अध्ययन न हो तो सिर्फ स्कॉलरशिप बढ़ाने से नहीं हो सकता उच्च गुणवत्तापूर्ण वैज्ञानिक शोध

file photo : IISc Bangalore campus

भारत सरकार ने आईआईटी तथा भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc बेंगलुरु) के पीएचडी छात्रों को 70,000 रूपए प्रतिमाह शोधवृत्ति प्रदान करने की घोषणा की है. प्रश्न है कि वैज्ञानिक शोध के लिए इतना सारा धन आईआईटी वालों को क्यों दिया जाये? क्या मात्र धन देने से शोध में गुणवत्ता आ जायेगी? बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान आरंभ से ही उच्च गुणवत्ता वाला एक शोधपरक संस्थान रहा है किंतु आईआईटी के छात्र 70,000 रूपए प्रतिमाह लेकर देश और समाज को क्या दे पायेंगे यह विचारणीय है. कुछ वर्ष पूर्व हुए एक सर्वे का यह निष्कर्ष था कि आईआईटी में पीएचडी कर रहे छात्रों में से मात्र 60% ही अपने शोधकार्य, संस्थान, और भविष्य के प्रति संतुष्ट थे.

हमारे बचपन में एक मित्र था जिसने जेईई में निचली रैंक आने पर आईएसएम धनबाद में इंटीग्रेटेड एमएससी पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था, वह भी इसलिए क्योंकि उसे इंटीग्रेटेड एमएससी कोर्स में 5000 रूपए प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलनी थी. मौलिक विज्ञान (basic science: phy, chem, math, bio) में छात्रों की रुचि बढ़ाने के लिए विभिन्न संस्थानों में पञ्च वर्षीय इंटीग्रेटेड एमएससी कोर्स प्रारंभ किया गया था और उसमें स्कॉलरशिप भी मिलती थी. किंतु हमारे मित्र ने 5 वर्ष मजे से बिताये फिर किसी कम्पनी में लग गया और कुछ वर्षों के उपरांत विदेश चला गया. इसी तरह विगत डेढ़ दशक में सैकड़ों छात्रों ने आईआईटी से इंटीग्रेटेड एमएससी पीएचडी की और कहीं टीचर बन गए या विदेश चले गए.

इस देश में उच्च गुणवत्ता वाला शोध गिने-चुने संस्थानों में ही होता है. इनमें प्रमुख हैं: टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (TIFR), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), परमाणु ऊर्जा विभाग के अधीन होमी भाभा राष्ट्रीय संस्थान (HBNI) के 11 संस्थान, शोध के लिए ही बनाये गए कुछ IISER, इसरो, बायोटेक्नोलॉजी विभाग द्वारा अनुदान प्राप्त कुछ संस्थान, भारतीय सांख्यिकी संस्थान (ISI), चेन्नई मैथमेटिकल इंस्टीट्यूट, CSIR की कुछ प्रयोगशालाएं इत्यादि. इन संस्थानों में डिग्रियाँ नहीं बाँटी जातीं. यहाँ उन्हीं को प्रवेश मिलता है जिनके पेट में कुछ नया करने की आग जलती है, अंग्रेजी में जिसे fire in the belly कहा जाता है.

आईआईटी में गुणवत्तापूर्ण शोध न होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि यहाँ प्रवेश पाने वाले बच्चे कक्षा 9,10,11,12 में अध्ययन (study) नहीं करते बल्कि तैयारी (preparation) मात्र करते हैं. अगली बार आप जब भी किसी बच्चे से अंग्रेजी झाड़ने के उद्देश्य से पूछें कि In which class do you study? तो ध्यान रखियेगा कि आज के युग में कोई भी बच्चा study नहीं करता. शोध की पहली सीढ़ी अध्ययन होता है अर्थात् विषय के सिर से पूँछ तक सब कुछ भली प्रकार पढ़ कर समझ लेना. भारतीय बच्चों में यह प्रवृत्ति मर रही है.

कक्षा 9 से आरंभ हुई उनकी तैयारी आईआईटी में प्रवेश पाने तक सीमित होती है. बीटेक में प्रवेश पाने की लालसा में सारी ऊर्जा खपा देने के बाद बच्चा यही सोचता है कि अब तो आईआईटी मिल चुका है अब मुझे कुछ नहीं करना बस तीसरे वर्ष में पैकेज मिल जाये तो जीवन रंगीन हो जाये. इस मानसिकता से ग्रसित बच्चे जब आईआईटी में जाएंगे तो विज्ञान प्रौद्योगिकी में शोध क्या ख़ाक करेंगे? आईआईटी में गत चार वर्षों की तुलना में इस वर्ष सर्वाधिक सीटें खाली हैं.

मात्र धन अनुदान देने से उच्च गुणवत्तापूर्ण वैज्ञानिक शोध नहीं हो सकता. यह तो वैसा ही होगा जैसे किसी को करोड़ों रुपये दिए जाएँ और कहा जाये कि भई तुम गोस्वामी तुलसीदास के टक्कर की दूसरी रामचरितमानस लिख कर दिखाओ! समाचार है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय नवीन शिक्षा नीति के प्रारूप के लिए विश्व के दसियों देशों के एजुकेशन मॉडल का अध्ययन कर रहा है. इन्हें इस पर भी शोध करने की आवश्यकता है कि अमरीका इस्राएल आदि देशों ने वैज्ञानिक शोध का वातावरण किस प्रकार निर्मित किया है. उनके यहाँ बन्द लेबोरेटरी में शोध नहीं होता बल्कि वे अपने शोध का प्रसार करते हैं. पॉपुलर साइंस की स्तरीय पुस्तकें, पत्रिकाएँ इत्यादि सामूहिक विमर्श के वाहक हैं.

भारत में स्थिति यह है कि कुछ महीने पहले भारतीय विज्ञान संस्थान के एक प्रोफेसर साहब ने कई ट्वीट किये और कहा कि हमारा काम तो मात्र रिसर्च पेपर लिखना है, समझने का काम तो जनता का है. उनकी बातों का सार यही था कि वैज्ञानिक शोध को सरल भाषा में आम नागरिकों तक पहुँचाने का दायित्व वैज्ञानिक समुदाय का नहीं है. उनके ट्वीट पर अमरीका में न्यूरो साइंस पर शोध कर रही श्रुति मुरलीधर ने द वायर में एक उत्कृष्ट लेख लिखा. मैं कुछ लाइन उद्धृत करना चाहता हूँ:

“Doing science has not been and never should be ‘just another job’. Scientists are among the few and fortunate that work on the very limits of human knowledge. It is our duty and privilege to create new knowledge and push existing boundaries, along with the best and brightest minds in the world. And therefore, communicating science to the public is, in fact, the best chance scientists have to inspire young minds and motivate the people to know more about their world.”

इस दृष्टि से भारत में ‘science communication’ की अपार सम्भावनाएं हैं. प्रो० जयंत नार्लीकर कहते हैं कि बिग बैंग थ्योरी इतनी प्रसिद्ध इसलिए हुई क्योंकि उसकी मार्केटिंग जबरदस्त तरीके से की गयी. आईआईटी के छात्रों को ढेर सारी फेलोशिप देने की अपेक्षा यदि उन संस्थानों को धन दिया जाये जो वास्तव में गुणवत्तापूर्ण शोध करते हैं तो भारत के वैज्ञानिक समुदाय को अधिक संबल मिलेगा. इसके अतिरिक्त science communication/ popularization पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है. विज्ञान से जुड़े समाचारों पर जन संवाद आवश्यक है. यदि किसी वैज्ञानिक का सरल भाषा में लिखा हुआ लेख गाँव के एक बच्चे को प्रोत्साहित कर सकता है तो वह स्वतः शोध के लिए प्रेरित होगा, वैज्ञानिक बनने का सपना पालेगा और भविष्य में कुछ कर दिखायेगा.

(यह मेरे अनुभव जनित व्यक्तिगत विचार हैं. विज्ञान आधारित विमर्श पर यह मेरा अंतिम लेख नहीं है. बहुत सारे पक्ष हैं जिन पर लिखा है, आगे भी लिखूंगा. अतः यह सोच कर कमेंट न करें कि मैंने आईआईटी की बुराई करने के लिए लिखा है. धन्यवाद.)

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