क़िताब का एक भी हर्फ़ न बदलने पर फ़ख्र करने वालों की नीयत बदलेगी?

यह शीर्षक गले लगाने वाली बात से उपजा है यह तो आप समझ ही गए होंगे लेकिन उस मुद्दे पर हम अंत में आएंगे. इस लेख में जो विडियो लिंक है वो इंग्लैंड का है. अंजेम चौधरी नाम का एक पाकिस्तानी इस्लाम प्रचारक है जिसे वहाँ की मीडिया भी घृणा उपदेशक (hate preacher) कहती है और उसके भाषण सुनें तो यह नाम गलत नहीं लगता. लेकिन बात यह है कि वो अक्सर चिल्लाकर नहीं बोलता, बहुत ठंडक से बात करता है. केवल डिबेट में झुंझलाता – झल्लाता है.

अंजेम चौधरी की जबर्दस्त फ़ैन फॉलोविंग है इंग्लैंड में, खास कर वहाँ बसे पाकिस्तानी मुस्लिमों के युवा पीढ़ी में. लेकिन इस वीडियो में आप देखेंगे कि दो बुजुर्ग मुसलमान उससे लड़ रहे हैं, उसे भगा रहे हैं, उनकी मस्जिद में न आने को कह रहे हैं. उनके साथ एक तगड़ा सांड सा व्यक्ति खड़ा है जिसको देखकर अंजेम चौधरी हिंसा पर नहीं उतर रहा, वरना उसकी देह बोली काफी आक्रामक है. थोड़ी तीखी बहस के बाद वो चला भी जाता है. वीडियो की लिंक यह रही –

अब यहाँ एक गंभीर मुद्दे को समझाने की कोशिश करूंगा… अंजेम चौधरी जैसे कुछ और भी hate preachers आए थे, कुछ पाकिस्तानी थे, कुछ अरबी. सभी पाक – सऊदी ट्रेंड हैं और इंग्लैंड, यूरोप के विभिन्न देश और अमेरिका में बसे मुसलमानों की युवा पीढ़ी को radicalize करने का श्रेय इनको जाता है. वैसे इस पाक – सऊदी जाइंट वेंचर पे अलग से लिखना होगा।

‘मुसलमानों की युवा पीढ़ी’ क्यों बार बार लिख रहा हूँ? क्योंकि इस युवा पीढ़ी के बापों की जो पीढ़ी है उसके परिचायक वे दो बूढ़े मुसलमान हैं जो अंजेम चौधरी से झगड़ रहे हैं. यही सारा खेल है समझने का, यही इस पोस्ट का मुद्दा है और एक मौलिक मानसिकता का भी परिचायक है.

उन दो बुजुर्गों की बात करें तो वे कई साल पहले नसीब आज़माने इंग्लैंड आए होंगे. शक्ल सूरत से उम्र का अंदाज लगाए तो जब वे जवान होंगे तो इंग्लैंड इस्लाम से त्रस्त नहीं था. ये मेहनती लोग थे जिन्होने पैसे कमाए ताकि उनके बच्चे अपने माँ बाप की जवानी के समय के बनिस्बत बहुत ही अच्छी लाइफ स्टाइल से जी सके.

ऐसे में अक्सर दूजी संस्कृति में जा बसे लोगों को एक बात कचोटती है तो वो है अपने बच्चों का अपने धर्म से, अपनी संस्कृति से कटते जाना, जड़ों से कटकर वहाँ के माहौल में जड़ें ढूँढना. और जैसे कि वहाँ का सांस्कृतिक माहौल क्या है यह सब जानते हैं, काफी माँ बाप अपने बच्चों को उन संस्कारों से बचाने के लिए वहाँ अपने समाज – जाति – बिरादरी के संगठन बना लेते हैं और अपने मंदिर, अपने उत्सव आदि मनाते हैं. यहाँ से काफी पुजारी प्रवचनकार लोग जाते हैं वहाँ पर और काफी अच्छी दक्षिणा ले आते हैं.

जैसे यह बात हमपर लागू है वैसे ही मुसलमानों पर भी है. मस्जिदें उन्होने भी बांधी और अपने बच्चों को इस्लाम सिखाने के लिए मौलवी मँगवाए. धर्म और इस्लाम का फर्क यही से स्पष्ट होता है. पाकिस्तान और सऊदी ने इसमें मौका देखा. नई पीढ़ी के लिए मौलवियों की भी खेप तैयार कर दी जिन्हें इंग्लिश या अन्य यूरोपियन भाषाएँ भी आती हों. क्योंकि उन्हें ऐसे बच्चों से बात करनी थी जिनको अपनी मातृभाषा कम और इंग्लिश या अन्य स्थानीय यूरोपियन भाषा अधिक आती थी, उनकी शिक्षा भी उसी भाषा में होती थी, सो इन मौलवियों को भी उन भाषाओं का अच्छा ज्ञान और उनमें धाराप्रवाह बोलना आवश्यक था.

इन्होने माइग्रेंट मुसलमानों की युवा पीढ़ी को बहुत ही radicalize कर दिया और घर में एक बार वहाबी इस्लाम घुसता है तो पूरा घर इनफेक्ट हो जाता है. दो किस्से बहुत करीब से देखे हैं. बहू कट्टर थी, उसने सास के सर पर हिजाब और ससुर की दाढ़ी बढ़ाकर सर जाली टोपी में ला दिया. वरना जिंदगी के साठ से अधिक वर्ष ससुर जी को रोज क्लीन शेव किए बिना चैन नहीं आता और जाली टोपी केवल कभी कभार किसी के साथ मजबूरी में मस्जिद गए नमाज में, तो जेब से निकाल कर पहनते थे. अक्सर रुमाल बांधकर ही काम चलाते थे. सास भी साड़ी ही पहनती थी, केवल अपने ससुर के सामने पल्लू सर पर लेती थी, वैसे वे भी काफी आधुनिक थे, मना करते थे लेकिन यही उनका आदर करती थी. साड़ी गई, सलवार आई और हाल में देखा तो काला टेंट भी आ गया था अब की बार जो भारत आई थी.

ऐसे ही एक और परिचित थे, बेटा 24 नंबरी हो गया वो बात उन्हें बेहद नापसंद थी. लेकिन गुजरने के पहले बेटे ने माँ और बाप को भी टेंट और टोपी में ला दिया. आखिरी बार कुछ साल पहले मिला तो खिसियाने से होकर बोले क्या करें, अब हम लोग बूढ़े हुए हैं, बेटे का मन रखना पड़ता है. घर में झगड़ा अच्छा नहीं. उसके बाद साल भर में उनके जाने की खबर आई थी.

ज़रा भटक गए, हम माइग्रेंट मुसलमानों की युवा पीढ़ी के रेडिकलाइज़ेशन की बात कर रहे थे. इन पाक – सऊदी ट्रेंड जिहादी मौलवियों का प्रचार काफी रंग लाया और आज यूरोप अस्थिर हुआ है उनके और मरकेल जैसे वामी साथियों के कारण. इंग्लैंड के लिए लोग उम्मीद हार चुके हैं. और यहाँ मूल मुद्दा है – इंग्लिश और यूरोपियन संस्कृति में पलते पढ़ते नयी पीढ़ी में इतना रेडिकलाइज़ेशन क्यों हुआ जब कि उनके माँ बाप रेडिकलाइज्ड नहीं थे? क्या उनकी मॉडर्न शिक्षा काफी नहीं थी?

यहीं पर फर्क स्पष्ट होता है. पश्चिम में स्थित हिन्दू, अपनी सांस्कृतिक जड़ें कितनी भी मजबूत बना लें, वो ना उस देश के लिए और ना ही देशवासियों के लिए कोई खतरा है. मुसलमान के लिए स्थिति विपरीत है. वे खतरा बन चुके हैं.

यह क्यों; समझने के लिए ही इस्लाम का अध्ययन आवश्यक है. इस्लाम में मृत्यु की गौणता और आखिरत का महत्व समझना आवश्यक है. मुसलमान के लिए मृत्यु क्यों गौण है और आखिरत उसके लिए क्या, कैसी और कितनी प्रेरणा है यह समझना अनिवार्य हो जाता है.

यह इस्लाम की ही प्रेरणा है जो जिहाद पर उकसाती है और हर मुसलमान समुदाय कितना भी शान्तिप्रिय बन गया हो, इस प्रेरणा के लिए टार्गेट है और रहेगा क्योंकि जब तक यह समय के साथ न बदलने का, कालातीत, सदा के लिए होने का दंभ रहेगा, शांतिप्रिय लोग भी इसका विरोध नहीं कर पाएंगे.

गर्व करते हैं अपने न बदलने पर, तो क्या नीयत बदलेगी? क्या गले मिलते समय बख्तर पहनना आवश्यक नहीं होगा?

लंबा विषय है, बाद में भी लिखा जाएगा; लेकिन चाहता हूँ कि अन्य विचारक भी इस मुद्दे पर सोचें क्योंकि इस का सामाजिक हल तो समाज को ही निकालना होगा, सरकार से, वो भी जहां ब्यूरोक्रेसी में ठूंस के वामी भरे हैं, इसकी उम्मीद न की जाये.

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