श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर शियाओं के प्रस्ताव को लेकर मुझे इतना ही कहना है कि यह खुश होने की बात नहीं है, मामले को उलझा कर समय व्यतीत करने की चाल हो सकती है. सब से पहले यह समझ लें कि इस विवाद से शियाओं को ब्रिटिशों ने 1946 में बेदखल किया था कि आप का इस विवाद से कोई वास्ता नहीं. हालांकि मस्जिद मीर बाकी ने बांधी ही मानी जाती है.
सत्तर साल हो गए, देश में सत्ता पलट हो गया, यह केस चलता रहा, 1992 के बाद तो काफी चर्चा में भी रहा, शिया सोया रहा. आज अचानक जागकर ये कहने लगे हैं कि हिंदुओं को मंदिर वहीं बनाने दो? जब कि आज इनकी इस केस में कोई जगह, कोई हैसियत है नहीं और इनकी मांग है कि उन्हें इस केस में तीसरी पार्टी बनाया जाये.
सब से पहले यह होगा कि सुन्नी इनको तीसरी पार्टी बनाने पर ही बखेड़ा खड़ा करेंगे. केस का स्वरूप ही बदलेगा और इस बखेड़े को ही सुलझाने में लंssssssबा कालहरण होगा.
शुजाउद्दौला शिया था, अब्दाली सुन्नी, लेकिन उसने मराठों के विरोध में अब्दाली का साथ दिया था. अभी कल परसों भी एक उदाहरण देखा ही है हम सब ने. काफिर को जीतने नहीं देना है इसके लिए ये एक होते जाते हैं यह तो पता है ही. क्या यह भी ऐसी ही एक चाल नहीं लगती?
वैसे शिया प्रस्ताव को देखने का एक और भी नज़रिया है. लेकिन बहुत किन्तु, परंतु वाला है. उनको 1946 में मामले से बाहर किया था ब्रिटिशों ने, और ब्रिटिशों की इस देश के प्रति नीयत कोई अच्छी नहीं थी.
तो कोर्ट निर्णय लेकर कहे कि चूंकि बाबरी मस्जिद शिया मुसलमान मीर बाकी ने बनवाई थी तो इस मामले में पार्टी होने का शिया का ही हक़ बनता है और उन्हें पार्टी बनाए और सुन्नियों को बाहर कर दे.
फिर शियाओं का प्रस्ताव मानकर मंदिर वहीं बना दें. लेकिन ऐसा निर्णय लेने को दम चाहिए होता है. कोर्ट में, सरकार में भी, क्योंकि सरकार को इस निर्णय का साथ ताकत से देना होगा.
और ज़रा ये बताएं, अगर मूल मालिक को ही हक लौटाना है तो वैसे भी मंदिर तोड़कर ही मस्जिद बांधी है एक बाहरी आक्रांता ने. दम की ही बात है तो यही सच सीधा स्वीकार कीजिये, क्या मालिक को घर से भगाकर काबिज बन बैठा लुटेरा या उसके वंशज को मालिक माना जाये?