एल्फ़्रेड हिचकॉक – जैसे ही यह नाम कान में पड़ता है, अपने आप ही संशय और रहस्य का घेरा बनता-सा महसूस होने लगता है. सिनेमा इतिहास के सबसे बड़े निर्देशकों में एक हिचकॉक ने अपनी ही तरह की फ़िल्में बनाईं और कला बनाम मनोरंजन की हमेशा से चली आ रही बहस को अपनी तरह से माने दिये.
एल्फ़्रेड हिचकॉक का नाम जितना अपनी बनावट और दिखावट में एक क़िसम का रहस्य लिए है, वही उनकी पहचान है. जुनून की हद तक पचास से भी ज़्यादा फ़िल्मों में प्रयोग करते हुए रहस्य और रोमांच की उनकी सिग्नेचर स्टाइल वाली फ़िल्मों तक के सफ़र ने उन्हें ‘हिचकॉकियन शैली’ तक पहुंचाया.
हिचकॉक के सिनेमा बनाने का समय बीस के दशक से लेकर सत्तर के अंतिम दशक तक लगभग साठ सालों का रहा. इस दौरान उन्होंने न केवल सिनेमा बनने में हो रहे परिवर्तन देखे बल्कि दुनिया भर के सामाजिक-राजनीतिक हालातों को बदलते देखा. पर चुना उन्होंने अपनी शैली को ही. खिलंदड़ी, रोमांच, मनोविश्लेषण, संशय, अपराध, डर और इससे पैदा होने वाला सम्पूर्ण मनोरंजन. ब्रिटेन से लेकर अमेरिका के हॉलीवुड तक, मूक फ़िल्मों से लेकर टॉकी तक, और फिर डॉक्यूमेंट्री से होते हुए टीवी शोज़ के प्रस्तोता तक हिचकॉक ने सिनेमा विधा को हर तरह से समृद्ध किया. हिचकॉक का जब भी नाम आता है, ‘वर्टिगो’, ‘साइको’, ‘रियर विंडो’, ‘सस्पिशियन’, ‘डायल एम फॉर मर्डर’, ‘नॉर्थ बाय नॉर्थवेस्ट’, ‘नटोरियस’, ‘स्पेलबाउंड’, ‘रेबेका’ जैसी फ़िल्मों के नाम ज़ेहन में आते हैं. यक़ीन मानिए कि इन सभी फ़िल्मों के नाम जैसे और जिस क्रम से मेरे ज़ेहन में आए वैसे का वैसा ही लिखा है.
ज़ाहिर है हिचकॉक न केवल प्रयोगधर्मी फ़िल्मकार रहे बल्कि फ़िल्मों को लेकर दर्शक की सोच में उनका भरोसा उतना ही अटूट रहा. अपने विषय और कहन को लेकर भी आश्वस्त ही रहे कि यही रोमांच उन्हें दिखाना है. ब्रिटेन के लंदन में 13 अगस्त 1899 को पैदा हुए एल्फ़्रेड हिचकॉक अपनी किशोरावस्था से ही सिनेमा के मुरीद हो गए और फिर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भिन्न नौकरियाँ करते हुए और शौकिया लेख और कहानियाँ लिखते हुए ब्रिटिश फ़िल्मकारों के साथ जुड़ गए. इस तरह हिचकॉक का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ.
लगभग तभी जब दुनिया में सिनेमा बनना शुरू हो रहा था. एक तरह से हिचकॉक उसी पाँत का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि उस पीढ़ी से कुछ लेकर नई पीढ़ी के बीच एक सेतु का काम करते हैं. इसलिए भी हिचकॉक सिनेमा इतिहास के महान निर्देशक बन जाते हैं . जब मनोरंजन, थ्रिलर और सस्पेंस का जोनर, मूक फ़िल्मों और बोलती फ़िल्मों के बदलाव, सिनेमा की भाषा में बदलाव, एक्सप्रेशनिस्ट सिनेमा से रियलिस्ट सिनेमा के बदलाव की कड़ी और ‘ऑटर थ्योरी’ के पैरोकार के रूप में हॉलीवुड में काम करते हुए यूरोपियन सिनेमा को बहुत हद तक प्रभावित करते दिखते हैं.
यहाँ यह उल्लेखनीय है और दिलचस्प भी कि शुरुआती बीस और तीस के दशक तक अमेरिका और यूरोप में सिनेमा का जो चेहरा था उसमें अभिजात्य वर्ग का आकर्षण था. साथ ही पेंटिंग के कई वाद भी सिनेमा को प्रभावित कर रहे थे. शैलीगत प्रयोगों में फ़िल्मकारों के पास वही कविताई और साहित्यिक ट्रीटमेंट, पेंटिंग के प्रभाव, थोड़े बहुत राजनीतिक मुद्दे और स्टुडियो तर्ज वाले अवास्तविक किरदार और घटनाक्रम थे. सिनेमा अपनी शैली और भाषा विकसित करने की जद्दोज़हद में था. हिचकॉक ने सिनेमा माध्यम से आकर्षण को अपनी तरह की भाषा और सोच दी. किरदार भी विकसित किए और उसमें रहस्य के साथ कथा को लेकर उसे किनारे तक पहुंचाने का काम भी किया.
हालांकि, चालीस के दशक तक यानि लगभग पैंतालीस सालों तक आते-आते ऑस्कर, वेनिस, कान जैसे समारोह और सिनेमाई स्वरूप सामने आ ही चुके थे. बोलती फ़िल्मों ने क्रांतिकारी परिवर्तन सिनेमा के स्वरूप में कर दिया था. पर रियलिस्टिक सिनेमा तब तक अस्तित्व में नहीं आया था और ऐसे समय में सिनेमा अपने अस्तित्व को खोज ही रहा था. हिचकॉक ऐसे दौर के प्रतिनिधि फ़िल्मकार रहे और जब इतने परिवर्तन हो रहे थे, वहाँ अपने मन की कहना और उसे फ़िल्म माध्यम तक पहुंचाना, यह अपने आप में उनकी जीनियस ही थी.
यहीं से सिनेमा ने कुलीन होने का भ्रम तोड़ते हुए दर्शक तक अपनी पहुँच बनाई. वहीं, इंटेलेक्ट की खोज में भटक रहे यूरोपियन सिनेमा को ‘ऑटर थ्योरी’ तक पहुंचाया. जिसकी नींव हिचकॉक ने ही रखी. सिनेमा के इस खोजी समय के साथियों और फ़िल्मकारों में डी डब्लू ग्रीफ़िथ, एफ डब्लू मोरन्यू, सरजेई आसेन्सटीन, चार्ली चैप्लिन, फ्रिट्ज़ लैंग, बस्टर कीटन, वॉन स्टनबर्ग, पुडोवकिन, जीन रिनो, जॉन फोर्ड, अर्न्स्ट लुबिस, जीन विगो, ओज़ू, जैसे नाम थे.
थोड़ा आगे बढ़ते हुए ऑरसन वेल्स, बिली वाइल्डर, रोसेलिनी जैसे नाम भी जुड़ जाते हैं. पर यहाँ तक भी सिनेमा में कुछ-कुछ मिसींग था. हालांकि, ‘सिटीज़न केन’ ने सिनेमा को नई भाषा ज़रूरी दी थी पर विश्व सिनेमा की मेरी समझ से मुझे सबसे क्रांतिकारी फ़िल्म 1948 की विटोरियो दे सिका की ‘बाइसिकल थीव्स’ ही लगती है जिसके बाद सिनेमा का इतिहास बदल गया. बस यहीं हिचकॉक और बाक़ी फ़िल्मकार अलग हो जाते हैं जहां उनके काम करने के लगभग तीस सालों के बाद सिनेमा का चेहरा बदलने लगा और उसकी पहुँच व्यापक हुई.
अपनी धुन की फ़िल्में बनाते हुए यहाँ से न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत हुई और जो बाद में इटैलियन निओ रियलिज़्म से होता हुआ फ्रेंच न्यू वेव तक पहुंचा और उसके बाद पूरी दुनिया में फैल गया. फ्रेंच न्यू वेव के फ़िल्मकार और आलोचक फ़्रांकों त्रुफ़ो, क्लॉड शैब्रोल, एरिक रोमर ने हिचकॉक की सिनेमाई तकनीक, भाषा और प्रयोग से ‘ऑटर’ की व्याख्या निकाली जो बाद में नए सिनेमा की बुनियाद बनी.
हिचकॉक की सिनेमाई शैली पर बहुत सारी बातें हो सकती हैं और ज़रूरी भी नहीं कि हर बार उसी एंगल को पकड़ा भी जाये. बहुत से पहले में वो अभिनेता को टूल के रूप में निर्देशक द्वारा प्रयोग करने के पैरोकार थे. अभिनय की मैथड शैली को भी उन्होंने अपने लिए अनुपयोगी ही माना और परफ़ोर्मेंस को मुख्य माना. ‘मैग्कफ़िन’ जैसे सिनेमाई डिवाइस को उन्होंने प्रयुक्त किया जिसे आने वाले समय में फ़िल्मकारों ने अपनाया.
वोयूरिज़्म (दर्शनरति) का जो मतलब उनकी फ़िल्मों ने खोजा वह आश्चर्यजनक रूप से अद्भुत है जिसने सिनेमा जैसे इंटरप्रिटेटिव माध्यम को नए मायने दिये. प्रसिद्ध स्थानों/पर्यटक स्थलों को पार्श्व का हिस्सा बनाना और अपनी फ़िल्मों में ‘कैमियो’ रोल करना भी हिचकॉक के खाते में दर्ज होने वाली उपलब्धि है.
एक फ़िल्मकार के रूप में हिचकॉक का यह योगदान उसी क़द का माना जा सकता है जो अभिनय के लिए चार्ली चैप्लिन का है. इस मायने में हिचकॉक का योगदान बहुत बड़ा है जिसने फ़िल्मकारों के लिए अपनी तरह की कहानियों वाला संसार खोला. विश्लेषण, तकनीक, कहानी, अभिनय, ट्विस्ट, प्लॉट, फ़िल्मों पर तो बात होती रहेगी और वे अभी आने वाली कई सदियों तक याद आते रहेंगे. क्या ही अच्छा हो कि अपनी-अपनी पसंद की हिचकॉक की कोई सी फ़िल्म देखी जाये और उसका मज़ा लिया जाये! क्योंकि इसी मज़े के आसपास चरित्रों से एल्फ़्रेड हिचकॉक संवाद करना चाहते थे.