दो साल पहले परिवार का केरल जाना हुआ था. पापा के दोस्त के यहाँ रहने की व्यवस्था हुई जो वहाँ एक स्कूल में प्रिंसिपल थे. उस स्कूल की सबसे खास बात थी कि वहां हर क्लास के बच्चों के हिस्से ज़मीन का एक टुकड़ा आता था जिसमें उन्हें खेती करनी होती थी. बच्चे अपने-अपने हिस्से का सही प्रयोग करने और अपने खेत को ज्यादा बेहतर बनाने के लिए एड़ी- चोटी का जोर लगाए रखते. मेस में खाने की सब्जियों का एक बड़ा हिस्सा स्कूल के खेत से ही पूरा हो जाता.
आश्चर्यजनक है कि आजकल के स्कूलों में जो तमाम प्रोजेक्ट दिए जाते हैं, बच्चों के मानसिक विकास के नाम पर, उसमें खेती करना नहीं आता. हमारे बच्चे नहीं जानते खुद की मेहनत से उगाई गाजर को सोंधी मिट्टी से खींचने का आनन्द, या ओस में डूबे मटर के पौधे की खूबसूरती. मानसिक विकास के लिये प्रकृति से प्यार करना सीखने से बेहतर क्या हो सकता है? खेतों से बेहतर उन्हें कहाँ मालूम होगा एक-एक पौधे की कीमत?
बचपन में मैंने खेती के नाम पर किचन गार्डन बनाया है. जब तक घर पर रही, घर के पीछे की छोटी सी जगह में तमाम चीज़ें उगा लेती थी. हमारे कैम्पस में आस-पास की परिवार भी यहीं करते, नतीजा यह था कि पूरे कैम्पस में पालक इस परिवार से मिलता तो गोभी उस परिवार से. अब कंक्रीट के घने होते जंगलों ने खेती करने की लग्जरी बहुतों के लिए खत्म कर दी है. पर सच्चाई उतनी बुरी भी नहीं है जितनी दिल्ली की दमघोंटू हवा हमें महसूस करवाती है.
अब लोग पौधे लगाते भी है तो show-plant के नाम पर. पर खेतों को अपने ज़ेहन से निकालना मेरे लिये नामुमकिन है, इसीलिए अब छत पर खेती करने की ओर रुख कर रही हूँ. तमाम यूट्यूब वीडियो छानने के बाद जो बात समझ आयी कि हमारे शहर बहुत कम लागत में हरे-भरे हो सकते हैं, बस जरूरत है दिनभर में मुश्किल से तीस मिनट निकालने की, वह भी शुरुआती दिनों में.
जब देश इस हद तक खाद्य संकट से जूझ रहा हो तो, बहुत सी ज़रूरतें खुद पूरा करना बेहतरीन होगा, पर्यावरण के लिए भी. Terrace-agriculture बेहतरीन विकल्प है, और अगर आप इसको समझना शुरू करें तो आश्चर्य होगा यह जान कर कि आपकी छोटी सी बेजान छत कितने काम की हो सकती है. So, go for it.