जीव-हत्या और पशु-बलि : क्यों न सोच बदली जाये? भाग-1

आज जब पूरी दुनिया तेजी से मांसाहार त्याग कर शाकाहार की तरफ बढ़ रही है और पशु-हत्या तथा पशु-बलि जैसे क्रूर कृत्यों पर हर मजहब के अंदर सवाल उठ रहे हैं तब ये सवाल उठना लाजिम है कि लगभग 2 अरब अनुयायियों वाले मजहब का इस बारे में क्या कहना है. अक्सर उलेमाओं में किसी जानवर या पक्षी के हलाल और हराम होने को लेकर बहस होती रहती है पर कभी इस बात को लेकर चर्चा नहीं होती कि हर साल बकरीद के अवसर पर और अन्य दूसरे दिन हो रहे पशुओं का वध और कुर्बानी क्या जायज भी है? महज अपना पेट भरने या किसी परंपरा पालन के लिए मासूम पशु-पक्षियों का क़त्ल क्या उचित है?

निरीह प्राणियों का क़त्ल क्या उस रहमान का अपमान नहीं है जिसने हम इंसानों के साथ-साथ इनकी भी रचना की है? कुरान तो सूरह रहमान में कहता है कि इस ज़मीन को उसने सबके लिये बनाया है तो फिर हम क्यों उनको जीने का अधिकार नहीं देते? हम क्या इस घमंड में हैं कि ईश्वर ने उसकी इबादत का हक केवल हमको दिया हुआ है? अगर ऐसा है तो आपने शायद अपने मज़हब को ठीक से पढ़ा ही नहीं. अगर पढ़ा होता तो आपको अपने ग्रन्थ की वो आयतें नज़र आती जो कहतीं हैं:-

“आकाशों और धरती में जो कोई भी है, स्वेच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक उसी को सजदा कर रहा है, और उसके साए भी प्रातः काल और संध्या के समयों में” (सूरह रअद, आयत-15)

“सातों आकाशों और धरती और जो कोई उनके बीच है सब उसकी तस्बीह करते हैं, और कोई चीज़ नहीं जो उसकी प्रशंसा के साथ तस्बीह न करती हो; परन्तु तुम उसकी तस्बीह को समझते नहीं”. (सूरह इसरा, आयत-44)

“और हमारे बन्दे दाऊद को याद कीजिये जो बड़ी कुव्वत (और हिम्मत वाले) थे! वह (खुदा की तरफ) बहुत रुजू होने वाले थे! हमने पहाड़ों को हुक्म कर रखा था कि इनके साथ शाम और सुबह तस्बीह किया करें! और इसी तरह परिंदों को (जो तस्बीह के वक़्त उसके पास) जमा हो जाते थे, सब उनकी (तस्बीह की) वजह से जिक्र में मशगूल रहते! (सूरह साद, आयत: 18-19)

इब्ने-कसीर ने इस आयत की तफ्सीर में लिखा है, परिंदे दाऊद की आवाज़ सुनकर आपके साथ खुदा की पाकी बयान करने लग जाते. उड़ते हुए परिंदे पास से गुजरते और आप तौरात पढ़ते होते तो आपके साथ ही वो भी तिलावत में मशगूल हो जाते और उड़ना छोड़ कर बैठ जाते.

आप कितनी भी परंपरा के पालन के दावे कर लें पर खुदा के यहाँ आपका दर्ज़ा किसी से भी बढ़ कर नहीं है. आप अपनी किताब, अपने नबी और अपनी मजहबी-तालीमात को सामने रखिये तो आपको समझ आयेगा कि खुदा के यहाँ हरेक जीव का मर्तबा उतना ही है जितना हम इंसानों का है. खुदा के रहमत के आगोश में वो सब भी हैं और इसी लिये कुरान ने जब पैगंबर का दर्जा तय किया तो उनके बारे में कहा, “हमने आपको पूरी आलम के लिए रहमत बना कर भेजा है”. इसका अर्थ ये है नबी की रहमत के आगोश में तमाम इंसानों से लेकर जिन्नात, चरिंद, परिन्द और हर मख्लूक शामिल हैं और ये बात आपके किरदार से भी साबित है.

जिस अरब में लोग इंसान के जिंदा रहने के हक को गवारा नहीं करते थे, उस अरब में रसूल साहब ने जानवरों और पशु-पक्षियों के जिंदगी का हक निर्धारित किया और कहा, “जो कोई व्यक्ति बगैर किसी अपराध के किसी गौरैया या उससे बड़े जानवर को मारता है, तो अल्लाह तआला उससे कियामत के दिन इस बारे में उससे सवाल करेगा”. (नसाई शरीफ)

क्या यह बात समझने की नहीं है जो बिल्ली और गौरैया जैसे अदने जीव के (जिससे इंसानों के लिये कोई विशेष फायदा भी नहीं है) जिंदा रहने के अधिकार को लेकर इतने फिक्रमंद थे वो गाय, ऊँट जैसे अन्य दूसरे बहुपयोगी जीवों के कत्ल पर दुःखी नहीं होते होगें?

खुदा ने तमाम चौपायों और दूसरे अन्य परिंदों को हमारी सहायता पहुँचाने के लिए बनाया है तो हमारा भी कर्तव्य है कि हम उसके इस अहसान के बदले उसकी इन कृतियों को तकलीफ न दें, पेट भरने या किसी परंपरा के अनुपालन मात्र के लिए मासूम जीवों का क़त्ल न करें और न ही इन मख्लूकों के साथ कुछ ऐसा करें कि खुदा का प्रकोप हमें झेलना पड़ जाये.

जीव-हत्या और पशु-बलि निंदनीय है, आपका कोई तर्क इसको सही साबित नहीं कर सकता.

इसलिये आज मुस्लिम मानस के सामने ये प्रश्न आकर खड़ा हुआ है कि क्या कुछ परम्पराओं की काल-सापेक्ष व्याख्या नहीं की जानी चाहिए? जिन जीव-जंतुओं को मालिक ने जीने का अधिकार दिया है उससे छीनने वाले हम कौन हैं? कुरान कहता है, हमने इस कायनात में थोड़ी सी भी विसंगति नहीं रहने दी है, तो हमें पशु-बलि से परहेज़ करते हुये इस ईश्वरीय आदेश का अनुपालन नहीं करना चाहिये? खुदा की इबादत करने वाले निरीह प्राणियों का क़त्ल क्या उस मालिक को ख़ुशी देती होगी?

ये प्रकृति इन्सान और हैवान (जानवर) के परस्पर सामंजस्य से चलती है, ये सब के सब जीव-जंतु बाबा आदम के काल से हमारे सहायक रहे हैं तो क्या इस परस्पर सामंजस्य के रिश्ते को तोड़ना अपराध नहीं है?

जहाँ पवित्र वेद मनुष्य, प्रकृति और जीव-जंतुओं के बीच कैसा संबंध हो यह बताते हुए कहता है, “मित्रस्यया चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम! मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि समीक्षे! मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे!!” अर्थात, “सम्पूर्ण जीव-जन्तु मेरी और मित्रता के भाव से देखे, मैं भी उन्हें मित्र दृष्टि से देखूं और हम दोनों एक-दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें!” वहीँ पवित्र कुरान मोमिनों का आवाहन करते हुए कहता है, “न उसके मांस ‘अल्लाह’ को पहुँचते हैं, और न उनके रक्त, परन्तु उसे तुम्हारा तक्वा (धर्मनिष्ठा) पहुँचता है. (सूरह अल-हज, आयत-37)

इन संदेशों को ज़ेहन में रखते हुए अगर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को त्योहार मनाने का एक नया और बेहतर तरीका देते हैं तो मुझे लगता है इससे अधिक ख़ुशी रब को और कोई चीज़ नहीं पहुँचा सकती. बूचड़ और कसाईखाने से आती निरीह जानवरों की चीखें और चिड़ियों की मधुर चहचहाहट में आपको बेहतर का चयन करना पड़ा तो निःसंदेह आप बाद वाले को पसंद करेंगे तो इसे जीवन में भी उतार लीजिये न मीठी ईद सबके लिये हो जायेगी… इन्हीं संदेशों के साथ सभी मुस्लिमों को ईद-उल-अज्हा की बहुत-बहुत शुभकामनायें.

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