80 के दशक में जब मैं इस गुलिस्तान के तमाम उल्लुओ में से एक था तब मेरे पिताजी ने धीरे-धीरे मुझे कुछ समझाया जिसको पूरी तरह समझने और स्वीकार करने में करीब 10 साल लग गये थे.
70 के दशक में सब लोगों की तरह गांधी मेरे भी आदर्श पुरुष थे, महात्मा थे. उनका जीवन में संघर्ष और अहिंसा का अपने जीवन में उतारना, मुझे विस्मित करता रहता था. उनकी छाया का मेरे जीवन में यह असर हुआ कि 80 के दशक का खालिस्तान मूवमेंट, 86 में राजीव गांधी द्वारा लोकसभा में सर्वोच्च न्यायलय के शाहबानो के केस पर दिये गये निर्णय का उलटना और 90 में राममंदिर मुद्दे ने, मेरे अंदर एक रिक्तता पैदा कर दी थी.
मुझे पहली बार गांधी, उनकी अहिंसा और उसके उत्तराधिकारी होने का दम भरने वाले तमाम व्यक्ति और राजनैतिक दल, खोखले नज़र आने लगे थे. उस वक्त, मेरे लिए लिये इस अहिंसा और गांधीवाद दोनों पर ही प्रश्न चिह्न लग गया था. मेरे इस वैचारिक दिवालियापन को देखते हुये मेरे पिता जी ने मुझे समझाना शुरू किया और उन्होंने मेरे दिमाग को पहली चीज, यह स्वीकार कराया कि इस धरती पर प्रकृति के नियम ही शाश्वत नियम है.
उन्होंने बताया कि किसी भी विज्ञान या दर्शन की सार्वभौमिकता, प्रकृति के नियमों की कसौटी पर ही कसी जाती है. प्रकृति के नियमों की अवेहलना करके, जो मापदंड या विचारधारा महामंडित की जाती है, वो सार्थकता की भूल भुलैया में कुछ काल तक तो विचरण कर लेती है लेकिन अस्तित्व उसी का ही बचता है, जो प्रकृति के नियमों को समझते हुये, बदलता है या उस से ही समझौता कर लेता है.
प्रकृति और देवी-देवता एक दूसरे के ही पूरक है. जो प्रकृति में है, वहीं सनातन हिन्दू दर्शन में स्वीकार किये गये भगवान, देव और देवी है. हमें प्रकृति यह सिखाती है कि सृजन बिना विघटन के नहीं होता है. प्रकृति यह सिखाती है कि जो समय काल में जड़ हो गया या बदली हुयी ऋतु के अनकूल नहीं हुआ, वह अस्तित्वहीन हो जाता है.
यह एक साधारण सी बात है लेकिन मनुष्य का यूटोपिया या रामराज्य की परिकल्पना उसको यह समझने नहीं देता है. यह नदी के रुख को मोड़ने वाली बात जैसी है, जो कुछ काल तक तो मोड़ ली जाती है लेकिन एक दिन प्रकृति अपनी शक्ति दिखाती है और वह अपनी धारा बदल कर सब उजाड़ देती है.
अहिंसा आप्राकृतिक है. अहिंसा केवल और केवल, शांति काल में ही आपको, आपके अस्तित्व में रहने देती है. जब भी काल परिवर्तन लेता है और वातावरण आपके अस्तित्व को चुनौती देती है, तब हिंसा ही अस्तित्व की रक्षक होती है.
यहा एक बात ध्यान जरूर में रखिये कि जिन को हमने अवतार माना है, हमने भगवान, देव या देवी माना है, वे सब दुष्टों के दमन के लिए ही अवतरित हुये थे. उनका धरती पर अवतरण ही तभी हुआ था या उन्हें भगवान माना ही तब गया था, जब भारतवर्ष के भूखंड में रहने वालों के अस्तित्व की रक्षा के लिए, वे वध व संहार करके विजित हुये थे.
यहां यह विचारणीय है कि किसी भी अवतार ने अहिंसा को अपना अंतिम अस्त्र नहीं बनाया है और उनका उदय ही तब हुआ था जब अहिंसा हार चुकी थी. आप लोग मंदिर जाते हैं, घर में तमाम देव देवियों की पूजा करते हैं, जरा उनको गौर से देखिये, ये सब हमारे ग्रंथों की परिकल्पना के बिम्ब है. आप पायेंगे कि सभी कोई न कोई अस्त्र, हाथ में लिये हुये हैं.
क्या ये बहुत कुछ नहीं कहता है? क्या ये नहीं बताता है कि अस्तित्व की अंतिम छाँव अस्त्र है?
मेरे पिता जी ने जो आखिरी ज्ञान मुझे दिया था वह यह कि अहिंसा और उससे उपजे बौद्धिक अहंकार ने बहुतों को समेट कर अस्तित्वहीन कर दिया है. इस सृष्टि ने, प्रकृति के शाश्वत नियमों की अवेहलना करने पर, कई नस्लों, धर्मो, पंथों और दर्शन को भिन्न भिन्न कालों में अस्तित्वहीन कर दिया है. हम हिन्दू भी उसी पथ की ओर अग्रसर होंगे, यदि आज हम फिर बौद्धिक मूढ़ता में, अहिंसा को ही अंतिम अस्त्र बनाए रखेंगे.
आज के काल में ‘सत्यमेव जयते’ को बिना ‘शस्त्रमेव जयते’ का पूरक बनाये, वह अपने अस्तित्व में सदैव नहीं रह सकती है. यह, शस्त्र को ही अंतिम अस्त्र बनाने की भी स्वीकारोक्ति है. ‘सत्यमेव जयते’ का रक्षास्तोत्र है ‘शस्त्रमेव जयते’.