रात को पंजाब – डेरा पर कुछ लिख रहा था और लिखते-लिखते ना जाने कब नींद लग गई, और नींद खुली, तब जब लगा कि किसी ने मुझे पैरों में गुदगुदी कर उठाया. आँखे खुलीं तो देखा सामने साक्षात यमराज खड़े हैं. घबरा कर आँखे मल फिर देखा, अरे यह तो गुरमीत राम रहीम हैं. तब मुझे समझ आया कि कल से आँखें क्यों फड़फड़ा रही थीं और रात में कुत्ते क्यों रो रहे थे.
चेहरे पर विषाद की थकान साफ दिखाई दे रही थी, वह नूरानी चेहरा मुरझाया हुआ था जिसको देख कर लगता था कि वह खाते पीते घर के बच्चे हैं. निढाल निस्तेज से, लगता मानों अब भी किसी फिल्म की शूटिंग कर के आ रहे हैं.
हैरानी से मैंने कहा, “वीरे, यह क्या स्यापा पा लिया? क्या हाल बना रखा हैं?”
कुछ हिकारत भरे अंदाज में उन्होंने कहा, “खोत्या, मर्यादा ना भूल. पैरी पोना गुरु पा”.
मैंने झट मर्यादा सम्हाल ली, “बट व्हाट इज़ दिस मैटर?”
वे बोले, “मैं उम्मीद ले कर तुम्हारे पास आया हूँ, अब तुम्हीं साथ दे सकते हो”.
सुन कर मैं सिहर गया. ना जाने कैसी उम्मीदे ले कर आये हो? अभी मात्र तीन दिन ही गुजरे थे उन्हें नाउम्मीद हुए.
“हुकुम गुरु पा”, मैंने कहा.
“तुम अब डेरा सम्हालो और डेरा मुखी बनो”, आदेश मिला.
“ओह नो गुरु पा, देट्स नॉट पॉसिबल. यू नो कितना बिज़ी रहता मैं? सोशल मीडिया के प्रति मेरा कमिटमेंट हैं, फिर 2019 भी देखना हैं हर हर मोदी घर घर मोदी संग”.
“तुम शक्ल से ही मूर्ख हो पुत्तर, इसलिए मैं अक्ल की उम्मीद भी नहीं करता और तुम्हारे पास आने की अहम् वजह भी यही हैं”, उन्होंने अधमुंदी आँखों से वस्तुस्थिति से मुझे अवगत कराया.
“गुरु पा, कुछ नई बात करो”, मैंने भी ढिठाई कवच से उनका वार रोकते हुए कहा.
“तुम्हें वही करना हैं जो अब तक सोशल मीडिया में लोग करते आये हो, डेरा चलाना और फेसबुक चलाना लगभग एक सा ही हैं और मैं बहुत समय से तुम्हें वॉच करता आ रहा हूँ, तुम दिन भर हजारों ग्रुप में ख़ुशी-ख़ुशी एड हो जाते हो, तब ही मैं समझ गया कि डेरामुखी के यही लक्षण हैं, सो उठो और गद्दी सम्हालो”.
मैं हक्का बक्का रह गया. क्या मूर्खता की बातें हैं, लगता हैं तीन दिन जेल की रोटियों ने सोचने समझने की शक्ति खत्म कर दी हो. कहाँ फेसबुक चलाना और कहाँ डेरा चलाना?
“नादान, यह जो फेसबुक के दद्दा, चाचा टाइप के लोग हैं वह भी डेरा ही तो चला रहे हैं फेसबुक पर”‘ कुछ दर्जन भर नाम गिनाते हुए कहा उन्होंने.
“शर्म आना चाहिए आपको गुरु पा, कहाँ उनकी तरह दीन दुनिया के चिंतन करने वाले चिन्तक और कहाँ आप महिलाओं के रसिया”!
“देखो रसिया तो तुम भी कम नहीं हो जो किसी भी महिला की उटपटांग शायरी, कविता पर कूदते फांदते वाह वाह करते हो. वैसे ही मैं भी किसी महिला को देख कर आह करता था, फिर क्या फर्क हुआ”?
“लेकिन हम तो दूर से हौसला अफजाई करते हैं किसी के विचारों की, हमारी नीयत साफ़ हैं, विजन व्यापक हैं”, मैंने तर्क दिए, अब मैं भी डिबेट के मोड में आ गया था.
“तो क्या हुआ, मैं भी अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा लेता था बापू की तरह, बस फर्क यह है कि मैं बार-बार फेल हो जाता था. और फेल हुए छात्रों से तो हमेशा सहानुभूति और स्नेह से पेश आना चाहिए… तारे ज़मीन पर नहीं देखी क्या”, उन्होंने असली रूप में आते हुए अपने पत्ते शो किये.
“तुमने अपने विरोधियों की आवाज़ बंद करवा दी थी, यह कैसा धर्म है”, मैं गुर्राया.
“सो व्हाट? तुम भी अपने विरोधियों को ब्लॉक करते हो या नहीं?”
“और जो तुम अपने डेरे की गुफा में महिलाओं संग अमर्यादित हरकतें करते थे”, मैं गरजा.
“कूल पुत्तर कूल, महिलाओं संग इनबॉक्स में की गई बातचीत को बाहर निकालना कोई मुश्किल नहीं हैं, सोच लो”, ऐसा लग रहा था मानो पूरा होमवर्क करके आया बन्दा.
“देखो”, उन्होंने फिर मृदुल स्वर में समझाया, “जैसे तुम दिन भर एक पोस्ट डाल कर फिर सैकड़ो पोस्ट पर जाकर इस उम्मीद से लाइक-कमेन्ट करते हो कि वह भी पलट कर तुम्हें अनुग्रहित करेंगे, मैं चाहता हूँ तुम यह दर दर भिक्षुक बन कर जाना छोड़ दो, डेरामुखी /मठाधीश बन कर बैठो तब भक्त तुम्हें खोजते हुए आयेंगे और तुम्हारे हर उटपटांग वक्तव्य को भी उसी तरह श्रद्धा से ग्रहण करेंगे जैसे फेसबुक पर ‘वाह दद्दा आह दद्दा’ करके ग्रहण करते हैं”.
तो आप चाहते हैं कि मैं आपका पट्टा अपने गले में डाल लूं”, मैंने घातक फिल्म के सनी वीर को याद कर के कहा, “यह मेरे विचारों के खिलाफ है”.
“कंगले हो क्या”, उन्होंने उपहास उड़ाने के अंदाज़ में पूछा.
“क्यों”? चोरी पकड़ाने पर सकपकाते हुए पूछा.
“विचारों की बात कर रहे हो, इससे ही ज़ाहिर है कि जेब खाली हैं. जेब में या तो विचार आ सकते या माया. और डेरा मुखी बनो तो माया भी आएगी और मायावती भी आती रहेगी. रही बात विचारों की, तो क्या अचार डालना हैं विचारों का? यह जो तुम्हारे विद्वान विचारशील मठाधीश हैं ना, उन सबके लाइक-कमेन्ट को मिला कर भी एक दिए की बाती नहीं जला सकते, डेरा मुखी बन कर जियो, शहर के शहर जलाने के लिए विचारशील लोगों का हजूम मिल जाएगा.
“ओके, मैं सोच कर जबाव दूंगा”, मैंने टालने की गरज से कहा.
“सोचो, ज़रुर सोचो, शोचनीय लोगो की यही पहचान है”, इतना कह कर MoG अंतर्ध्यान हो गए.
– सतवीर सिंह
(Note- व्यंग्य को व्यंग्य की तरह पढ़ें, भावनाएं आहत ना करें)