इंस्टेंट तलाक, बदलाव और इस्लाम

हम हमेशा सुनते आए हैं मुसलमानों से कि इस्लाम परफेक्ट है और सदा के लिए है, उसमें कोई बदलाव की गुंजाइश नहीं क्योंकि ज़रूरत ही नहीं. लेकिन मज़े की बात यह होती है कि अगर हम उनके आधुनिक संसाधनों को अपनाने की बात करें तो कहा जाएगा कि हम कुर’आन की बात कर रहे हैं. उसमें कोई बदलाव संभव नहीं.

चलिये, इस मुद्दे पर इस आलेख के अंत में बात करेंगे. यहाँ बात करेंगे तलाक की. आज यह मुद्दा बहुत गरम और चटपटा है, बरसात की शाम के पकोड़ों से भी ज्यादा. तो शायद ये आलेख आप को चटपटा नहीं लगेगा, बता देना फर्ज है.

उच्चतम न्यायालय ने जो फैसला दिया है उसके तहत “तलाक उल बिद’अत” को असंवैधानिक करार दिया गया है. यह इंस्टेंट वाला तलाक है, जिसको काफिर मज़ाकिया ढंग में “तड़ाक तड़ाक तड़ाक” कहा करते हैं. बाकी सही तरीके वाले तलाक के बारे में कुछ नहीं कहा है. आइये इसके बारे में बात करते हैं.

तलाक तीन बार कहना होता है. सही तरीका है कि हर कथन के बीच एक माहवारी का अंतर हो ताकि महिला गर्भवती है या नहीं यह जांच लिया जाये. इस समय दरम्यान मियां बीवी में संबंध नहीं होने चाहिए. नहीं तो तलाक कैन्सल. इस्लाम की इच्छा भी यही है कि संबंध हो जाये और जिंदगी फिर से नॉर्मल हो जाये. इस अंतराल दरम्यान सुलह के लिए और लोगों को भी patch up की कोशिश करते रहने की नसीहत है. उसके बाद भी अगर सहवास न हुआ, और patch up न हुआ तो तीन महवारियों के बाद तलाक माना जाएगा और बाद की कार्रवाई होगी.

यहाँ भी काफी सहृदयता है लेकिन वह सब व्यक्ति के परिस्थिति और नीयत सापेक्ष है. सब से ज्यादा अहमियत नीयत की है. आर्थिक परिस्थिति की बात करें तो बुरे हालात में मियां बीवी को एक दूसरे का साथ देना चाहिए, तलाक की बात ही न हो. लेकिन नीयत का कुछ नहीं कह सकते और इस मामले में अगर मर्द कमीनेपन पर उतर आए तो उसका इलाज मुसलमान समाज ही कर सकता है, इस्लाम नहीं. समाज अक्सर नहीं करता इसलिए तलाक के मारे खवातीनों की दर्दनाक दास्तानें बन जाती हैं.

लेकिन इतना तो ईमानदारी से कहना होगा कि अगर इस्लाम की कागज़ी अच्छाइयों का कड़ाई से पालन किया जाये और समाज भी न्यायप्रिय हो तो यह तलाक अहसान की व्यवस्था अपने आप में बहुत अच्छी है. आज के डायवोर्स के बनिस्बत बहुत अच्छी है, लंबी खींचातान नहीं.

अगर खबातीन इस्लाम की रोशनी में समाधान चाहती हैं तो इसमें समाधान की पूरी गुंजाइश भी है. बस, subject to इस्लाम की कागज़ी अच्छाइयां तथा मियां और उसके घरवालों की शराफत. वही नहीं होता और ज़मीनी सच्चाईयों के कारण यह मामला केवल मुसलमान समाज का नहीं बल्कि देश के लिए सामाजिक न्याय का मामला बन गया है.

इसका एक कारण यह भी है कि अगर औरत को उम्र के ऐसे पड़ाव में तलाक दिया जाये जब उसके बच्चों को पारिवारिक स्थिरता की जरूरत है तो वो बात बहुत खराब होती है. कच्ची उम्र में वो भी impressionable age में teenage बच्चे का पारिवारिक स्थिरता डांवाडोल हो तो उसके आगे चलके समाज में एक जिम्मेदार नागरिक बनने की संभावनाएं कम कम होती जाती हैं.

वैसे भी मुसलमान समाज में क्रिमिनल्स को हिकारत से नहीं देखा जाता. अक्सर एक डॉक्टर से ज्यादा एक ‘भाई’ को इज्ज़त मिल जाती है क्योंकि उसके कारण मोहल्ले वालों की बाकी बड़े एरिया में धाक होती है. ऐसे परिस्थिति में यह समूचे समाज का मामला बन ही जाता है, केवल मुसलमान समाज के लिए घर के अंदर निपटाने की बात नहीं रहती.

अब न्यायालय ने इंस्टंट तलाक (तलाक ए बिद’अत) को असंवैधानिक ठहराया है. यहाँ एक ही समय तीन बार तलाक कह कर तलाक माना जाता है. यह प्रथा इस्लाम के दूसरे शतक में उमय्यद खलीफाओं के राज में आई है ऐसी मान्यता है. कहा जाता है कि ह. मुहम्मद को ऐसी कोई व्यवस्था मंजूर नहीं थी जहां सुलह और रिश्ता फिर से पूर्ववत होने की गुंजाइश न हो. हो सकता है, उनके भी बेटे नहीं बचे, बची बेटियाँ ही और अपने बेटियों से वे बहुत प्यार भी करते थे. बेटी के बाप का दिल उनका भी हुआ होगा ही.

अब यहाँ पर ही हम एक विरोधाभास देखते हैं. आज की तारीख में कई मुसलमान मौलवी, मौलाना आदि कहते देखे जाते हैं कि इस्लाम में तलाक ये है, वो है और तलाक की अच्छाइयाँ गिनवाते हैं. मैंने भी कुछ बताई हैं. इंस्टंट तलाक को गालियां भी देते हैं लेकिन कोई मजलिस कर के उसे खारिज करने की किसी ने पहल नहीं की. वैसे इंस्टंट तलाक का इस्लामी नाम है तलाक ए / उल बिद’अत. यहाँ बिद’अत क्या है यह समझना बहुत महत्व की बात है.

बिद’अत मतलब कुरान – हदीस – शरीया के अलावा अपनी ही सोच लड़ाना. जिसको वामी ‘संशोधनवाद’ या ‘revisionism’ कहते हैं, उसे इस्लाम में बिद’अत कहा जाता है. ऐसे व्यक्ति को बिद’अती कहा जाता है और यह कड़ी निंदा होती है. फिरकाबाजी में एक-दूसरे पर ये आरोप लगाया जाता है, एक दूसरे को काफिर, बिद’अती आदि कहकर गालियां दी जाती है और मज़हब खराब करने का दूषण देकर लड़ाइयाँ भी होती है लेकिन वे लड़ाइयाँ पर फिर कभी. यहाँ आप अबतक समझ गए ही होंगे कि बिद’अत कितना घृणित, तिरस्कृत शब्द है एक मुसलमान के लिए.

लेकिन यही तलाक उल बिद’अत को कायम रखने के लिए इनके मजहब के ठेकेदार, नेता और आम भेड़ सभी इतना ऊधम मचा रहे थे? एक बिद’अत को कायम रखना मुसलमान का मौलिक अधिकार बता रहे थे? एक बिद’अत को खत्म करने की पहल को इस्लाम में दखलअंदाजी बताकर खूनखराबे की धमकियाँ दे रहे थे – एक बिद’अत को बचाने के लिए? कमाल है!

लानत ज़रूर भेजता, लेकिन ये उनका मामला है, वे ही भेजें. मेरी ओर से चाहे तो कुछ किलो जोड़ लें.

हाँ, कुर’आन में बदलाव न होने की बात थी तो इसपर इतना ही कहूँगा कि कुर’आन जब से खलीफा उस्मान ने compile करवाई है तब से उसमें कोई बदलाव नहीं आया है. उसके पहले अलग-अलग versions थे जिनमें मतभेद थे. इस कुर’आन में जितनी आयतें हैं उससे ज्यादा थी, उनको एडिट किया गया या जगह नहीं मिली ऐसी मान्यता है. तो जो पढ़ा जा रहा है वो भी मानव नियंत्रित और मानव रचित है.

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