रुदाली तो जानते ही होंगे? नहीं तो संक्षेप में बता दें कि अगर किसी परिवार में, गांव में किसी की मृत्यु हो जाए तो पैसे देकर कुछ महिलाओं को बुलाया जाता है रोने के लिए. यह परंपरा राजस्थान में थोड़ा ज्यादा रही है और फिल्म भी बनी है इसी नाम से.
वो तो बेचारी गरीब महिलाएं होती थीं पर रुदाली की असल परंपरा अपने देश में अभिजात्यों के बैठकखानों, लुटियन मीडिया, गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ), जेएनयू टाइप विश्वविद्यालयों और खुद को वाममार्गी कहने वालों स्वयंभुओं में पाई जाती है.
इनका एकमात्र काम है (और उसके एवज में इन्हें काफी लाभ मिलते हैं) कि जब आका संकट में हों तो छाती पीट-पीट कर हाय हुसैन – हाय हुसैन (माने धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद, सहिष्णुता खतरे में है) का आलाप शुरू कर दें.
वैसे इसे ‘ट्रिगर वार्निंग लैंग्वेज’ कहते हैं जिसका अविष्कार वाममार्गियों ने ही किया. इसका लक्ष्य जनता में पैनिक क्रियेट करना होता है. यानी जनता को समझाना कि जागो, हमारे साथ आओ तो बच जाओगे वरना प्रलय होने ही वाली है.
और यदि विरोधी को फंसाना है तो भाषा बदल लें. अब – “संवैधानिक तंत्र ध्वस्त हो गया है, भीड़तंत्र है, सरकार बाबावाद के आगे नतमस्तक है, संघियों का यही तो एजेंडा है, महिलाएं तो इनके लिए बस उपभोग की वस्तु हैं. ऐसे में ये सरकार बलात्कारी बाबाओं के आगे समर्पण की मुद्रा में रहेगी ही. कोई तो बचाओ देश को, सभ्य बनाओ”!
यह रुदाली इनकी ईएमआई है यानी कर्जे की मासिक किस्त. इन उदारचेता वाममार्गियों ने इसे अरबों डालर का बाज़ार बना दिया है. राम रहीम प्रकरण बस कर्ज़ चुकाने का अवसर है. ये नगाड़ाकार 25 अगस्त से ही उन्मत्त हैं. हंसुआ-हथौड़ा बजा कर बता रहे हैं कि ये बाबा और हिंदुत्व देश को कहां ले जा रहे हैं.
पर कामरेड तुम वही हो ना जिसने दुनिया को सिखाया कि इंडस्ट्रियल स्केल पर हत्याएं कैसे की जाएं. पश्चिम बंगाल में तीन दशक तक आपका एकछत्र राज रहा. और उसके बारे में जानने को बहुत कुछ है जो रुदाली ब्रिगेड की दुखती रग है.
तो बताते हैं.
1997 में तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार के गृहमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विधानसभा में माना कि 1977 में वाम मोर्चा सरकार के सत्ता में आने के बाद से बंगाल में 28000 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. यानी रोजाना चार और हर महीने 126. आंकड़े पूरी तरह से गलत और सरकारी थे, पर सहिष्णु कामरेडों का बिफरना स्वाभाविक था.
आलोचना के बाद बुद्धदेव समझदार हो गए. मुख्यमंत्री बने तो गलती सुधारने के लिए 2009 में संशोधित आंकड़े पेश किए. पर मोटा-मोटी इन्हीं आंकड़ों के हवाले से 1977 से 2009 के बीच 31 साल के दौरान राजनीतिक हत्याओं का आंकड़ा 55408 बैठता है. यानी रोजाना पांच और हर महीने 149. और ये आंकड़े सिर्फ हत्याओं के हैं. हां, एक भी हत्यारे को सजा नहीं हुई.
हत्याएं भी ऐसी नहीं कि गोली मार दें. जुनेद या अखलाक जैसी भी नहीं. टिपिकल सर्वहारा स्टाइल में हुईं. ‘शांतिकामियों’ ने 1970 में बंगाल के बर्दवान में कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार सेन बंधुओं की हत्या की. सबक सिखाने के लिए इन दोनों भाईयों के खून से सना चावल उनकी मां को खिलाया. मां हमेशा के लिए दिमागी संतुलन खो बैठी.
इनमें से एक अभियुक्त खोकोन उर्फ निरुपम सेन वाम मोर्चा सरकार में मंत्री रहने के अलावा पोलित ब्यूरो का सदस्य भी रहा. दूसरा फरार आरोपी माणिक राय था. इसने कई बार नाम बदले और आखिर में लोकसभा का चुनाव जीतकर सांसद बना. वो था – अनिल विश्वास.
कहीं और ऐसा हुआ है!
डेमोक्रेटिक स्पेस, डेमोक्रेटिक डिसेंट और वैचारिक सहिष्णुता के आप सबसे मुखर पैरोकार हैं. पर लोकतंत्र का वाम माडल ऐसा है जहां गाय काट रहे कसाईयों का झुंड सत्य-अहिंसा के नारे लगाते हुए शाकाहारियों को दिन-रात अत्याचारी ठहराता है और कहता है – कोई डेमोक्रेटिक स्पेस ही नहीं बचा. बाकी हिंसा, क्रूरता और हत्याओं के बारे में यदि विशेष रुचि है तो यह लिंक देख लें.
Census of Political Murders in West Bengal during CPI-M Rule – 1977-2009