अपने घर में ही उपेक्षित महाकवि आरसी

19 अगस्त , 1911 ईस्वी को एरौत (रोसड़ा) में जन्मे महाकवि आरसी प्रसाद सिंह जी का आज जन्मदिवस है. शत शत नमन.

मुझे इस के लिए बहुत गर्व है कि मेरे नानाजी कविवर से अक्सर भेंट किया करते थे. लेकिन यह कवि घृणित जातिवाद के कारण जनसामान्य में उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए जितने कि अपेक्षाकृत कम प्रतिभावन कवि भी इनसे अधिक लोकप्रिय हो गए. मेरा बचपन रोसड़ा में ही बीता परन्तु न तो इनके जन्मदिवस पर इनकी चर्चाएं होती थी और न ही मृत्यु-दिवस पर इन्हें श्रधांजलि देकर याद किया जाता था. हमेशा उपेक्षित रहे यह रोसड़ा के लाल !

क्या आज कोई भी व्यक्ति अपने हृदय पर हाथ रखकर गवाही दे कि रोसड़ा का एक भी शिक्षण संस्थान महाकवि आरसी प्रसाद सिंह को जन्मदिवस और गमन दिवस पर भूले बिसरे भी याद करता हो.

महाकवि अपने ही घर में, अपनी ही भूमि पर उपेक्षित रह गए. उनकी एक कविता “जीवन का झरना” बचपन से ही मुझे बहुत प्रेरित करती है ..

#जीवन_का_झरना

यह जीवन क्या है ? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है.
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है.

कब फूटा गिरि के अंतर से ? किस अंचल से उतरा नीचे ?
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे ?

निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है !
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है.

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता.

लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है.
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है.

निर्झर कहता है, बढ़े चलो ! देखो मत पीछे मुड़ कर !
यौवन कहता है, बढ़े चलो ! सोचो मत होगा क्या चल कर ?

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

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