आयु की सब से ऊर्जावान अवस्था याने युवावस्था में सहसा मनुष्य का दिमाग कमर के नीचे खिसक जाता है. इस स्थिति में उस ऊर्जा को channelize करना, दिशा देना आवश्यक है अन्यथा उस ऊर्जा को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने लोग तैयार बैठे होते हैं. ये दो प्रकार के लोग हैं – एक जो केवल आर्थिक लाभ चाहते हैं और दूसरे जो आप के समाज का सांस्कृतिक विनाश करना चाहते हैं. क्योंकि यह सांस्कृतिक विनाश ही चिरस्थायी विनाश होता है.
इस विनाश को अंजाम देने के लिए वे कथ्य (narrative) गढ़ते हैं कि जो पहले जो बंधन पाले जाते थे वे बकवास थे, दक़ियानूसी थे. जिन्हें संस्कार कहा जाता है वे निरी मूर्खता है. इसे साबित करने के लिए वे ऐसी परम्पराएँ ढूंढते हैं जिनकी प्रासंगिकता आज के समय में नहीं दिखती या फिर आधुनिक शिक्षा पाये युवा को वो परंपरा मूर्खता नज़र आती है. एक बार एकाध परंपरा को गलत साबित कर दिया कि ये ‘बकवास’ का लेबल युवा की पूरी संस्कृति पर लगाया जाता है.
वैसे युवावस्था हमेशा विद्रोही होती है और बहुतों के लिए यह देखना कि उनके साथी तो मज़े कर रहे हैं और उनका कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा – कानूनी पचड़े में नहीं आ रहे; फेल होना आदि बातों पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता अगर उसके कारण पढ़ाई न रुके। तो आकर्षण प्रबल होता है और जो भी संस्कार रोक रहे हैं उन्हें जवाब देने के लिए कोई बहाने का सहारा लिया जाता है. इनमें सब से बड़ा बहाना है – ये तो नॉर्मल है.
विचारणीय बात यही है कि आज जो नॉर्मल बतलाया जाता है, क्या वह हमेशा नॉर्मल ही रहा है? अगर नहीं, तो वो कब से नॉर्मल माना जा रहा है, और उसे नॉर्मल माने जाने में क्या-क्या सहायक रहा, उससे किसको क्या फायदा हुआ, किसको क्या नुकसान हुआ?
किसको क्या फायदा हुआ, इसकी लिस्ट लंबी निकलेगी. केवल आर्थिक लाभार्थी भी होंगे जो अपने लाभ के लिए इन विनाशकों के सहयोगी बन जाते हैं. उल्लेखनीय होता है कि विनाशक हमेशा इन आर्थिक लाभार्थियों को आगे कर के लड़ते है, उनके नुकसान की बात करते हैं.
इनके आर्थिक नुकसान और सामाजिक न्याय का डंका पीटने के शोर में समाज की युवा पीढ़ी कैसे बर्बाद हो रही है और समाज का क्या नुकसान हो रहा है, इस पर ध्यान ही नहीं देता कोई.
जिन्हें ये समझ में आता भी है तो उन्हें न समर्थन मिलता है, न अपने बात रखने के लिए सही मंच. उनका भी नुकसान करने के प्रयास किए जाते हैं जो अक्सर सफल भी होते हैं. सो आने वाले लोग राह में गिराया मुर्दा देखकर मानसिक मुर्दा बनकर राह बदल देते हैं या उसे किनारे कर देते हैं.
सब से बड़ी बात है, नैतिकता के नाम पर खुद की आँखों पर पट्टी बांध लेना. अपनी ही समस्या से मुंह फेरना. उससे समस्या बढ़ती है, उसका इलाज नहीं होता. बेकार की लाज, सिर्फ रोग को लाइलाज कर देती है – मुझे एक डॉक्टर मित्र ने कहा था. उससे ना तब असहमत हो पाया न अब.
यौन विकृतियाँ नैसर्गिक होती हैं लेकिन कुछ ही लोगों में होती हैं इसलिए कभी समाज में स्वीकृत नहीं रही. वामपंथियों ने उनसे ग्रस्त लोगों को समाज की मुख्यधारा में स्थापित किया कि इन्हें भी जीने दो. लेकिन इसके साथ-साथ ही धूर्तता से एक कदम आगे बढ़ाकर उनके अपने ‘जोड़ीदारों’ के साथ सार्वजनिक प्रेमालाप को भी ‘नॉर्मल’ बना दिया.
वंशवृद्धि एक ही तरीके से होती है लेकिन फिर भी कोई अपने छोटे बच्चों के सामने नए बच्चे की तैयारी के लिए मेहनत नहीं करते. इस बात को थोड़ा आगे ले जाएँ तो यौन व्यवहार को लेकर युवावस्था में कदम रखने वाले युवक-युवतियों के मन में अनंत जिज्ञासाएँ होती है.
इस समय उसे विकृति को नॉर्मल बताकर इस तरफ खींचने के कई प्रयास होते हैं. और ये अनुभव चस्का लगाने वाला होता है. तरीका सही हो या गलत, मजा आए तो चस्का लग जाये. समलैंगिकता का आकर्षण बढ़ाना, उसके प्रति घृणा को तोड़ना और उसे अपने टोली में जोड़ना, इस काम में कई ड्राक्युला और उनके बनाए हुए प्रेत कार्यरत होते हैं. इसमें हमारे ही युवा जोड़े जाते हैं जिनका इससे जुड़ना हमारी संस्कृति की जड़ें काटते रहता है.
और हम है कि समस्या का संज्ञान लेना भी अनैतिक समझते हैं, उस पर चर्चा करना तो छोड़िए, उस पर चर्चा होने देना भी अनैतिक समझते हैं, धन्य हैं. इतने सारे धर्मांतरण कैसे हुए और वे हमारे पूर्व बंधु ही हमारे शत्रु कैसे बने, समझ में आता है. आज ये वामी ड्राक्युला भी यौन विकृतियों को नॉर्मल बताकर उनका फैलाव कर रहे हैं और हम इस समस्या की चर्चा को ही अनैतिक करार दे रहे हैं. बछड़े का कान पड़े कुएं का पानी अंजाने में पिया तो हो गया धर्म भ्रष्ट!
बस एक बात याद रखिए, आज जो इन विकृतियों की पैरवी कर रहे हैं उनके माँ बाप आप से कम संस्कारी नहीं रहे होंगे. बेकार की लाज, करे रोग को लाइलाज, यह ध्यान रखिए.