अश्विनी कुमार वर्मा. ऐसा नहीं है कि इस देश में किसी को पता नहीं है कि रेलवे को कैसे सुधारा जा सकता है, रेलवे ही नहीं पूरे देश को कैसे सुधारा जा सकता है, इसका रोड मैप बनाने वाले होनहार विद्वान मौजूद हैं इस देश में, किसी विदेशी का मुँह नहीं देखना। बल्कि 2001 में ही, यानी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, एक विशेषज्ञों की कमिटी बनाई गई. उन्होंने रेलवे को रेगुलेट करने के लिए एक स्वतंत्र रेगुलेटर का सुझाव दिया था, जो रेलवे के टैरिफ़ समय-समय पे तय करती रहेगी और उसके दक्षता के मानक तय करती ताकि रेलवे को राजनीति के हथियार के रूप में प्रयोग किया जाना बंद होता. दूसरे दक्षता पे बल देने से स्वतः ही सेफ़्टी, प्रोफेशनलिस्म, पॉलिसी ड्रिवेन मॉडल को बल मिलता माने अंग्रेज़ी व्यवस्था का इससे ख़ात्मा हो जाता!
अंग्रेज़ी व्यवस्था का मतलब है कि व्यवस्था में अधिकारी के पास ऐसी शक्तियों का होना जो वो अपने विवेक से इस्तेमाल कर सकता है, माने रेलवे में उसे कैसे क्या करना है, इसका फ़्रेम वर्क या पॉलिसी नहीं दी बल्कि उसके विवेक पे निर्भर हो गई. अब यदि उसका विवेक सही काम नहीं किया तो रेलवे भी सही काम नहीं करेगी! विवेकाधिकर से लिए गए उलटे-सीधे फ़ैसले भी प्रायः action taken in good faith माने जाते हैं, माने आपके ख़िलाफ़ कार्यवाही नहीं की जा सकती! वही दूसरी ओर यदि आपको पॉलिसी बना के दे दी जाए कि कैसे काम करना है तो उससे हट के उल्टा-सीधा कुछ करेंगे तो तुरंत पकड़ में आता है, आपके ख़िलाफ़ कार्यवाही आसान हो जाती है।
अब नेता जी, अधिकारियों के इन्ही शक्तियों के भरोसे होकर उनके द्वारा सिस्टम से माल निकलवाते हैं और उन्हें प्रोटेक्शन देते हैं। अधिकारी भी जिन्न की तरह नेता जी की सेवा करता है। यदि ये विवेकाधिककार यानी पावर समाप्त कर दिया गया तो नेता जी का क्या होगा! दूसरे नेता जी को चुनाव भी जीतना है तो महँगाई के साथ-साथ टैरिफ़ भी मत बढ़ने दो, और महँगाई पे नियंत्रण भी मत करो! अर्थात चुनाव में घाटा न हो, भले ही रेलवे ख़त्म हो जाए!
यही कारण था कि न रेलवे में इतने दिनों बढ़ती जनसंख्या व लोड के साथ पटरियाँ बिछाई जा सकी, बल्कि ट्रेन पे ट्रेन बढ़ते गए और उसने पटरियों की कमर तोड़ दी. अधिकांश ट्रेनें लेट होने लगीं, पटरियों में टूटफूट बढ़ गई, दूसरे कोई सुरक्षा के इंतजाम भी नहीं किए गए ताकि टूटी-फूटी पटरियों के चलते दुर्घटना से सुरक्षा हो!
आप सोचिए कि 2001 की रिपोर्ट को यदि उस समय लागू किया गया होता तो आज रेलवे कहाँ होता, कम से कम टूटी-फूटी पटरियों के चलते दुर्घटना होने का क्रम जो चल पड़ा है वो आज क़तई न होता! It takes time! एक-दो-तीन साल का काम नहीं है! इतने दिनों में नई पटरियाँ बनी होती, सेफ़्टी व प्रोटेक्शन सिस्टम लगे होते, ट्रेने भी लेट न होती! लेकिन अफ़सोस अटल सरकार थोड़े दिनों की मेहमान थी! सरकार बदलने के बाद विशेषज्ञों के द्वारा सुझाए बिंदु कूड़ेखाने में गये, रेलवे में लागू न हो सके, रेलवे राजनीति का हथियार बना रहा।
एक्सिडेंट हो रहे हैं, उसका दुःख होना चाहिए लेकिन ज़रा हम भी तो देखें कि हमने क्या किया था उस वक़्त! किस बुद्धि विवेक से वोट किया था! अटल जी इतने ख़राब थे क्या! और मनमोहन जी आपको जंच गए थे? पुराने पापों के ही फल हैं ये! क्योंकि पटरियाँ दो-तीन साल में नहीं बनती! जब इतने कुकर्म किए हैं तो धैर्य भी रखिए!
बल्कि इस सरकार ने आने के तुरंत बाद मालगाड़ियों के लिए अलग ट्रैक बनाने का काम शुरू किया जिसे फ़्रेट कॉरिडोर कहा जाता है, जिससे यात्री गाड़ियों के पटरियों पे दबाव काम होगा! दूसरे पटरियों का जाल बिछाने का काम जितनी तेज़ी से अभी हुआ, पिछले 70 सालों में भी नहीं हुआ!
ट्रेनों का लेट होना कोई साल-दो साल में सुलझने वाली समस्या नहीं है, ये पटरियों के जाल बिछते-बिछते बिछेगा, जिसके लिए पहले ही 6-8 वर्ष का समय निर्धारित है! और सबसे बड़ा काम जो सरकार ने आते ही किया, वो 2001 वाली विशेषज्ञ रिपोर्ट को वर्तमान विशेषज्ञों द्वारा 2014 में और भी ज़्यादा मॉडिफ़ाई व व्यापक करके उसे लागू करने की दिशा में आगे बढ़ी.
इन्ही के सुझाव पर अभी अप्रैल 2017 में रेलवे डेवलपमेंट अथॉरिटी का निर्माण किया गया है जो रेलवे को राजनीति से मुक्ति दिलाएगा और दक्षता आधारित, पॉलिसी ड्रिवेन मॉडल बना के रेलवे में अंग्रेज़ी व्यवस्था का समूल नाश करेगा! रेलवे एक प्रोफ़ेशनल संस्था बनेगी, वैसे ही जैसे दिल्ली मेट्रो! ऑपरेशन, मेंटेनेन्स, सुरक्षा के लिहाज़ से विश्वव्यापी मानक रेलवे में लागू किए जाएँगे! टैरिफ़ तय करने में राजनीति नहीं होगी!
यदि सरकार ने ये सब न किया होता तो हम इन्हें दोष देते, लेकिन सरकार कोई छोटे-मोटे नहीं बल्कि बहुत ही व्यापक सुधार के ही दिशा में आगे बढ़ रही है, जिसका परिणाम हमें एकदम से नहीं दिखेगा जिसकी उम्मीद हम अपनी मूर्खतापूर्ण सोच के वजह से अक्सर करते हैं और ठगे जाते हैं!
सुरेश प्रभु सर्वश्रेष्ठ रेल मिनिस्टर हैं, ऐसा मिनिस्टर खोना रेलवे का दुर्भाग्य है! वैसे भी मूर्खों के भाग्य में अच्छी चीज़ें नहीं होतीं! कहने का मतलब बीज बोया गया है तो फ़सल उगने का इंतजार भी कीजिए, इतने दिन भूख सही है तो थोड़े दिन और सही!