१३१६६६ … देवनागरी में लिखा होने के कारण इसे पढ़ने में थोड़ी दिक्कत हुई होगी, ये एक लाख इकत्तीस हज़ार छह सौ छियासठ (131666) लिखा है. आंकड़ा है, बिलकुल वैसे ही जैसे एक मौत दुखद घटना होती है और लाख मौतें एक आंकड़ा. ये 2014 में नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो का जारी किया हुआ देश भर की आत्महत्याओं का आंकड़ा है. किसानों की खुदख़ुशी की फर्स्ट पेज हैडलाइन और प्राइम टाइम बहसों को देखते-देखते आपको पता नहीं चला होगा कि देश में एक लाख तीस हज़ार से ज्यादा लोग साल भर में आत्महत्या कर लेते हैं. इसमें से करीब नब्बे हज़ार पुरुष थे.
जैसा की पेड मीडिया आम तौर पर साबित करना चाहती है, वैसे हर रोज़ किसान आत्महत्या नहीं करता, इसमें कई पेशों के लोग हैं. पॉलिटिकली करेक्ट रहने का लिहाज ना रखें तो ये भी बताना होगा कि भारत में विवाहित पुरुषों के आत्महत्या की संभावना, अविवाहितों की आत्महत्या दर की तुलना में लगभग दोगुनी है.
आत्महत्या के कारणों को देखेंगे तो विवाह सम्बंधित समस्याओं की वजह से आत्महत्या करने वालों में से जहाँ करीब 34.8% पुरुष थे, वहीँ महिलाएं 65.1% हैं. ये आई.पी.सी. की धारा 304 B की वजह से होता है. इसके मुताबिक अगर किसी भी स्त्री की मृत्यु उसकी शादी के सात साल के अन्दर होती है तो उसे दहेज़ का मामला मान कर जांच शुरू की जायेगी. इसलिए विवाहित महिलाओं की सारी आत्महत्याएं इसी में दर्ज होंगी, फिर कभी 12-15 साल जेल काटकर, मुकदमा लड़कर जब पुरुष बाहर आएगा तो आत्महत्या को उसकी सही जगह दर्ज किया जायेगा.
समाजवादी कोढ़ का एक नमूना हर रोज़ सड़कों पर सबने देखा होगा. अगर पैदल और मोटरसाइकिल वाले की टक्कर हुई है तो गलती हमेशा मोटरसाइकिल वाले की मानी जाती है. जब मोटरसाइकिल वाले की कार से टक्कर हो जाए तो गलती कार वाले की मान ली जाती है.
असलियत में इस बात की पूरी संभावना होती है कि पैदल चलने वाला बिना देखे (मोबाइल पर गप्पें मारते) सड़क पार कर रहा था और मोटरसाइकिल से टकराया, या फिर गलत साइड से ओवरटेक करने के चक्कर में मोटरसाइकिल वाले को धक्का लगा है. सन 2013 के आंकड़ों के मुताबिक़ धारा 304B (IPC) में चार्ज शीट होने की दर 94% है, औसतन हर मामले में तीन लोग तो गिरफ्तार होते ही हैं. इसमें आरोप सिद्ध होने की दर 32.3% की है, यानि हर तीन गिरफ्तार, जेल में सड़ रहे लोगों में से दो बेगुनाह हैं.
18 से 30 की उम्र में आत्महत्या करने वालों में से 72% लोग पुरुष थे, 30-45 आयु वर्ग में 72% पुरुष थे, और 45-60 आयुवर्ग के आत्महत्या के मामलों में 80% पुरुष हैं. ये गिनती इतनी ज्यादा भी इसलिए है क्योंकि भारत में एक धारा 498 A भी होती है. हाल में इसे नॉन बेलेबल से जमानती बनाए जाने पर थोड़ी सुविधा तो हुई है. लेकिन ऐसी करीब दर्जन भर धाराएं हैं, जिनके बारे में सब जानते हैं कि ये ब्लैकमेलिंग की धाराएँ हैं.
कुछ साल पहले जब 2007 में आई.पी.सी. की धाराओं में कन्विक्शन रेट 42.30% था तो इस ब्लैकमेल की धारा 498A में कन्विक्शन रेट 21.2% थी. थोड़े साल बाद 2013 में जब आई.पी.सी. की धाराओं में कन्विक्शन रेट 40% के औसत के लगभग थी तो इस फर्जी मामले 498A में कन्विक्शन रेट 15% थी.
पुरुषों की आत्महत्या की ऐसी वजहों की जब चर्चा चलती है तो अचानक मुग़लिया भक्ति युग की मानसिकता वाले कूदते हैं. सेमेंटिक मजहबों के प्रभाव से उन्हें लगने लगा है कि जैसे सबका गॉड-अल्लाह एक है वैसे ही सबकी आत्महत्या कायरता है.
उनकी इस मूर्खता के पीछे एक और कारण भी होता है. पचपन की वय पार कर चुके इन ठरकी बुड्ढों को महिलाओं का पक्ष लेकर उनके “सही बात” की छोटी सी टिप्पणी पर स्खलित भी होना होता है. धूप में बाल पका चुके ऐसे लोग आत्महत्या को भी बच्चे के चलना सीखने में गिर जाने जैसा ही मामला समझते हैं. जैसे बच्चे को गिरने पर “कुछ नहीं हुआ, बहादुर बच्चा” या फिर “दरवाजे ने चोट लगाई, चलो दरवाजे को पीटते हैं” कहकर बहलाया जाता है, वैसा ही रटा-रटाया जुमला “आत्महत्या कायरता है” बोलकर ये खुद का मूर्ख होना भी सिद्ध कर लेते हैं.
शादी के नतीजों में हुई आत्महत्या को आंकड़ों के बदले घटना में बदल जाते बिहार वासियों ने ताजा-ताजा देखा है. सन 2012 के बैच के आई.ए.एस. मुकेश पाण्डेय थोड़े दिन पहले तक कटिहार के डी.डी.सी. थे और हाल में ही पदस्थापित होकर वो बक्सर के डी.एम. बने थे. उन्होंने दो दिन पहले आत्महत्या कर ली है.
मरने से पहले उन्होंने दिल्ली के एक होटल के कमरे में लम्बा सा सुसाइड नोट छोड़ा, एक विडियो भी रिकॉर्ड कर के अपने फोन में छोड़ा. आम सरकारी अफसर की खडूस सी शक्ल से कहीं अलग, मृदुभाषी और हँसते मुस्कुराते से पाए जाने वाले मुकेश पाण्डेय की शादी पटना के एक बड़े व्यावसायिक घराने में हुई थी.
शादी के कुछ ही दिन बाद से पति-पत्नी अलग अलग भी रहते थे. विवाहितों को, ‘बच्चे हो जाएँ तो सम्बन्ध सुधर जायेंगे’ की अखंड बेवकूफी वाली सलाह देने वालों को बता दें कि उनकी एक छोटी सी कुछ महीने की बच्ची भी है (बच्चे होने पर संबंध सुधर जायेंगे की सलाह मूर्खतापूर्ण है).
ज्यादातर लोगों को पता नहीं होता कि हँसता-मुस्कुराता सा आदमी मन ही मन आत्महत्या की योजना बना रहा है. इकलौता आसान सा लक्षण होता है कि वो अपनी प्रिय चीज़ें उठा कर दान करने लगे. आई.ए.एस. के एग्जाम में सेलेक्ट होने वाले और डी.एम. की नौकरी करने वाले की राजनैतिक और अन्य दबाव झेलने की आदत होती है.
ये नहीं कहा जा सकता कि मुकेश कमजोर थे. सोचना ये चाहिए कि पूरे जिले का सरकारी महकमा संभालने वाले डी.एम. को जहाँ आत्महत्या के सिवा विकल्प नहीं सूझता, वहां किसी गरीब-साधारण से, बिना किसी रसूख, जान पहचान वाले आदमी की क्या हालत होती होगी?
बाकी तो ये पॉलिटिकली इनकरेक्ट तथाकथित स्त्री विरोधी सवाल भी है, वाह-वाह भी इसपे शायद ही सुनाई दे. किसान, दलित, जैसा कोई राजनैतिक वोट बैंक का मसला भी नहीं. इस साल शायद आत्महत्याओं का आंकड़ा डेढ़ लाख का भी होगा, उन्हीं आंकड़ों में एक लाश मुकेश पाण्डेय की भी जोड़ लीजिये.