सनातन धर्म स्वानुशासित धर्म है. जिसमें बाबावाद की कोई गुंजाइश नहीं है. सनातन धर्म की साधना हेतु मन्दिर/ मठ/ गुरुकुल आदि के निर्माण किये गए. इनका उद्देश्य समाज में समरसता, एकेश्वर के प्रति निष्ठागत एका, और शिक्षा प्रदान करना था. यद्यपि सनातन में निराकार की साधना के भी भाव-विचार हैं.
अनादिकाल से चले आ रहे सनातन में साधना, आराधना के लिये स्वयं के विवेक पर आराध्य के चयन के भी मार्ग हैं. जिनमें से कुछ साधक मूर्ति की उपासना करते हैं. तब मंदिरों के निर्माण भावभूमि पर उतरते हैं. मंदिरों में कई सेवक होते हैं जो मन्दिर, प्रांगण की साफ सफाई के साथ मूर्ति के वस्त्र, प्रसाद, भजन, पूजन और आरती करते हैं. मूर्ति में व्याप्त सांकेतिक ईश्वर के भोर जागरण से लेकर नित्य स्नान प्रत्येक प्रहर के भोगप्रसादी से ले के ईश्वर को मंत्रोच्चार समवेत पुनः शयन कराना प्रधान सेवक के दायित्व होते हैं जिन्हें पुजारी कहा जाता है. पुजारी कर्मकांड में सिद्धहस्त होने के अलावा मंत्रों के ज्ञाता भी होते हैं. जिसकी शिक्षा विधिवत प्रदान की जाती है साथ ही इसके लिये वेतन अथवा पारिश्रमिक भी देय होता है. अधिकांश यह पूजा-सेवा विरासत में भी मिलती है. तब पुजारी अपने पुत्र को बालवस्था से मन्दिर के नियम-विचार के बारे में उन्हें अवगत कराना प्रारम्भ कर देते हैं. इसी तरह गुरुकुल में गुरु की भूमिका शिक्षाप्रदाता की होती है.
मन्दिर की ध्वजा केसरिया अथवा भगवा रंग की होती है. भगवा रंग ईश्वरीय सत्ता का द्योतक है. भगवा सेवा, त्याग और वीरता का प्रतीक है. सेवा ईश्वर की, ईश्वर के रूप में दुःख दारिद्र्य की, और संवेदना की. त्याग के भाव में फलित ग्रहण करके लोलुपता और सँग्रह से मुक्त हो कर सन्तोष को परमसुख के रूप में अंगीकार कर प्रसन्नता से जीवनयापन करना है. वीरता के भाव में अन्यायी से न्याय की रक्षा करते हुए, धर्म की स्थापना-पुनर्स्थापना करना है. आत्मरक्षा के साथ दुर्बल की रक्षा के लिये सबल को शस्त्र भी उठाना पड़े तो मान्य है किन्तु आततायी बन के स्वयं सबल होते हुए निर्बल को सताना, उन पर प्रहार करना, उनका धन-मान-स्त्री हरण करना विधर्मियों के लक्षण हैं.
सनातन का अर्थ है शाश्वत काल से जिसका होना है. सनातन अनादि से अनन्त होकर जड़ से चेतन में प्रवाहमय है. सनातन धर्म सभी धर्मों का मूलाधार है. कालांतर में धर्म के विभक्तिकरण में जितनी भी शाखाएं-उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं वे सनातन धर्म के ही नाम से आज तक जानी जाती हैं.
जब सनातन को विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसके सभी पक्ष और विचार तर्कसम्मत सिद्ध हैं. जहाँ अनेक प्रश्न गुत्थियाँ बन के जटिल हो जाते हैं, वहीं सनातन उचित रूप में उनके तर्कसम्मत उत्तर देते हुए सभी पक्षों को सन्तुष्ट करता है.
जीवन के जिस सच को जानने के यूथ जिज्ञासु रहता है, तरह-तरह के ठठकर्म अपनाता है, कई देशों से व्यक्ति जीवन के अदेखे और एकमेव सच को खोजने जिस पावन भारतभू पर आते है, जो सच संसार की किसी किताब में नहीं, किसी तकनीकी में नहीं वह सच स्वयं एकमेव सत्य सनातन धर्म है. जैन, बौद्ध, सिख, और इनकी तमाम उपशाखाएँ यहाँ तक कि चार्वाक दर्शन के अनुयायी नास्तिक भी सनातनधर्मी हैं.
सनातनधर्मी होने के लिये कोई विशिष्ट योग्यता अथवा वस्त्र नहीं धारण करने होते हैं, सिवाय वह सनातन के किसी भी दर्शन को स्वीकार करता हो. सनातन में कोई पूजा-पद्धति पर विशेष जोर नहीं दिया गया है. अनुयायी किसी भी तरह से अपने मन को रूचने वाली पद्धति अपना सकता है. सनातन धर्म में कई देवी-देवता, उपासना-पूजा पद्धतियाँ होने के बाद भी एकेश्वरवाद की संकल्पना लिये हुए समस्त ब्रह्मांड के परिप्रेक्ष्य में “वसुधैव कुटुम्बकम”की व्याख्या करता है.
कालांतर में प्रबल होती कुरीतियाँ और शिक्षा के अभाव ने समाज को जो व्यवस्थाएं दीं उनमें अन्धविश्वास प्रमुख था. इनमें दहेज प्रथा, सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या, घूँघट प्रथा, झाड़फूंक और ऐसी तमाम दुःसंकल्पनाएँ उभरी जिन्होंने सनातन के मूल पर घात करके अर्थों के अनर्थ कर दिए. इनमें विधर्मियों के आक्रमण के भी दोष समाहित थे. तब पंडे-पुजारियों की महत्ता अचानक से उभर के सम्पूर्ण मंदिरों-मठों में व्याप्त हुई. जहाँ इन्हें प्रधान सेवक के दायित्व थे वहाँ ये स्वामी बन के समाज और धर्म के पैरोकार बन बैठे और प्राचीन ग्रन्थों में लिखे वेदवाक्यों को अपने अनुसार परिभाषा गढ़ के इन्हें नियम की भाँति घोषित कर दिया. शिक्षा का घनीभूत अभाव इन अधकचरे ढांचों पर पक्की मिट्टी चढ़ाता गया और ये पंडे-पुजारी-गुरू-बाबा क्षेत्र/ सम्प्रदाय/ झुंड के मालिक बन बैठे. जिन्हें आज के समय के “बाबा” की संज्ञा दी जा सकती है.
यद्यपि कालांतर में कुरीतियाँ मिटाने के लिये प्रयास तो हुए और कई हद तक सफल भी हुए किन्तु आंखों वाली अंधी भीड़ अपना मार्ग स्वविवेक से कब बदल पाई है?
अशिक्षा ने दुःख और कष्टों को जन्म दिया. तर्कसम्मत व्यवहार न होने के कारण तर्कसम्मत उत्तर नहीं मिल सके जिससे बाधा-व्याधियाँ विस्तार के आकार लेती चली गईं, जिनसे बचाने की शर्त थी तथाकथित बाबाओं के अनुयायी बन जाना और उन्हें सब कुछ समर्पित करके उनकी शरण में जा के मूर्ति पूजा अथवा मानसिक उपासना के स्थान पर उन बाबाओं को पूजना. आते हुए समय ने ये परिपाटियां परम्परा के रूप में परिवार को पीढ़ियों के साथ हस्तांतरित की. और इन बेड़ियों ने और भी मजबूत रूप ले लिया. जिसे उसी रूप में स्वीकार करना था, बिना कोई प्रश्न करे. होते होते ये स्थितियाँ इतनी भयावह होती चली गईं कि उन तथाकथित बाबा/ गुरु/ मठाधीशों को ही धर्म का अघोषित मुखिया मान के उन्हें ईश्वर का स्थान दे दिया गया फिर रहा सहा अधोपतन वामपंथी विचारधारा ने कर दिया.
आवश्यकता है सनातन के मूल में जा के जड़ तक व्यवस्था को समझने की. क्या एकेश्वर की उपासना में कभी मध्यस्थ की भूमिका थी? नहीं थी. क्या रोग-शोक-विलाप इन तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के ठठकर्म क्रियाकलापों से दूर होने थे अथवा पुरुषार्थ से और ज्ञान के प्रयोग से. फिर हम कैसे अंधभक्ति में इन बाबाओं की गहरी काली सुरंगों के भीतर जा के जीवनोपचार खोजने लगे जबकि ये गुत्थियाँ तो स्वयं हमारी ही बनाई थी. इन वर्षों की जकड़ी बेड़ियों से मुक्ति पा के तर्कसम्मत प्रयास कर हमें जीवन के उत्थान की दिशा में बढ़ना होगा. यह हमारा ही कर्तव्य है कि शाश्वत सत्य सनातन धर्म पर विधर्मियों, लालचियों, वामियों ने जो काला कलंक लगाया है उसे ज्ञान के प्रकाश से समाप्त कर दिया जाए.
दीप ज्योतिः नमोस्तुते