सिनेमा के बहाने : Park Chan-Wook, विचार और प्योरीटी वाला दक्षिण कोरियाई सिनेमा

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता की पंक्तियाँ हैं, ‘यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो / तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो?’ मीनिंगफुल सिनेमा के बनने में, जिसमें दर्शक का अपना दिमागी श्रम भी लगे, स्थिति यही है. और ऐसी स्थिति में विचार कहाँ से रचने की ताक़त अर्जित कर पाएगा जब उसे बाज़ार और समाज दोनों से टकराना हो?

नीरज पाण्डेय की फ़िल्म ‘अ वेडनसडे’ में नसीरुद्दीन शाह का किरदार एसीपी बने अनुपम खेर से आम आदमी की बात रखते हुए कहता है, ‘हमें घर चलाना होता है साब’! इसी मानसिकता और पहचान के साथ आदमी सिनेमा देखता है जो सुबह से रात तक घर-गृहस्थी में सना हुआ है. ऐसे में उसके पास कला के माध्यम से सोचने का भी समय नहीं. तब मनोजरंजन का रेडीमेड डोज़ तैयार किया जाता है ताकि पैसा वसूल भी हो सके. सिनेमा का बाज़ार केवल इस एक ही सिद्धान्त पर काम करता है.

यह वाक़ई एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा भी नहीं जा सकता. फिर कला शुद्ध रूप में विचार हो भी नहीं सकती. उस पर मुलम्मा कुछ ऐसा होगा कि वह मनोरंजन के साथ एक ऐसी दवा पिला दे जो कड़वी न लगे. आज के हालात में तो कम से कम यही दिखता है. पर केवल इस चिंता से किसी कलाकार ने कुछ कहना छोड़ दिया तो न केवल उसकी मौलिकता पर प्रश्न चिन्ह है बल्कि वह फिर कला भी नहीं है. विचार की ताक़त से कला न केवल आगे बढ़ती है बल्कि समृद्ध भी होती है. यहीं से कला आगे का सफ़र तय करती है. यही उसकी ख़ासियत भी है कि परंपरा से कुछ ले, तोड़े, कुछ नया बुने और आगे बढ़े.

दुनिया के असंख्य देशों में कई नामी-अनामी व्यक्ति, सर्जक अपने-अपने तरीक़े से अपने कहन को कोई न कोई शक़्ल दे रहे हैं. पूर्वी एशिया में स्थित कोरियाई प्रायद्वीप के दो राजनीतिक धड़ों में से एक दक्षिण कोरिया का भी सिनेमा में अपना एक वजूद है. जापान से स्वतंत्र होने के बाद और दक्षिण कोरिया के रूप में अस्तित्व में आने के बाद सन 1945 से 1965 के लगभग बीस सालों में कोरिया का सिनेमा अपने वजूद को तलाशता हुआ आगे बढ़ा. यही उसके सिनेमा का स्वर्ण काल भी था जब राजनीतिक परिस्थितियों ने अपने तरह का सिनेमा कहने की आज़ादी फ़िल्मकारों को दी. फिर उसके बाद के लगभग तीस साल सेंसरशिप व अन्य कारणों से उदासीन रहे.

नब्बे के दशक में जब दुनिया ने वैश्वीकरण को अपनाना शुरू किया, तब से कोरिया के सिनेमा ने नई कहानियों और तरीक़ों से सिनेमा में अपनी छाप छोड़ना शुरू किया. इसी काल में पाक चान-वुक जैसे सितारा निर्देशक का उदय हुआ. गत 23 अगस्त को अपना तिरेपनवां जन्मदिन मनाने वाले चान-वुक नयी सदी के सिनेमा के महत्त्वपूर्ण निर्देशक हैं. ‘ज्वाइंट सिक्योरिटी एरिया’, ‘थर्स्ट’, ‘स्टोकर’ और वेंजन्स (प्रतिशोध) ट्राईलॉजी की फ़िल्में ‘सिंपथी फॉर मिस्टर वेंजन्स’, ‘ओल्ड बॉय’ और ‘लेडी वेंजन्स’ जैसी अद्भुत फ़िल्मों के लेखक और निर्देशक पाक चान-वुक ने बेचैन मन की कहानियों में हिंसा, प्रतिशोध और डर के बीच अपनी फ़िल्मों का रास्ता तय किया है.

पाक चान-वुक का सिनेमा विचार से आता है. उनका सिनेमा दृश्य का सिनेमा नहीं, दृश्य के भीतर मौजूद उस तत्त्व का सिनेमा है जिसने वह मायाजाल रचा. बड़ी आसानी से सिनेमा का आम दर्शक कहानी में मनोरंजक तत्त्व को खोजने लगता है और उसके न होने पर निराश ही होता है. पर यही वो ख़ासियत है जो एक लेखक, निर्देशक को कहानी कहने के लिए उकसाती भी है. और जिसके बगैर उसमें वो बात नहीं आ पाती. बहरहाल, सिनेमा के आधुनिक समय में निर्देशक का स्वप्न ही वह दिशा होती है जिस ओर बढ़कर कहानी का मूल विचार पकड़ में आता है. वैसे भी कला ने यह अपेक्षा हमेशा से की है कि उसे समझा जाये.

फिर आज के अति आधुनिक समय में जब तकनीक से लेकर शिक्षा और ज्ञान से लेकर विज्ञान तक हमारी पहुँच में सबकुछ है और किसी भी बात की संभावना को नकारा नहीं जा सकता वहाँ सिनेमा की यह अपेक्षा नाजायज़ भी नहीं. पर केवल आंकड़ों के भरोसे नहीं रहा जा सकता और स्पेक्यूलेशन के बाद की सच्चाई भी यही है कि दुनिया की आधी आबादी के पास मूलभूत सुविधाएं भी नहीं फिर ऐसे में कला को प्राथमिकता क्यूँ दी जाये? इन सब टकराहटों, विरोधाभासों, रहन-सहन, जीवन शैली, नैतिकता, सही-गलत, वर्ग, संघर्ष आदि के बीच भी श्रेष्ठि या वर्ग विशेष के लिए बनने वाले आरोपों को झेलते हुए सिनेमा के नए पैरोकार अपने कहन को लेकर गंभीर हैं. चान-वुक उसी श्रेणी के निर्देशक हैं जो इस समय दुनिया के श्रेष्ठ निर्देशकों की जमात का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

पाक चान-वुक की सबसे पहले फ़िल्म जो मैंने देखी थी वो थी ‘ओल्ड बॉय’. पहली फ्रेम से ही यानि की टाइटल रोल होने के समय से ही विशिष्ट क़िस्म की सिनेमैटिक फ़्रेम के साथ क्रेडिट रोल होने के तरीक़े ने ध्यान आकर्षित किया. फिर यह क्रम उनकी आगे पीछे की फ़िल्मों का होता रहा. कोरियन फ़िल्मों की जिस एक चीज़ ने मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित किया है वो है वहाँ की सच्चाई जिसमें एक अलग ही क़िस्म की ‘प्योरिटी’ लगती है. किसी भी तरह की ओढ़ी हुई नैतिकता के परे. यही चान-वुक की फ़िल्मों की ख़ासियत भी है जब उनकी हर फ़िल्म में हिंसा और भय का रूप दिखाई देता है.

कभी-कभी तो यह लगता है कि आखिर ऐसे सिनेमा या कहानियों की ज़रूरत भी क्यों हो? पर यही वह बात है जब चान-वुक जैसे फ़िल्मकार डर को अनुभव करने की बात कह कर अपने सिनेमा के बारे में कहते हैं. उनके अपने शब्दों में, ‘मुझे कभी भी वैसी फ़िल्में पसंद नहीं जिसे देखते समय मैं कोई हरकत न कर रहा होता हूँ. यानि कि मुझे दिमाग और दिल के साथ उस प्रभाव को महसूस करना अच्छा लगता है. साथ ही मैं उस विचार से नहीं जुड़ पाता जो कहता है कि सपने देखो जिन्हें तुम पूरा कर सकते हो या यह कि आपका जीवन आप ही गढ़ सकते हो. मेरे विचार से ज़िंदगी आपके तरीके से नहीं अपने तरीके से चलती है’.

दर्द, तकलीफ़ और डर, सुख और दुख, यही ज़िंदगी है और चान-वुक की फ़िल्में किरदारों के बहाने इसी का अनुभव कराती है. वह ज़िंदगी की उस सच्चाई में यक़ीन रखते हैं जहां केवल अच्छाई से काम नहीं चलता. चान वुक अक्सर रातों में सोते हुए किसी किरदार के लिए बुरी से बुरी परिस्थिति और तकलीफ़ सोचते हैं. इतनी बुरी कि उसके आगे और कोई संभावना न रहे. और इसके बाद उनके चेहरे पर मुस्कान और एक मीठी नींद होती है. बात यही कि आपके इमैजिनेशन में कोई बुराई बढ़ते-बढ़ते चरम पर पहुँचकर ख़त्म हो जाए.

वह यही भावनात्मक और शारीरिक अनुभव अपनी फ़िल्मों के दर्शक को देना चाहते हैं. चान-वुक की यह बेचैनी ही उनके सिनेमा और किरदारों की ताक़त है. मुझे परसनली किसी नाटक या सिनेमा में कहानी से ज़्यादा उसका अनुभव और असर ही जोड़े रखता है. बाक़ी का तामझाम बोगस और अविश्वसनीय लगता है. सिनेमा का वास्तविक-सा हो जाना ही उसकी असल ताक़त है. और पाक चान-वुक जैसे फ़िल्मकार यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि ज़िंदगी केवल वही नहीं जो दिख रही. एक अलग समानान्तर रेखा पर कई विचार, कई ज़िंदगियाँ, कई जटिलताएँ एक साथ चल रही हैं. उन सबका एक साथ असर न हुआ तो फिर कहना बेकार है. समय हो तो आप भी देखिये ये कुछ फ़िल्में.

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