जार्ज गुरजिएफ ने लिखा है कि वह बचपन में एक छोटे से खानाबदोश कबीले में रहा था. खानाबदोश बड़ा प्यारा शब्द है. खानाबदोश का अर्थ होता है, जिसका मकान अपने कंधे पर है. खाना यानी मकान. इसलिए कहते हैं – शराबखाना, मयखाना, दवाखाना. खाना यानी मकान. और बदोश… दोश का अर्थ होता है- कंधा. खानाबदोश का अर्थ होता है, जिसका मकान अपने कंधे पर; जो हमेशा चल रहा है; जो चलता ही रहता है; जो रुकता ही नहीं; जो कहीं मजबूत मकान नहीं बनाता, तंबू बांधता है. अभी बांधा और सांझ उखड़ जाएगा. सांझ बांधा और सुबह उखड़ जाएगा.
गुरजिएफ ने कहा है कि उस कबीले की औरतें एक तरकीब जानती थीं. वे अपने बच्चों को दिन भर घर में अकेले छोड़कर जाती थीं. आखिर उन्हें काम करना है, बाजार में सामान बेचना है, तरह-तरह के धंधे करने हैं… वे अपने बच्चों को क्या करें? अपने बच्चों को बिठा देतीं, खड़िया मिट्टी से उन बच्चों के चारों तरफ एक सफेद लकीर खींच देतीं और बच्चों से कह देतीं कि इस लकीर के बाहर तुम निकल न सकोगे; लाख उपाय करोगे और निकल न सकोगे.
बचपन से ही बच्चों को यह बात सिखाई जाती… और बच्चों की तो बात तो और, यह बडो पर भी असरकारक था. गुरजिएफ ने लिखा है कि खानाबदोश औरत अपने पति के चारों तरफ लकीर खींच देती और कह देती कि बस इसके बाहर नहीं निकल सकोगे.
गुरजिएफ तो बड़ा हैरान हुआ. बच्चा समझ लो कि बच्चा है… मान गया, बड़े भी उन्ही बच्चों की तरह उन्ही लकीरों के अन्दर बैठे रहते. जिसने बीस-पच्चीस साल तक यह बात मानी हो, उसके भीतर गहरी बैठ गई. वह अब पति ही सही, मगर भीतर तो वही बच्चा है; और कहने वाली आज मां न सही, पत्नी है, मगर है तो वही औरत, है. वही स्त्री. वही बल, वही धमकी…बाहर निकल न सकोगे! बाहर निकले कि मुसीबत में पड़ जाओगे, बीमार पड़ जाओगे, लंगड़े हो जाओगे, अंधे हो जाओगे. इस तरह की सारी धमकियां.
उसने देखा कि जवान हों, बूढ़े हों या बच्चे, औरतें चारों तरफ लकीर खींच दें, वे बाहर न निकल सकें. निकलने की कोशिश करें तो यूं हो जैसे कि कोई अदृश्य दीवार, कांच की कोई पारदर्शी दीवार उन्हें रोक लेती है. बस वे लकीर तक आएं, हाथ से टटोलें, जैसे कोई चीज रोक रही है और वापस लौट जाएं. गुरजिएफ ने कहा है, वहां मुझे पहली बार समझ में आया कि आत्म-सम्मोहन क्या है.
गुलामी के इन सालों में अंग्रेजों ने और उनकी परवर्ती शासकों (स्पेशली कांग्रेसी और समाजवादियों) ने हिंदुस्तान की जनता, कर्मचारी, नेता, सिस्टम, ओपिनियन मेकर, रचनाकार, कलाकर, किसान, पुजारी, आदि-आदि सब के दिमाग में आत्म सम्मोहन की एक अवस्था भर दी है कि किसी भी तरह उनकी व्यवस्था को भंग नहीं किया जा सकता, बदला नहीं जा सकता.
वह उनकी अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द नाचता रहेगा. तमाम कष्ट हों, दुःख हो, पूर्व बनाई गई व्यवस्था में जैसे ही बदलाव लाने की कोशिश करने वाला कोई आता है, वह आत्मप्रवंचना का शिकार हो जाता है. उसका आत्मविश्वास गायब हो जाता है. दिमागी छलांग लगा ही नहीं पाता कि फाइलों का सिस्टम बदला जा सकता है, अर्थव्यवस्था का सिस्टम बदला जा सकता है, करेंसी का सिस्टम बदला जा सकता है.
वही सड़ी गली खदान नीतियां रहेंगी, वही बदबूदार कृषि नीतियां रहेंगी, गन्दगी से भरी राष्ट्रविरोधी शिक्षा नीतियां रहेंगी और वही सिनेमा, मनोरंजन नीतियां रहेंगी. हम पलट नहीं सकेंगे उन्हें. हम कभी प्राचीन इतिहास के सच को न पढा सकेंगे. अपने समाज की तरफ या अपनी सर्वोत्कृष्ट मूलभूत भारतीय संस्कृति की इकाई की तरफ छलांग लगाने की की कल्पना भी नहीं कर सकते.
जैसे ही संस्कृत की बात करना शुरु करते हैं, जैसे ही हम अपनी भाषा की बात करना शुरु करते हैं, जैसे हम अपनी स्वयं के पुराण, वेद, इतिहास की बात करना शुरु करते हैं, उनका बनाया पूरा सिस्टम एक रेज़िस्टेंट की तरह सामने खड़ा हो जाता है. वह कतई नहीं होने देता है.
उन्होंने योजना आयोग बनाए, उन्होंने शिक्षा आयोग बनाए, उन्होंने बहुत सारे पाठ्यक्रम बनाए, उन्होंने स्टेट की प्रशासनिक नीतियां बनाई, हम वह बदबूदार लाश लिए घूम रहे हैं. उनसे वह निकलने ही नहीं देते क्योंकि धारणाएं दिमाग में आत्म सम्मोहन के स्तर पर बन गई है कि अंग्रेजों ने जो फाइलों का नेटवर्क बनाया है वह उन्हीं नीतियों से चलेगा.
मूलत: अब बदलाव की जरूरत है, इन 3-4 सालों में मोदी लगातार कोशिश करते रहे. सोच की दृष्टि से, राजनीति की दृष्टि से, कलात्मकता की दृष्टि से, आंतरिक प्रवृत्ति की दृष्टि से यह बदलाव लाना जरुरी है. पर एक प्रधानमंत्री जैसे शक्तिशाली व्यक्ति के लिए भी वह पूरा का पूरा सिस्टम रेज़िस्टेंट हो गया.
वह सिस्टम कतई नहीं चाहता कि अपने यथास्थितिवाद से बाहर जाए, वह अपने उसी स्वरूप को बनाए रखना चाहता है जैसा उसने देखा-भोगा है. वह एक छलांग नहीं लगाना चाहता. वह कतई अंग्रेजों द्वारा खींची गई फर्जी मानसिक लक्ष्मण रेखा से बाहर नहीं आना चाहता.
1833 में, 1837 में, 1856 में, 1862 में, 1926 में, 1938 में, 1948 में खींची गई तमाम गलत लक्ष्मण रेखाओं से बाहर नहीं आना चाहता. इसलिए वह धारा 370 नहीं समाप्त नही होने देना चाहता, इसलिए वह कॉमन सिविल कोड नहीं लगाना चाहता, इसीलिए स्वदेशी अर्थनीति नहीं लागू करना चाहता है, इसीलिए राम मंदिर उसे दूर की कौड़ी लगता है, इसीलिए वह भारत की सेवा केंद्र त्रिकोण नहीं बनने देना चाहता.
उसके लिए चाइना की अर्थव्यवस्था बहुत बढ़िया है, उसके लिए अमेरिकन इकनॉमिक सिस्टम से, नाटो इकनॉमिक सिस्टम, यूरोपियन इकनॉमिक सिस्टम से बाहर छलांग लगाना एक खतरे जैसा है. वह भारत की अपनी इकनॉमी-रोल मॉडल नहीं देना चाहता. गांधी की स्वदेशी बातें तो वह अच्छे से पेश करता है पर वह भारत की शिक्षा नीति में, भारतीय भाषा में, भारतीय सोच के हिसाब से विज्ञान को बढ़ावा नहीं देना चाहता.
ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस और अंग्रेजों ने वह लक्ष्मण रेखा बड़ी चतुराई से खींची है. ऐसा नही है कामी, वामी या सामियों के गिरोह का विरोध हमारे सपोर्ट से ज्यादा ताकतवर है. हम उन्हें चुनाव में हराकर आते हैं, पूर्ण बहुमत से आते हैं पर इस रेखा को नहीं मिटा पाते.
नीति आयोग के नवनियुक्त अध्यक्ष राजीव कुमार की यह स्वीकृति कि पूर्व उपाध्यक्ष पनगढ़िया भी एक तरह से अमेरिका और यूरोप के एजेंट ही थे, इस बात का संकेत है कि वह जाल, वह आत्मसम्मोहन हर स्तर पर व्याप्त है. अमूमन भारत को दुहने-शोषण करने की नीतियों को धरातल पर उतारने वाले एजेंट पिछले सत्तर साल से तैनात करवा ही लिए जाते थे.
कांग्रेस, समाजवादी, सामी सभी योजना आयोग को अपनी मशीन के तौर पर उपयोग करते थे. उसी तरह ही नीति आयोग की अनुभवहीनता का लाभ उठाकर नीति आयोग में भी घुस गये. फलस्वरूप अभी तक पश्चिमी हितों को ध्यान में रखकर नाटो देशो की नीतियों के अनुरूप उनके हित संवर्धन का साधन मात्र बनता जा रहा था.
कारण जो भी हो सच्चाई यह है कि सत्ता में आने के बाद पिछले तीन सालो में मोदी सरकार देश हित ओर देशी राष्ट्रीय दृष्टिकोण के अनुसार देश की नीतियों के निर्धारण में सफल नहीं हो सकी है. सशक्त अनुभवी टीम के अभाव में सरकार पर पकड़ न बन सकने और टीम स्पिरिट की कमी होने की वजह से मोदी सरकार में मंत्रालयों की नीति निर्माण और निर्णयों की प्रक्रिया में अनावश्यक उलझनें और देरी बनी हुई है.
इन सालों में भी अनिवार्य रूप से विश्व बैंक ओर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधि शामिल होते हैं जो परोक्ष रूप से नाटो देशों के हितों के अनुरूप भारत की नीतियों के निर्माण करवाते रहे हैं. हालांकि बाबूओं (आई.ए.एस) की स्वार्थपरता और लामबंदी भी बराबर की जिम्मेदार है.
इसके अलावा भारत की संवैधानिक संस्थाओं, न्याय पालिका, आर्थिक संस्थाओं और नौकरशाही के प्रमुख पदों पर बैठे लोगों को भी अपने इन्हीं विदेशी आकाओं से दिशा निर्देश लेने की आदत पड़ी हुई है. इसी कारण भारत और इंडिया दो अवधारणाओं की बात राष्ट्र चिंतक करते रहे हैं.
दुनिया भर के संपर्कों के अनुभव से मज़बूत होते मोदी अब इन प्रमुख पदों से पश्चिम-परस्त लोगों को साफ करने का मन बना चुके दिखते हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर पद पर अपनी सोच के व्यक्ति को बैठाने के बाद नीति आयोग से भी अमेरिका परस्त पनगढ़िया की विदाई एक बड़ा संदेश है. जल्द ही ब्यूरोक्रेसी से भी बड़ी मात्रा में भ्रष्ट ओर अंग्रेजी-दां बाबुओं की विदाई होने जा रही है.
पनगढ़िया और उनकी ब्रिगेड शिक्षा और स्वास्थ्य नीतियों में स्वदेशी एवं राष्ट्र-हितकारी नीति-तत्वों को शामिल नहीं होने दे रहे थे. इस कारण इन क्षेत्रों में बड़े नीतिगत बदलाव अटके पड़े थे. इससे सैद्धांतिक मुद्दों के प्रति सचेत और लगातार कार्यरत समझ-रखने वाले लोग, संघ और उसके तमाम अनुषांगिक संगठन भी क्षुब्ध होते जा रहे थे.
देखा जाए तो नीति आयोग अपने पूर्ववर्ती योजना आयोग की तर्ज पर जा रहा था, जिसे समय पर सम्भाल लिया गया. कुछ ऐसे ही देश में रिसर्च एवं इनोवेशन डेवलपमेंट, एंटरप्रेन्योरशिप, औद्योगिक विकास आदि की गाड़ी पटरी से उतरी पड़ी है. राजीव कुमार की नियुक्ति एक तरह से विदेशी ताकतों के लिए झटका है और मोदी और पीएमओ की नीतिगत निर्णयों पर बढ़ती समझपूर्ण पकड़ का परिचायक है. यह कुल मिलाकर भारत के निर्माण में सही दिशा में लिया गया बड़ा कदम है जिसके परिणाम भी जल्द दिखने लगेंगे.