आज तीन तलाक़ पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का आदेश आया. आदेश आने के बाद दो खेमों में मिठाईयां बंटनी शुरू हो गई है. एक खेमा है मुस्लिम महिलाओं के एक वर्ग का और दूसरा खेमा है कि अति-उत्साही राष्ट्रवादी (?) हिन्दुओं का. एक तीसरा खेमा भी है जो दिखाने के लिये तो मिठाई खा रहा है पर अंदर ही अंदर उनकी साँसे फूली हुई हैं कि जो कुछ हुआ वो मन-मुताबिक़ नहीं था. खैर, अभी विषय ये नहीं है, विषय ये है कि इस फैसले से मुस्लिम महिलाओं को मिला क्या?
फैसले में केवल और केवल एक बात है कि इकट्ठे दी गई तीन तलाक़ (यहाँ तीन तलाक़ माने ‘एक साथ एक ही वक़्त’ में दी गई तीन तलाक़) को असंवैधानिक घोषित किया गया था. मैं बाकी समस्याओं की बात नहीं करता, मेरा प्रश्न इतना ही है कि क्या ये तलाक़ के मसले का समाधान है?
बिलकुल नहीं है, क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तलाक़ की केवल उस विधि को बंद किया है जिसे मुस्लिम समाज के अंदर ही पूर्ण स्वीकार्यता कभी हासिल नहीं रही और जिसके ऊपर मुस्लिम मानस स्वयं ही चौदह सौ सालों से जद्दोजहद करता आ रहा है. ये फैसला सर-दर्द के तात्कालिक निदान की डिस्प्रिन गोली से अधिक कुछ भी नहीं है.
मैं ऐसा क्यों कह रहा है इसके लिये आवश्यक है कि इस्लाम के अंदर तीन तलाक या तलाक़ से जुड़े मसले को ठीक से समझा जाये. तलाक़ के मसले के अंदर कई तरह की शर्तें और उप-शर्तें हैं जिसका पता आम-जनमानस को है ही नहीं.
इस फैसले के आने के बावजूद ये गंभीर और सोचनीय मसला है कि :
1. इसके बाद भी मुस्लिम महिलायें ‘तलाक़’ नहीं दे सकती हैं, क्योंकि तलाक़ लफ्ज़ का अर्थ ही है कि पति द्वारा पत्नी को निकाह से अलग किया जाना, इसका उल्टा यानि पत्नी द्वारा अगर पति को निकाह से अलग किया जाता है तो इसे तलाक़ नहीं कहा जायेगा. यानि आज के फैसले के बावजूद बाकी धर्मों की तरह मुस्लिम महिलाओं को तलाक़ देने का अधिकार नहीं मिला है.
2. कुराने-करीम में तलाक़ का जिक्र सूरह बकरह की आयत नंबर 228 से 242 में, सूरह निसा की 35 वीं आयत में तथा सूरह अत-तलाक़ में हुआ है. ये तमाम आयतें मर्दों द्वारा औरतों को तलाक़ देने की बात करती है. एक भी आयत औरतों द्वारा मर्दों को तलाक़ देने के अधिकार के सन्दर्भ में नहीं है. इसका अर्थ ये है कि कुराने-करीम औरतों को निकाह-विच्छेद का आदेश नहीं देता.
3. मुस्लिम महिलाओं को केवल एक साथ-एक वक़्त में दी गई तीन तलाक़ से मुक्ति मिली है, बाकी इस्लाम के अंदर तलाक़ को लेकर जो प्रावधान थे वो आज भी यथावत हैं और आगे भी रहने वाले हैं.
इस्लाम में बहुसंख्यक विद्वानों के मतानुसार निकाह-विच्छेद के पांच जरिये हैं :
1. अगर पति और पत्नी दोनों इस बात पर सहमत हैं कि वो साथ नहीं रह सकते तो निकाह-विच्छेद आराम से हो जाएगा.
2. अगर निकाह-विच्छेद में पत्नी की सहमति नहीं है तो भी उसके पति को पूरा अख्तियार है कि वो उसे तलाक़ दे दे. इस स्थिति में निकाह के दौरान तय मेहर की रकम पति को चुकानी पड़ती है.
3. अगर पति अपनी पत्नी को मारता-पीटता है, उसे उसके हको-हुकूक नहीं देता तब उस स्थिति में पत्नी, काज़ी के पास जाकर निकाह खत्म करने की अर्जी दे सकती है, इस्लामिक शब्दावली में इसे ‘निकाहे-फस्क’ कहते हैं पर शायद ही कोई महिला काज़ी के पास ऐसी अर्जी देने की हिम्मत करती है और शायद ही काज़ी उसके हक में फैसला सुनाता है.
4. अगर पत्नी चाहे तो वो पति को कह सकती है आप मुझे इस निकाह से अलग कर दीजिये, इसे ‘खुला’ कहा जाता है और इस स्थिति में पत्नी को अपनी मेहर छोड़नी पड़ती है. मगर यहाँ भी ‘खुला’ देना पूर्णतया पति की मर्जी पर है, अगर वो चाहे तो खुला दे और न चाहे तो न दे.
5. इस्लाम के अंदर विवाह-संबंध एक समझौता होता है इसलिये अगर महिला ने निकाह के वक़्त अपने निकाह-नामे में पूरे साक्ष्य के साथ यह शर्त डाली है कि उसे भी निकाह-विच्छेद करने का हक़ होगा तो केवल उस स्थिति में ही वो निकाह अपनी रज़ा (मर्जी) से तोड़ सकती है.
अब सोचने वाली बात ये है कि जब तक ‘हीर-रांझा’ वाला प्यार न हो तब तक कौन मर्द अपने निकाह के वक़्त अपने होने वाली बीबी को ये अधिकार देने पर राजी होगा कि उसे भी निकाह-विच्छेद करने का हक़ होगा?
और मसला इतना ही नहीं है, इस कठिन और लगभग नामुमकिन शर्त के अंदर कई उप-शर्तें भी हैं, मसलन बीबी ने भले निकाह-नामे में ऐसी कोई शर्त डाली हो तो भी वो हरेक वजह के लिये निकाह-विच्छेद करने का हक़ नहीं रखेगी.
यानि इस्लाम के अंदर पति द्वारा पत्नी को तलाक़ देने के लिये किसी ख़ास वजह की ज़रूरत नहीं है, पर पत्नी ने अगर निकाह-नामे के जरिये यह हक हासिल किया भी है तो भी उसे कई उप-शर्तों का अनुपालन करना होगा.
प्रश्न और भी हैं, मसलन :
– तलाक़ के बाद क्या मुस्लिम-महिलाएं गुजारा भत्ता पाने की हकदार हो गईं हैं? जवाब है – नहीं
– क्या हलाला प्रक्रिया इससे खत्म हो गई? जवाब है – बिलकुल भी नहीं क्योंकि अगर कोई तलाक़ के दौरान पूरी प्रक्रिया का अनुपालन करता है तो वहां अभी भी हलाला की गुंजाइश है.
अभी तो खैर तलाक़ का मसला ही अंशतः भी नहीं सुलझा. आगे तो बहुविवाह, बालविवाह और लौंडियों की अवधारणा भी एक बड़ा मसला है जिसपर किसी तरह की कोई चर्चा भी नहीं है.
मुस्लिम महिलाओं के लिये तो फिर भी कुछ ख़ुशी के अवसर हैं पर मेरे लिये ये समझना बड़ा कठिन है कि अति-उत्साही राष्ट्रवादी (?) हिन्दू किसलिये खुशी के शादयाने बजाने में लगे हुये हैं?
ज़ाकिर नायक, जावेद अहमद गामदी और दूसरे मुस्लिम विद्वानों के नज़रिये से देखिये तो वास्तव में आज का फैसला ‘हकीकी-इस्लाम’ की जीत है जिसने तलाक़ के गैर-कुरानी तरीके को खत्म किया. समझ का फेर है… मगर अपने लोग कब ऐसी बातों को समझें हैं जो आज समझेंगे.