“सारे अदब से और सारी पाकीज़गी से, तीन सौ पैंसठ सूरजों से… मैं आधी सदी के सारे सूरज को, आज को, 31 अगस्त को तुम्हारे अस्तित्व को टोस्ट दे रहा हूँ –सदी के आने वाले सूरजों का ”
बीत चुके किसी 31 अगस्त को इमरोज ने ये लिखा था अमृता प्रीतम के जन्मदिन के लिए और कितना सही लिखा. हमेशा से अफसोस रहा है और कहता भी रहा हूँ कि अमृता प्रीतम को काफी देरी से पढ़ा. थोड़ा जल्दी पढ़ लेता तो जरा सी समझ और अच्छी होती, जरा सा और बेहतर इंसान होता और शायद जरा सा इस दोपहर का ताप कुछ अलग होता. दुनिया में बहुत कुछ है पढ़ने को, जानने को, समझने को पर डेस्टिनी तय करती रहती है कि आपको कहाँ अटकना है और कहाँ निकलना है. हम बहुत बार खुद हमारे नहीं होते. शायद हमारे प्रति हमारे से ज्यादा क्रूर और कोई दूसरा नहीं होता.
बहरहाल, साहिर, इमरोज और आपके ताने-बाने पर एक नाटक लिखा था जिसका मंचन सुधेश साब के निर्देशन में हुआ था. पूरी कोशिश रही थी कि ये नाटक आप तीनों पात्रों की जीवनी जैसा ना लगे, बल्कि ये नाटक आप तीनों पात्रों के माध्यम से गहरे प्रेम की अवस्था और इससे उपजी मनोस्थिति को समझने का माध्यम बने.
एक संवाद साझा कर रहा हूँ-
“क्या खुद को रचते रहने में भी मुझे एक पुरुष की आवश्यकता है… क्या तुम.. क्या तुम मेरे लिए केवल एक पुरुष मात्र हो?”
“पुरुष के एक रूप में तो इमरोज भी तुम्हारे साथ है पर सच तो ये है कि साथ रहकर भी जो कुछ तुम्हे इमरोज से मिल रहा है वो साहिर तुम्हें कभी नहीं दे पाता… और दूर रहकर भी जो कुछ तुम्हें साहिर से मिल रहा है, वो इमरोज तुम्हें कभी नहीं दे सकता. पूर्णता कहीं नहीं है अमृता और पूर्णता की ये तलाश ही तुम्हारे और मेरे भीतर की बेचैनी है.”
शायद इसी बैचैनी से साहिर नज्म से बेहतरीन नज्म तक पहुँच गए और आप कविता से बेहतरीन कविता तक. आप दोनों के व्यक्तिगत जीवन की अपूर्णता ने ही शायद रचनाकार के तौर पर दोनों को सम्पूर्ण बनाया.
जन्मदिन मुबारक हो अमृताजी. जहाँ हो, आबाद रहो.