डॉ. अम्बेडकर और इस्लाम : विभाजन आवश्यक क्योंकि साथ नहीं रह सकते हिंदू-मुसलमान

डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जी का भारत की राष्ट्रीय धारा का भरपूर अध्ययन था. सन 1915 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में एम. ए. में उनके प्रबंध का विषय ही था, ‘भारत के राष्ट्रीय लाभांश का इतिहासात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन’ (The National Dividend of India – A Historical and Analytical Study). अर्थात, भारत का इतिहास, उस इतिहास की विभिन्न सामाजिक धाराएं, उनमें आयी हुई विकृतियां, मुस्लिम आक्रांता, उन आक्रान्ताओं द्वारा किया गया विध्वंस, इन सभी विषयों पर बाबासाहब का गहरा अध्ययन था. और इन विषयों पर उन्होंने अपनी राय हमेशा ही बेबाक ढंग से रखी हैं.

28 दिसंबर, 1940 को उनका Thoughts on Pakistan यह पुस्तक प्रकाशित हुआ. उस समय तक पाकिस्तान का मुद्दा गरमाया तो था, लेकिन राष्ट्रीय बहस का विषय नहीं बना था. पुस्तक प्रकाशित होने के समय दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था. इस पृष्ठभूमि पर इस पुस्तक में बाबासाहब ने इस्लाम और पाकिस्तान के बारे में किसी की परवाह न करते हुए, निर्भीकता के साथ खरी-खरी सुनायी हैं. उन्होंने विभाजन का समर्थन किया हैं. इस्लाम से ‘छुटकारा’ पाने के लिए विभाजन कितना आवश्यक हैं, इस बात को बार-बार दृढ़ता के साथ रखा है. मुसलमानों के साथ हिन्दुओं का सह अस्तित्व संभव ही नहीं है, इस बात को दमदारी के साथ प्रतिपादित किया है. और इसीलिए विभाजन के समय जनसंख्या के अदला-बदली की शर्त को वे अनिवार्य मानते हैं.

महत्वपूर्ण बात यह है कि बाद में हिन्दू-मुस्लिम दंगे, बंटवारा, आज़ादी, संविधान का निर्माण इस सब प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद भी इस विषय पर उनकी सोच अडिग है. बिलकुल भी नहीं बदली है. बंटवारे के समय जनसंख्या की अदला-बदली नहीं हो सकी हैं. इसके बावजूद भी बाबासाहब को विभाजन एक अच्छी घटना लग रही है.

पाकिस्तान पर पुस्तक प्रकाशित होने के लगभग 15 वर्ष बाद लिखे एक लेख में बाबासाहब ने मुस्लिमों को ‘अभिशाप’ शब्द से संबोधित किया है. महाराष्ट्र शासन द्वारा प्रकाशित उनके ‘Dr. Babasaheb Ambedkar – Writing and Speeches’ ग्रन्थ साहित्य के पहले खंड के 146वें पृष्ठ पर इस सन्दर्भ में बड़ा स्पष्ट उल्लेख है. बाबासाहब लिखते हैं – ”When partition took place, I felt that God was willing to lift his curse and let India be one, great and prosperous” (जब विभाजन हुआ, तब मुझे ऐसा लगा, मानो ईश्वर ने इस देश को दिया हुआ ‘अभिशाप’ वापस ले लिया है और अब अपने देश को एक रखने का, महान और समृद्धशाली बनने का रास्ता साफ़ हो गया है).

यहां पर ‘अभिशाप’ यह शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया हैं, यह स्पष्ट है. इस्लामी आक्रान्ताओं का इतिहास बाबासाहब को अच्छे से मालूम था. हिन्दू और बौद्ध धर्मीय लोगों पर मुसलमानों द्वारा किये हुए पाशविक और बर्बरतापूर्ण अत्याचारों का उनका ज़बरदस्त अध्ययन था. इन अत्याचारों का वे स्पष्टता के साथ उल्लेख भी कर रहे हैं. अर्थात ‘इस्लामी जनता से अलग होकर ही भारत का विकास हो सकता हैं’, यह उनकी मजबूत धारणा है.

ये आगे भी दिखाई देता हैं – उनकी मृत्यु से मात्र छह माह पहले, अर्थात 23 जून, 1956 को दिल्ली में अखिल भारतीय बौद्धजन समिति की आम सभा में बाबासाहब ने अपने यही विचार स्पष्टता से रखे हैं – “I was glad that India was seperated from Pakistan. I was the philosopher so to say, of Pakistan. I advocated Pakistan because I felt that it was only by partition that Hindus would not only be independent, but free.”

पाकिस्तान पर लिखी गई उनकी पुस्तक में ऊपर कही गयी सभी बातों का विस्तृत विवरण आता है. चूंकि बाबासाहब वकील थे, इसलिए उन्होंने ‘पाकिस्तान’ के विषय पर दोनों पक्षों का प्रतिपादन किया है.

‘मुस्लिम केस फॉर पाकिस्तान’ इस शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय हैं. उनमें ‘मुस्लिम लीग की मांगे’, ‘राष्ट्र को घर चाहिए’ और ‘दुर्दशा से पलायन’ जैसे विषयों पर विस्तार से विवेचन किया है.

पुस्तक के अगले तीन अध्याय ‘हिन्दू केस अगेंस्ट पाकिस्तान’ इस शीर्षक के अंतर्गत हैं. ‘खंडित एकता’, ‘सुरक्षा की दुर्बलता’ और ‘पाकिस्तान तथा धार्मिक एकता’ इन विषयों द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में हिन्दू समाज के तर्कों को रखा गया है.

आगे ‘पाकिस्तान नहीं बना तो’ इस शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय हैं. इसमें पाकिस्तान का विकल्प, हिन्दू और मुस्लिमों के दृष्टिकोण से दिया है.

अंतिम तीन अध्याय ‘पाकिस्तान के निर्माण की बेचैनी’ इस शीर्षक के अंतर्गत हैं. इनमें सामाजिक मुद्दे, जातिगत संघर्ष, राष्ट्रीय अवसाद आदि विषयों की चर्चा है. और सबसे अंत में पूरे पुस्तक का सार, संक्षेप में दिया है.

यह पुस्तक अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है. यह पुस्तक किसी तथाकथित हिन्दुत्ववादी चिन्तक की लिखी हुई नहीं, वरन बाबासाहब जैसे अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति ने, हिन्दू- मुस्लिम मसले के सभी पहलुओं पर सारगर्भित विचार कर यह पुस्तक लिखी है. इसलिए इसके एकपक्षीय होने का प्रश्न ही नहीं उठता. बाबासाहब ने अनेकों बार हिन्दू धर्म पर प्रखर टिप्पणी की है. इसलिए ऐसे हिन्दू समाज के प्रति पक्षपाती न रहने वाले व्यक्ति और संविधान के निर्माता का लिखा यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है.

इस पुस्तक में बाबासाहब लिखते हैं – “भारत में हिन्दू – मुस्लिम एकता कभी अस्तित्व में ही नहीं थी. मुसलमान शासक के रूप में भारत में आये थे, इसलिए वे इसी मानसिकता में रहते हैं. 1857 का विद्रोह भी हिन्दू – मुस्लिम एकता का प्रतीक नहीं था, वरन मुसलमानों द्वारा अपनी ‘छीनी गयी’ शासक की भूमिका को फिर से वापस लेने के लिए अंग्रेजों से छेड़ा विद्रोह था.”

बाबासाहब मुस्लिम धर्म के बारे में भी विस्तार से लिखते हैं, “मुसलमानों में समता नहीं हैं. इस धर्म में महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता. मुसलमानों के अलावा वे सभी को काफिर मानते हैं. और ‘मुसलमानों के देश/ समाज में काफिरों के साथ दोयम दर्जे का हीन व्यवहार होना चाहिए’ यह उनके धर्म में ही लिखा हैं.” इस सन्दर्भ में बाबासाहब ने अनेक उदाहरण दिए हैं. तैमूरलंग की मिसाल देकर वे बताते हैं कि उसने हिन्दुओं पर कैसे पाशविक अत्याचार किये थे.

तो फिर ऐसे मुसलमानों के साथ हिन्दुओं की एकता संभव है क्या..? अगर है, तो कैसे..? इस बारे में पुस्तक के अंत में बाबासाहब लिखते हैं, “हिन्दू – मुस्लिम एकता ‘तुष्टिकरण’ (appeasement) या ‘समझौता’ (settlement) इन दो ही रास्तों से संभव हैं. (If Hindu – Moslem unity is possible, should it be reached by appeasement or settlement..? – Chapter IV, Page 264).

इसमें उल्लेख किया गया तुष्टिकरण (appeasement) यह शब्द बाबासाहब ने मुसलमानों के सन्दर्भ में अनेकों बार प्रयोग किया हैं. ‘कांग्रेस पार्टी मुसलमानों का तुष्टिकरण करती हैं, जो देश के लिए घातक हैं’, यह कहते हुए बाबासाहब लिखते हैं – Congress has failed to realize is the fact that there is a difference between appeasement and settlement and that the difference is an essential one (Chapter IV, Page 264).

इसी अध्याय में बाबासाहब ‘तुष्टिकरण’ शब्द की व्याख्या करते हैं. वे लिखते हैं, “तुष्टिकरण याने आक्रान्ता का दिल जीतने के लिए उसके किये हुए खून, बलात्कार, चोरी, डकैती आदि को अनदेखा करना” (Appeasement means to offer to buy off the aggressor by convincing at or collaborating with him in the rape, murder and arson on innocent Hindus, who happen for the moment to be the victims of his displeasure).

अर्थात ‘कितना भी तुष्टिकरण किया जाय, आक्रांता की कितनी भी अनुनय की जाए, उनकी मांगों का कोई अंत नहीं होता…’

बाबासाहब ने बड़े ही आग्रह के साथ जनसंख्या की अदला-बदली को प्रतिपादित किया है. ‘पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान में सभी मुसलमान और हिंदुस्तान में सभी हिन्दू’ यह उनकी पक्की सोच है. और पूरी आस्था के साथ उन्होंने अपनी इस राय को बार बार दोहराया है.

बाबासाहब की यह राय आगे भी कायम रही है. भारत स्वतंत्रता की दहलीज़ पर है, और ऐसे समय, 20 जुलाई, 1947 में प्रकाशित अपने वक्तव्य में बाबासाहब कहते हैं – “बंगाल और पंजाब का विभाजन यह केवल उन प्रान्तों के निवासियों का प्रश्न नहीं है. यह राष्ट्रीय प्रश्न है. इन प्रान्तों की सीमा रेखा तय करना, सुरक्षा और व्यवस्थापन इन मुद्दों के आधार पर ही संभव है. जनसंख्या की अदला-बदली को यदि कांग्रेस और लीग मानती, तो यह समस्या खड़ी ही नहीं होती. (खंड 17, पृष्ठ 355)

बाबासाहब ने 1936 में धर्मांतरण की घोषणा की. घोषणा के पहले और बाद में उन्होंने विभिन्न धर्मों का बारीकी से अध्ययन किया. इस दौरान हैदराबाद रियासत के नवाब ने उन्हें मुस्लिम धर्म में आने के लिए कुछ करोड़ रुपये पेश किये. (संदर्भ – धनंजय कीर द्वारा लिखित बाबासाहेब आंबेडकर चरित्र) किन्तु बाबासाहब ने यह पेशकश ठुकरा दी.

बाद में बाबासाहब का झुकाव बौद्ध धर्म के पक्ष में होने पर उन्होंने ‘बौद्ध और इस्लाम’ संबंधों पर विस्तार से लिखा है. इस्लामी आक्रान्ताओं ने कितनी बर्बरता से बौद्ध भिक्खुओं को मौत के घाट उतारा, बौद्ध विहारों को उध्वस्त किया, इस बारे में बाबासाहब लिखते हैं, “इस्लाम में ‘बुत शिकन’ यह सम्मान से बोला जाने वाला शब्द हैं. इसका अर्थ हैं, ‘मूर्ति फोड़ने वाला’. इसमें जो ‘बुत’ हैं, वह ‘बुद्ध’ शब्द का अपभ्रंश (परिवर्तित रूप) हैं.” ‘बौद्ध धर्म को समाप्त करने में मुस्लिम आक्रान्ताओं की भूमिका प्रमुख है’, ऐसा बाबासाहब ने अनेक स्थानों पर लिखा है.

इस्लाम और पाकिस्तान के बारे में बाबासाहब की सोच ऐसे सीधी, सरल और सपाट है, एकदम स्पष्ट. कहीं कोई संभ्रमावस्था नहीं है. जीवन के अलग-अलग मुकाम पर भूमिका बदलने का भी प्रयास नहीं है. ‘हिन्दू – मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते इसलिए विभाजन आवश्यक हैं’ ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन.

हम बाबासाहब की विभाजन की भूमिका से सहमत होंगे या नहीं होंगे. किन्तु उनकी दूरदृष्टि और सोच की स्पष्टता देखकर मन अचंभित रह जाता है!

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