कौन आयेगा सामने इसे रोकने के लिये?

आतंकवाद एक वैश्विक समस्या बन चुका है. भौगोलिक दृष्टि से विभिन्न महाद्वीपों में बसे देशों में इसके पाये जाने के अलग-अलग कारण भले ही गिनायें जायें, लेकिन अंतत: यह मुस्लिम चरमपंथ के कारण ही फलफूल रहा है. वैसे तो दशकों से चली आ रही इस समस्या के अनेक रुप इस विश्व ने देखे हैं. लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में यह यह अपने परंपरागत तरीके से अलग हटकर भी लोगों के सामने आता रहा है. मसलन थियेटर में एकाएक किसी चरमपंथी द्वारा स्वचलित हथियारों से गोलीबारी, तो भीड़ भरी सड़कों पर तेज रफ्तार गाड़ी को लोगों के उपर चढ़ा देना. इसके साथ ही भीड़ वाले स्थानों पर एकाएक किसी व्यक्ति द्वारा चाकूबाजी जैसी घटनाएं भी अब विश्व के सामने आ चुकी हैं.

ऐसे में सड़क पर चलते समय भी लोगों के मन में भय व्याप्त होने लगता है कि क्या पता सामने से आ रही गाड़ी में कोई चरमपंथी बैठा हो और वह एकाएक लोगों की ओर उसे मोड़ दे, या साथ चल रहा व्यक्ति पता नहीं कब बंदूक या चाकू निकालकर लोगों का कत्ल करना शुरू कर दे? शायद इनका मकसद भी यही है कि येन केन प्रकारेण लोगों के मन में भय का माहौल बनाया जाए और उसकी आड़ में अपने उद्देश्यों की पूर्ति के रास्ते तलाशे जायें.

लेकिन इन सबका एक दूसरा पहलू यह भी है कि इस प्रकार की घटनाएं आम मुसलमानों को समाज से दूर करने की कारक बनती जा रही हैं. एक सामान्य गैरमुस्लिम व्यक्ति शायद भले ही अपने आप को सेक्यूलरिज्म का ब्रांड एंबेसडर ही क्यों न मानता हो, लेकिन निजी जीवन में वह किसी मुस्लिम पहचान वाले व्यक्ति के साथ अपने को सहज नहीं महसूस करता. भले ही इस तथ्य को छुपाने के लिये अपनी भाव भंगिमा को सहज दिखाये लेकिन सच्चाई यही रहती है कि उसका मन मस्तिष्क उस समय सर्वाधिक असहज रहता है. उसी असहजता को छुपाने के लिये वह सब कुछ जानते हुये भी सार्वजनिक मंचों से चिल्लाता है कि आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता.

इन सारी परिस्थितियों का खामियाज़ा उन आम मुसलमानों को उठाना पड़ रहा है जो वास्तव में मुसलमान हैं, और आतंकवाद या चरमपंथ से विरोध रखते हैं. निश्चित तौर पर ऐसे लोगों की संख्या सर्वाधिक है, लेकिन मुट्ठी भर चरमपंथियों ने इनकी पहचान को मिटा दिया है. यही कारण है कि अमेरिका सहित कुछ पश्चिमी देश इनके मजहबी प्रतीकों या पहचानों को शक की नजरों से देखने लगे हैं. हवाईअड्डों पर इन प्रतीकों या उपनामों के कारण विशेष जांच तक के प्रावधान बना दिये गये हैं.

अमेरिका के किसी हवाईअड्डे पर गिनती के चरमपंथी उतरते होंगे, लेकिन विशेष जांच से उन तमाम मुसलमानों को शर्मिंदा होना पड़ता है जो वास्तव में चरमपंथी नहीं होते. कुल मिलाकर कहा जाय तो वैश्विक रूप से फैले इस आतंकवाद ने समूचे विश्व में मुसलमानों को इस कदर अलग कर दिया है कि केवल उपनाम या पहनावे से लोग इन्हें शक की निगाहों से देखने लगे हैं. ऐसे में किसी गैर मुस्लिम से पहले उस मुसलमान को इसके बारे में सोचना होगा जो चरमपंथ को अपना आदर्श नहीं मानता.

लेकिन आश्चर्यजनक रुप से मुसलमानों का समूचा धड़ा इस संबंध में खामोश पड़ा है. आमतौर पर हर छोटी-बड़ी बात पर फतवे बांटने वाले लोग भी इस मुद्दे पर कुछ बोलने से कतराते हैं. विश्व के किसी कोने में हुई आतंकी घटना के बाद जब सब लोग उसकी निंदा कर रहे होते हैं तो समूचा मुस्लिम जगत उस मसले पर चुप्पी साध लेता है. बहुत हुआ तो कुछ लोग उन्हें भटके हुये लोग बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं. आखिर यह स्थिति क्यों?

आतंकवाद से पीड़ित लोगों की बात की जाए तो एक अच्छी खासी संख्या मुसलमानों की भी सामने आ जाती है. फिर भी इसके विरोध में मुखर न होना इसे बढ़ावा देना ही समझा जायेगा. मतलब अगर आप किसी समस्या के विरोधी नहीं हैं तो निश्चित तोर पर उसके पक्षकार हैं.

ऐसे में लाख टके का सवाल है कि ऐसे समय में सबसे पहले किसे आगे आना चाहिये? अगर कोई मेरा नाम लेकर किसी को फोन पर गाली भी दे तो पता चलते ही मैं खेद प्रकट करने के साथ उस व्यक्ति का विरोध करूंगा जिसने ऐसा किया. फिर आपके उपनाम और पैगंबर का सहारा लेकर कोई लोगों की जान ले रहा है आप खामोश बैठे हैं?

मुसलमानों को खामोशी तोड़कर आगे आना होगा, विरोध करना होगा, फतवे देने होंगे, लोगों को जागरूक करना होगा. नहीं तो आज अमेरिका हवाईअड्डों पर कपड़े उतरवा रहा है, कल विश्व का हर देश आपके कपड़े उतरवायेगा और शर्मिंदा होकर भी आपको नंगे होकर जांच करवानी पड़ेगी.

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