कल मैंने सरदार जी वाली एक घटना लिखी थी. कोहराम मच गया. बहुत से अति-मनोविज्ञान-वादी, मानवतावादी बहुतेरे प्रश्न करने लगे. वे मुझे हिंसावादी, कठोर बोलने लगे जो बच्चो को पीटना चाहता है. कुछ ने गालियां भी लिखी. फिलहाल यहां विषय को समझना आवश्यक है.
यहां बात जबरदस्ती अपने बच्चे की पिटाई की नहीं हो रही है. न ही मैं घरेलू हिंसा का समर्थक हूँ. यहां बात इतनी सी है कि अपने बच्चे को सुधारने, उसके भविष्य को बनाने, उसके चरित्र विकसित करने, उसके अंदर व्यवहार डेवलप करने का अधिकार केवल गार्जियन का है. उसकी सोच में जिम्मेदारियां लाने का काम मां-बाप का है, संरक्षक का है, या जिससे उसके निजी दायित्व पूरे करने है उसका है.
[कभी यूं भी करिए, सुनहरे भविष्य के लिए]
पुलिस या अन्य कोई व्यवस्था, बाहरी व्यवस्था जो उस बच्चे से कोरिलेटेड नहीं है, उससे व्यक्तिगत तौर पर संबंधित नहीं है, कानून के नाम पर संरक्षण का अधिकार समाप्त कर देगी. किसी बात या गलती के लिए अपने बच्चे को डांटना, उसको दिशा देना, उसको जीवन में भविष्य के सपनों के लिए तैयार करना, अपने बुढ़ापे के लिए तैयार करना निजता है, बाहरियो की दखल, पुलिस की दखल इसे खराब कर देगी.
इसमें व्यवस्था, यानी सरकारी व्यवस्था, कानूनी व्यवस्था, न्यायिक व्यवस्था, तीनों बहुत खतरनाक स्टेज पर ले जाकर खड़ा कर देंगे. फिर डांटना, पीटना, मारना, टेंशन लेना, आसान है क्या? बच्चे पर पूरा ध्यान देना होता है, चिंता करनी पड़ती है, उसके लिए जिम्मेदार होना पड़ता है, ज़हमत-झंझट उठानी पड़ती है. टेंशन लेना पड़ता है. उतनी देर भयानक तनाव में रहना होता है. अपने मनसुखवा के लिए हम यह नहीं करते. कौन जाए उतनी घनीभूत मानसिकता में रहने! इसलिए हम यह कहने लगते हैं कि यह हिंसा है.
जब बेटा हमारा है, बच्चा हमारा है तो सुधारना भी हमें ही है. कोई दूसरा न सुधारेगा. कोई अन्य न ठीक करेगा. बाहरी कोई नहीं सुधारेगा. बाहरी तो बिगाड़ने में लगा रहता है. बेटा तो बेटा है यह तो चल जाएगा बेटियों के साथ बड़ा खतरा है. अब जब हमारे जीवन में, समाज में और व्यवस्था में पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति, पश्चिमी सोच, पश्चिमी विचारधारा, पश्चिमी जीवन शैली घर कर गई है. बच्चियों के साथ तो और खतरनाक हो गया है. वह लड़कियों को बिल्कुल सुधरने का मौका ना देगा.
अगर आप थोड़ा भी चूक गए तो समाज बिगाड़ कर रख देगा. कहते हैं न, बिगड़ना ठीक लेकिन बहकना ठीक नहीं. बच्चियों को समाज बहका ले जाता है. बल्कि सोच के नाते अपनी बेटी या नजदीकी को छोड़कर दूसरों को बहकाने में ही लगा रहता है. रोज आसपास देखिये, अखबारों में देखिये, टीवी में देखिये उसे उपभोक्ता बना कर रख दिया है. अब वह ‘कन्या भोज’ के दिन ही कन्या कही जाती है.
यह सब टीवी-फिल्मो, मीडिया, वर्तमान साहित्य की देन है. बची-खुची कसर शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था ने खराब कर दी है. लड़कियों के मामले में, पुत्रियों के मामले में, बेटियों के मामले में और सावधानी की ज़रूरत है. उसे बिल्कुल ही उपभोक्ता बनने से बचने की प्रवृत्ति, संस्कार देना होगा. वह भी कड़ाई से. उस पर पूरा ध्यान देना होगा.
अगर हम ने बच्चियों पर ध्यान नहीं दिया, उनको समझने की, सोचने की, संस्कृति की, व्यवहार की और जीवन की ऊंचाइयों की, तमाम ऊंची नैतिकता की शिक्षा नहीं दी तो निश्चित ही मानिये पूरा समाज बेटियों को बिगाड़ने में लगा है. बाहरी बिल्कुल ठीक नहीं है.
पुलिसिंग और बाह्य समाज इस मामले में बिल्कुल आप के बच्चों को लूटी संपदा की तरह बर्बाद करता है. इसलिए हर दम सचेत रहिए. मारना पड़े, साथ काम करना पड़े, ध्यान देना पड़े, समझाना पड़े, व्यवहारना पड़े, दुलार कर, पुचकार कर, समझा कर, बहला-फुसला कर, डांट-डपट कर, धमका कर, पिटाई… जो भी करना पड़े करो पर रास्ते पर लाओ.
बच्चों को जब तक वह 20 साल के नहीं हो जाते, बालिग नहीं हो जाते, अपनी समझ नहीं हो जाती तब तक उन पर कड़ी नजर के साथ, कठोरता के साथ जीवन की सोच, दिशा, चरित्र दीजिये. अगर जीवन की सोच, दिशा, प्रवृत्ति, समझ सही नहीं है तो बाद में भुगतना आपको ही पड़ेगा. इसे कोई समाज और पुलिस न भुगतेगा बल्कि अलग से मजे लेगा. निश्चित ही इसे व्यक्तिगत रुप से आपको भुगतना पड़ेगा.
जब व्यक्तिगत रूप से हमें भुगतना है तो फिर समाज पर, व्यवस्था पर, कानून पर, न्याय पर कैसे छोड़ दें? मेरा मानना है कि अपने बच्चो को दिशा देना निजता का अधिकार है, यह व्यक्तिगत अधिकार है, यह पारिवारिक अधिकार है, मौलिक अधिकार है और व्यक्तिगत जीवन शैली में कानून को, पुलिस को दखलअंदाजी का अधिकार नहीं होना चाहिए.
पिटाई का संस्कार कभी समाप्त नहीं होता, बल्कि कई जन्मों तक चलता है. संभवत: इसीलिए एक उम्र में बच्चे को उसकी गलतियों, आदतों को सुधारने के लिए पीटा जाता था. उसे थोड़ा डराया जाता था. उसकी गलतियों को सुधारने के लिए दिमाग में एक डर का बोध दिया जाता था. आज भी आपने देखा होगा सर्कसों में सांप, बंदर, बिल्लियां, शेर और अन्य बहुत सारे जंतुओं को डंडे के सहारे छड़ी के सहारे नचाते हुए. अब मैं यह नहीं कहता कि अपना बच्चा जानवर जैसा हो… पर डरना जरूरी है.
ऐसा ही मानव मन भी होता है उसको एक समय में बोध-संस्कार कराने के लिए कुछ डराने वाले प्रयोग करने ही होते हैं. मैं यह नहीं कह रहा केवल पीटो, या फ्रस्ट्रेशन निकालो पर जिम्मेदारियां इससे भी बढ़ती मानो. विश्वास करिये वह एक सामीप्य, एक प्रकार के अपनेपन से भर देता है.
यह पश्चिमी देशों में नहीं है. वे अपने मम्मी-पापा से उनके घर मिलने जाते हैं बुढ़ापे में. उसके कांसेप्ट में ही नहीं है, मम्मी-पापा को साथ ही रखना है, वह संस्कार ही नहीं दिए गए. मम्मी-पापा अति-मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के दौरान परिवार प्रबोधन देना भूल गए थे. वह पुलिस के सहारे बैठे रह गये.
अभी दो केस भारत में भी खूब उछल रहे हैं. कोई मुम्बई की महिला है जिसका बेटा मरने के एक साल बाद आया और कोई सिंघानिया है जिसे बेटे ने निकाल दिया. बचपन मे जम कर परिवार प्रबोध मिला होता तो यह स्थिति कभी न आती. मैंने हजारों ऐसे अनुभव अपनी आंखों से देखे हैं ‘बचपन का कूटा गया बेटा’ बूढ़े बाप को लेकर गरीबी में भी अस्पताल के चक्कर काटता है. कई बार तो रोते हुए कंधे पर लादे. पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी भी मेडिकल कॉलेज में यह दृश्य दिख जाएगा. आम सीन है यह.
जैसा यूरोप में, अमेरिका में और पश्चिमी कल्चर में, अरेबियन, सेमेटिक कल्चर में भी दिख रहा है कि बहुत सारे बूढ़े-बुजुर्ग 60 साल के बाद एकदम डिप्रेस्ड हो जाते हैं. वहां अधिकतर बुजुर्ग वृद्ध आश्रम में परेशान पड़े हैं. सरकार उनको देख रही है लेकिन अवसाद की स्थिति में 50 से 70 परसेंट बुजुर्ग वहां है.
हम नहीं चाहते हैं ऐसी स्थितियां हमारे यहां आएं. अपने बच्चों को दिशा देने का काम हमारा खुद का अधिकार है. मैं यहां केवल उसी अधिकार की बात कर रहा हूँ. अपनी आज की ‘कम्फर्ट-जोन मानसिकता’ के चलते आज छड़ी को अवॉइड करेंगे तो बुढापे में मौत के लिए अकेले बड़े से मकान में सड़ेंगे, गांव लौटेंगे या फिर वृद्धाश्रम में अवसाद का इलाज कराएंगे. एक व्यक्तिगत बात – मैं खुद भी बच्चों को हाथ लगाना उचित नहीं समझता.