भारत में बिजली (1897 से 2003 )
फ्लौरी एंड कम्पनी ने कलकत्ता में सन 1879 में बिजली का प्रदर्शन किया. भारत में व्यावसायिक रूप से बिजली में 1897 में आई जब इंग्लैंड की किलबर्न एंड कम्पनी ने कलकत्ता में बिजली सप्लाई हेतु इंडियनइलेक्ट्रिक कम्पनी बनायी. बाद में इसका नाम बदल कर कलकत्ता इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कारपोरेशन (CESU) रख दिया गया. जिसका मुख्यालय लन्दन में था.
यह आश्चर्यजनक है कि आजादी के बाद 23 बरस लगे तब जा कर 1970 में इसका मुख्यालय लन्दन से कलकत्ता स्थानांतरित किया जा सका. मुंबई में Bombay Electric Supply & Tramways Company (BEST) ने 1882 में बिजली सप्लाई का काम शुरू किया. धीरे धीरे हर बड़े शहर में बिजली सप्लाई होने लगी. उन दिनों हर बड़े शहर में पॉवर हाउस होते थे जो डीजल या कोयले से चलते थे. उस वक़्त बिजली एक विलासिता पूर्ण महँगी सेवा थी, जिसका उपयोग अंग्रेज, राजा-महाराजा या बड़े व्यवसायी ही करते थे. आम जनता से बिजली बहुत दूर थी.
देश में पहला जल विद्युत पॉवर हाउस 1897 में बर्दवान के महाराजा सर बिजोय चंद महताब बहादुर द्वारा दार्जिलिंग में लगाया गया. 1899 में कलकत्ता इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कारपोरेशन ने इमामबाग में देश का पहला ताप विद्युत केंद्र लगाया. पहली स्ट्रीट लाइट बंगलौर में 1905 में लगी, जो एशिया की पहली सड़क – बत्ती थी. पहली बिजली की ट्रेन 1925 में मुंबई वी टी और कुर्ला के बीच चली.
अब देश में बिजली के नियमन और नियंत्रण के लिए अंग्रेज सरकार ने 1910 में कानून बनाया जिसे भारतीय विद्युत अधिनियम -1910 कहा जाता है.
यह पुराना कानून 2003 तक देश में चलता रहा. आज़ादी के बाद सरकार ने इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एक्ट 1948 बनाया. यह कानून एक जन-बिजली कानून था. इसमें केवल राज्य सरकार को ही बोर्ड के द्वारा बिजली उत्पादन, संचारण व वितरण करने का अधिकार था. इस कानून के परिपालन में सभी राज्यों के अलग अलग शहरों की बिजली कम्पनियों का एकीकरण व सरकारीकरण कर राज्य बिजली बोर्ड की स्थापना की गयी.
बोर्ड एक स्वायत्त विभाग होता है जिसमें राजनेताओं और नौकरशाहों की दखलंदाजी नहीं होती. बोर्ड के चेयरमैन एवं सदस्य वही बनते हैं जो बिजली क्षेत्र के सबसे जादा अनुभवी लोग एवं वरिष्ठ विशेषज्ञ होते हैं. इस तरह बिजली बोर्डों द्वारा सभी प्रदेशों में बिजली व्यवस्था संभाल ली गयी और सुचारू रूप से चलने लगी. सप्लाई एक्ट के अनुसार बिजली बोर्ड 3% से अधिक प्रॉफिट नहीं ले सकते थे. बिजली बोर्ड अपने बिजली बेचने की दर स्वयं निर्धारित करते. 1985 तक वक़्त बिजली का रेट बहुत कम था, लगभग 10 पैसे से 50 पैसे प्रति यूनिट. तब भी बिजली बोर्ड प्रॉफिट में रहते. सरकार को धनराशी प्रदान करते. बिजली उत्पादन में प्रचुरता थी और कहीं भी बिजली कटौती नहीं. सस्ते दामों में बिजली 24 घंटे मिलती थी.
संविधान में बिजली को समवर्ती सूची में रखा गया है. अर्थात केंद्र और राज्य दोनों बिजली का उत्पादन वितरण एवं ट्रांसमिशन कर सकते हैं. 1975 में NTPC, NHPC और बाद में पॉवर ग्रिड आदि केंद्र सरकार के उपक्रम बने. जिन्होंने बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
बिजली बोर्ड के राजनीतिकरण की शुरुआत मध्य प्रदेश में 1985 से हुई. मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के शासन काल में बिजली बोर्ड में सरकारी दखलअन्दाजी बढ़ी, अयोग्य लोगों को घूस ले कर बोर्ड का सदस्य बनाया जाने लगा. बिजली विभाग को नेता चुनाव जीतने के हथकंडे के रूप में देखने लगे. प्रदेश के हरिजन आदिवासियों को फ्री बिजली देने का चुनावी नारा लगा कर कांग्रेस सरकार पुनः सत्ता में आ गयी. शासन के चुनावी वादे के अनुसार बिना मीटर एकल बत्ती कनेक्शन बांटे गए. जिसमें कुपात्रों को भी कनेक्शन मिले और फ्री बिजली का पूरे प्रदेश में दुरूपयोग होने लगा. यहीं से बिजली विभाग का घाटा शुरू हुआ.
अब बिजली बोर्ड राजनेताओं और नौकरशाहों का गुलाम बन कर रह गया था, जिसे न तो कोई नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार था और न ही बिना सरकारी अनुमोदन के कोई राशी खर्च करने का. सभी वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार बोर्ड से हटाकर सचिवालय को सौंप दिए गए. बिजली उत्पादन बढ़ाने के लिए फंड की कमी हुई और बिजली कटौती चालू हो गयी.
दिग्विजय सिंह के मुख्य मंत्रीत्व काल 1998-2003 में कांग्रेस सरकार ने किसानों को बिन मीटर फ्री बिजली दे कर बिजली बोर्ड का घाटा चौगुना बढ़ा दिया. बिजली उत्पादन तो जरा भी बढ़ाया नहीं, बिजली की आवश्यकता दुगनी से अधिक बढ़ गयी. दिन में 12 से 20 घंटों की बिजली कटौती होने लगी. बिजली बोर्ड का घाटा हज़ार करोड़ से ऊपर पहुँच गया. बिजली का रेट और बढ़ा और ही साथ बिजली की चोरी भी बढ़ने लगी. इस तरह प्रदेश का कभी प्रोफिट केंद्र कहा जाने वाला बिजली बोर्ड पतन के गर्त में समा गया.
अन्य राज्यों के राजनेताओं ने भी मध्यप्रदेश की तरह अपने राज्य के बिजली बोर्ड को चुनाव जीतने और वोट प्राप्त करने का साधन बना लिया. पंजाब जैसे संपन्न राज्य में भी किसानों को फ्री बिजली दी जाने लगी. फिर तो सभी प्रदेशों में यही होने लगा. हरिजन, आदिवासी, किसान, गरीबी रेखा के लोग, ग्राम्य उद्योग, कुटीर उद्योग, शासकीय कार्यालय व संस्थान, संवैधानिक पद तथा मंत्रियों के बंगले आदि को फ्री बिजली कर राजनेताओं ने सभी राज्यों के बिजली बोर्ड का घाटा इतना बढ़ा दिया कि यह अब कभी न ख़त्म होने वाली नासूर बन गया है.
मार्च 2015 के अंत तक देश की सभी बिजली वितरण कंपनियों का घाटा 3.8 लाख करोड़ रूपये था और इन पर कर्ज 4.3 लाख करोड़ रुपये था.
नब्बे के दशक में भारत में भूमंडलीकरण, खुली अर्थव्यवस्था और तथाकथित आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ, तब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे. अब पश्चिमी देशों की नज़र में भारत एक विकासशील देश की बजाय एक बहुत बड़ा बाज़ार बन गया. भारत के बिजली बाज़ार पर विदेशी कंपनियों की गिद्ध द्रष्टि पड़ी और भारत की बिजली व्यवस्था पर कब्ज़ा करने के लिए देशी –विदेशी प्राइवेट कंपनियां जोर लगाने लगी. उनके लिए बिजली एक आवश्यक जन सेवा नहीं बल्कि लाभ कमाने का साधन है. लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा थी – भारतीय विद्युत अधिनियम -1910 व इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एक्ट 1948. ये क़ानून बिजली के निजीकरण को अनुमति नहीं देते थे. निजी कंपनियों की लॉबिंग, उनकी नेताओं और नौकरशाहों से नजदीकियों के चलते तत्कालीन सरकार ने तथाकथित बिजली सुधार के नाम पर भारतीय विद्युत अधिनियम 1910 व इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एक्ट 1948 को निरस्त करते हुए नया कानून लागू किया जिसे – विद्युत अधिनियम 2003 कहा जाता है.
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