कहीं पढ़ा जहाँ power यानी शक्ति है वो सनातन है. ये अर्धसत्य है. ये जागतिक सत्य है कि कोई भी पॉवर की चलती है. ये दुनिया का रूप है. आपकी दुनिया का एक मेकेनिकल सत्य. कहावत सुनी होगी सभी ने – जिसकी लाठी उसकी भैंस (इस कहावत के स्रोत में जाने का मर्म और उद्देश्य भी नहीं है !!)
शक्ति तो जड़ चेतन सबमें है. आस्तिक हो, नास्तिक हो, विज्ञानी हो, परा विज्ञानी हो सबको पता है. बिना शक्ति के कुछ नहीं. आइंस्टाइन बाबा भी दे गए सिद्धांत तो समझना मुश्किल नहीं है कि पोटेंशियल शक्ति एनर्जी क्या है और काइनेटिक क्या है. ये भी समझना मुश्किल नहीं कि शोधन के बाद उस शक्ति का प्राकट्य कितना हो सकता है. जितना महीन उतना प्राकट्य.
कोई फिलोसोफी नहीं है, आपकी अपनी दुनिया है. एक पानी को पोटेंशियल रूप में बाँध कर उसके बहाव को “नियंत्रित” करके आप टर्बाइन घुमा कर बिजली पैदा कर सकते हैं! इसमें शक क्या कि बाँध के पानी (पोटेंशियल एनर्जी) को कन्वर्ट किया जा सकता है (काइनेटिक एनर्जी में) टरबाइन्स के द्वारा और बिजली की सहायता से कई लौकिक कार्य संपन्न हो सकते हैं. ये तो एक बात हुई.
मेरी पोस्ट का शीर्षक सनातन है. सनातन हुया तो धर्म शब्द भी साथ कौंध जाता है.
इसको अलग से लिखना सर्वथा उचित लगता है कि भारतीय परिभाषा के अनुसार और अन्य भाषाओं में “धर्म शब्द” का जितना बलात्कार हुआ है उसका प्रायश्चित तो पूरे देश को करना होगा. अभी नहीं तो बाद में. पर करना होगा. ठोक के जो धर्म शब्द का प्रयोग उलूल जुलूल करते हैं या मान्यता में रिलिजियन मजहब आदि शब्दों का सिनोनिम बन चुका है वो सर्वथा अनुपयुक्त है और नहीं असली भारत के गुणों को उभारने वाला है. धर्म शब्द का परिचय ही Attitude से है. एक स्वीकार्यता, संशोधन की उपलब्धता, विवेक का होना, सहनशीलता, प्रेम का होना, और उसके ऊपर मन वचन कर्म से एक होना. जहाँ ये नहीं वो पाखण्ड है वो धर्म नहीं है.
रिलिजियन/मजहब/सम्प्रदाय आदि सिनोनिम हो सकते हैं पर धर्म शब्द तो टोटल अनुचित है. जितना बंटाधार इस शब्द से मायाजाल रचकर नेतृत्व ने किया है उसकी भरपाई आने वाले समय में बहुत धीर गंभीर विमर्श के रूप में उभरेगी.
बिना धर्म के कोई भी अपराधी ही है. अधार्मिक (भारतीय परिभाषा अनुसार) कोई भी व्यक्ति जो धर्म पर नहीं है वो पक्का अपराधी है. इसमें संदेह नहीं. और मैं कोई नई बात नहीं बता रहा. आप लोग स्वयं अपने विवेक से सहज खोज सकते हैं कि धर्म के लक्षण आखिर होते क्या हैं और क्या एक मानव होने को इसका कितनी आवश्यकता है. तब समझ आएगा कि धर्मच्युत नहीं, धर्मप्राण होने से कोई मानव बनता है.
ये तो एक प्रसंग हुआ जो सनातन का हिस्सा है. सनातन, धर्म के बिना कुछ नहीं. सनातन के आदर्श इस धर्म के फल हैं जिन्हें प्रेम, करुणा, सहनशीलता आदि गुणों के रूप में अति गहन दृष्टि से देखा जा सकता है. पर सावधान. इसी एक सामुदायिक मनोवैज्ञानिक स्थिति में एक संदेह सा उत्पन्न भी होता है. वो क्या है?
भारतीय उच्च सर्वग्राही दर्शन का आधार सृजनात्मक रहा है. निःसंदेह धर्म सबको ग्रहण करने और स्वतंत्रता की संभावना भी देता है.
प्रश्न है -“इस उच्चादर्श” की रक्षा के कितने प्रयत्न हैं? किसने समझा है “धर्मो रक्षति रक्षितः”? आप धर्म की रक्षा करो धर्म आपकी रक्षा करेगा. कैसे करेगा? कोई सुपरमैन हवा में उड़कर आएगा और रक्षा करेगा? यहीं धर्म द्वारा फलित एक कन्संट्रेटेड फॉर्म समुदाय रूप में कालान्तर में मात खा जाता है. रक्षा किसी भी आदर्श की अनिवार्य रूप से एक शर्त है. ये नहीं हुआ. जितना स्थिति को देख कर कहा जा सकता है.
आप सहनशील हैं. भईये उस सहनशीलता का वातावरण आप उस आदर्श की रक्षा करके ही हो सकते हो. एक तरफ फिलोसोफी की गहराई है तो दूसरी तरफ उस परिवेश को संवर्धित करने के अलावा उसकी रक्षा कर पाना अनिवार्य शर्त है. वरना विरोधी इम्पल्स आपको ख़त्म कर सकती है.
आप प्रेम में विश्वास करते हैं? बड़ी अच्छी बात है. करना भी चाहिए. उससे बड़ी बात है – आपको उस परिवेश की “रक्षा” करनी होती है जहाँ प्रेम पनप सके. वरना एक दिन आप अकेले बांसुरी बजा रहे होंगे. हैडफ़ोन न हो तो गोली बम के धमाके अच्छे नहीं लगते. तात्पर्य ये है कि आदर्श की अगर रक्षा में तत्पर आप अभी नहीं हैं , तो आने वाली अपनी नस्लों को एक भयावह भविष्य हाथ में देकर जा रहे हैं.
आपका विकल्प अपना है. किसी को कोई मतलब भी नहीं. पर इतना सोचना अनिवार्य रूप से सहज है कि आपके पड़पोते/पोती को आप सुरक्षित भविष्य और आदर्श देकर जा रहे हैं या नहीं. और आपने उसके लिए क्या किया है. आदर्श वीरता से धारण किये जाते हैं. किसी लल्लो चप्पो के बस का नहीं होता. समानता का व्यवहार इसका प्रमुख सनातन गुण है. जो समझा वो सुखी.