नौ नंबरियों के बारे में कहा जाता है कि ये सबसे शक्तिशाली नम्बर होता है. नौ नम्बर में जो भी नंबर जोड़ो उसका जोड़, जोड़ा गया नंबर ही होगा.
अर्थात यदि आप नौ में 1 जोड़ो तो 9+1=10 यानी 1+0 = 1
9+2= 11 = 1+1 = 2
9+3 – 1+2 = 3
इसलिए कहा जाता है कि आप नौ नम्बरी के साथ रहकर भी अपना व्यक्तित्व नहीं खोते, उसके सारे गुण अपने अन्दर जोड़ लेने के बाद भी आप, आप ही रहेंगे.
इसी तरह आप नौ में किसी भी संख्या का गुणा करेंगे तो नौ ही पाएंगे…
जैसे 9×1= 9
9×2=18 = 1+8=9
9×3=27=2+7=9
9×4=36- 3+6=9
यानी आप नौ नम्बरी के साथ गुणित होने के बाद आप नहीं रह जाएंगे… नौ नम्बरी जैसे हो जाएंगे.
अब ये आप पर निर्भर करता है आप नौ नम्बरी के साथ जुड़ कर अपने जैसा रहना चाहते हैं या उसके गुणों के साथ गुणित हो कर उसके जैसा हो जाना चाहते हैं.
मेरा तो यह व्यक्तिगत अनुभव रहा है मैंने जितने भी नौ नम्बरी देखे हैं सब एक से बढ़कर एक दस नम्बरी होते हैं. एक नौ नम्बरी तो मेरे ही जीवन में है, स्वामी ध्यान विनय. अब इस नौ नम्बरी के साथ तो गणित ही नहीं, मेरा रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र और जीवनशास्त्र सारे शास्त्र उलझे हुए हैं… इसलिए आइये हम बात करते हैं गुलज़ार साहब की, जिनकी हर नज़्म के साथ हम ऐसे गुणित होते हैं कि फिर हम नहीं रह जाते फिर तो पूरे गुल गुलशन गुलज़ार हो जाते हैं. क्योंकि –
नज़्म के बर्तन में कच्चे शब्दों को धीमे आंच पर पकाना और फिर उसे अपनी आवाज़ की मीठी चाशनी में घोलना हर किसी के बस की बात नहीं. ये गुलज़ार जैसा हलवाई ही कर सकता है.
रूह के लिबास को देह के नाप का काटकर कविता रूपी पैरहन बनाना क्या आसान है? ये तो बस गुलज़ार सा दरजी ही कर सकता है…
कच्ची सौंधी मिट्टी सी कहानी को चाक पर चढ़ाकर मटके सा आकार देना, उसे संवाद की आग में तपाकर पानी भरने लायक बनाना क्या कोई आसान काम है ये तो बस गुलज़ार जैसा कुम्हार ही कर सकता है…
ऐसा कौन सा काम है जो गुलज़ार को नहीं आता, चाँद की गुल्लक में यादों के सिक्के जमा करना, मरती उम्मीदों को देह की छुअन से दुबारा जन्म देना, दो रूहों के मिलन से जुड़वाँ पैदाईश को प्यार कहना… और भी न जाने क्या क्या… जीवन के सारे पहलुओं को शब्दों में जीवंत करदेने का हुनर तो किसी ज़िंदादिल इंसान के बस की ही बात है…
अब ऐसा कुशल कारीगर जब यह कहे … “मुझको इतने से काम पे रख लो”, तो मुझे मीरा का वो भजन याद आता है, म्हाने चाकर राखो जी… जी हाँ गुलज़ार एक ऐसी रूह है जिसका एक छोर आध्यात्मिक जगत में छुपा हुआ है और दूसरा जीवन में प्रकट होता है. इसलिए हम उनकी हर कविता, नज़्म या गीत सुनकर उन आध्यात्मिक ऊंचाइयों को अनुभव कर पाते हैं जहां तक ले जाने की कला सिर्फ एक योगी को ही आती है…
तो ये योगी कहता है-
मुझको इतने से काम पे रख लो…
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको
मुझको इतने से काम पे रख लो…
जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो….
जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है
मुझको इतने से काम पे रख लो…
और मैं कहती हूँ गुलज़ार,
खुली जुल्फों की अंधियारी रात में
तेरे नाम का सपना लेकर हाथ में
जब भी सुबह के बिस्तर पर झाँका है
चूड़ी की टूटी खनक से गीत जागा है
आँखों पर कुछ ऐसे तुमने ज़ुल्फ़ गिरा दी है
बेचारे से कुछ ख़्वाबों की नींद उड़ा दी है…
विरहा का गीत मैं गाती नहीं,
बदन की नब्ज़ों में नज़्म बनकर जब लहू में घुलता है
तो दिल की धमनियों से गीत निकलता है
छोटी सी दिल की उलझन है ये सुलझा दो तुम
जीना तो सीखा है मरके, मरना सिखा दो तुम…
अक्सर तुम्हारी चाय में शक्कर कम पड़ जाती है
और इधर तुम्हारी बातों में
सारी रात जागकर तुम्हारे लबों पर मिसरी तोड़ कर डालती हूँ
तब जाकर तुम्हारी सुबह की चाय के संग गुनगुना पाती हूँ
जबसे तुम्हारी नाम की मिसरी होंठ से लगायी है
मीठा सा ग़म है, और मीठी सी तन्हाई है…
और तुम्हारी वही शिकायत …
ये क्या
रोज़ रोज़ आँखों तले एक ही सपना चले
रात भर काजल जले, आँख में जिस तरह
ख़्वाब का दिया जले…