचेस भी बने जिसके चार्जिंग स्विच काम करते हों. और सबसे बड़ी बात IRCTC से तत्काल टिकेट भी मिलने लगीं. ट्विटर तक पर आपने शिकायतों का संज्ञान लिया. एक आम आदमी को इससे ज्यादा और क्या चाहिए सर ? हालाँकि आपने किराया भी बढाया पर सुविधाएँ भी मिली तो पैसे का गम नहीं हुआ.

सच कहूँ तो लगता नहीं था कि रेल का सफ़र कभी इतना अच्छा भी हो सकता है. घटिया रेलयात्राओं को हमने अपनी परिणिति मान लिया था. पर Suresh Prabhu जी ने इसे सुधारा. मैं आपको इसके लिए बधाई देता हूँ. ऐसा नहीं है कि जो कुछ आपने किया उसमे कुछ खास था आपने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया था. बड़ी बात तो ये थी कि एक नेता होते हुए भी आपने अपना कर्तव्य निभाया. और इसके लिए हम भारतवासी और कम से कम मैं तो आभारी हूँ.

आज कुछ दुःखद दुर्घटनाओं की वजह से आपको आपकी जगह छोड़नी पड़ रही है तो डर लग रहा है कि रेल यात्रायें कहीं अपने 2012 वाले स्वरूप में न आ जाएँ. किन्तु ये आशा भी है कि रेलवे ने आपके नेतृत्व में जिन ऊँचाइयों को छुआ, Piyush Goyal जी के नेतृत्व में उन ऊँचाइयों को अनंत आकाश में जगह मिलेगी.

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