आजकल कई राष्ट्रवादी भाइयों को एक अवर्णनीय नैराश्य के प्रकोप से फेसबुक से दूरी बनाने का मानस बनाते देखकर व्यथित हूँ, एक छोटा सा प्रयास किया है उन्हें संबोधित करते हुए उनका आह्वान करने का…..
तस्मात उतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ।।
बीच रणभूमि में कहो! कब संभव विश्राम हुआ,
जब जब हृदय विचलित हुआ स्वपक्ष का काम तमाम हुआ,
जब भी हाथ रुका अर्जुन का प्रत्यंचा गांडीव की टूट गई,
आवक्ष उपस्थित विजयश्री कंठवरण से छूट गई,
निर्निमेष रहो है अर्जुन! क्या अवकाश विचार करते हो,
जब निशस्त्र लड़ रहे हो अभिमन्यु तुम संशप्तको संग विचरते हो!!
यही तीर्थ है, यही हिमालय, यही भागीरथी सकल बहती है,
शत्रु के उष्ण रूधिर में कर तर्पण संस्कृति अमर रहती है.
स्मरण रहे सदा कैसे वे पांचाली के मानभंग को आसन्न हुए,
जब भी तुम धर्मबद्ध हो मौन रहे, वे दबंग दुष्ट दु:शासन हुए…
युद्ध कभी अभीष्ट नहीं होते जिनके हृदय में करुणा होती है,
फिर भी जो लड़े जनहित में उनके मुखमंडल पर अरुणा होती है.
भीष्म भी वध्य है, द्रोण भी वध्य है, फिर कहो कर्ण क्यों जीवित है,
शरसंधान सदा अविरल हो शत्रु पर इसमें ही धर्म समाहित है.
उठो पार्थ! अब गांडीव उठाकर “देवदत्त” का उदघोष करो,
अश्वत्थामा तक कोई बचे ना, तब जाकर ही संतोष करो.
शत्रुंजय कर सर्वविधि से पूर्णाहुति का संकल्प धरो,
अरिविहीन कर दो धरती को परशुराम सम युद्ध करो.
जब जब जन्मेजय के हाथों नागयज्ञ आहूत हुआ,
बच ही गया तक्षक कोई जो फिर डंसने को प्रस्तुत हुआ.
मत चूको “पृथ्वी” इस बार कि विजय सर्वदा जरूरी है,
ना क्षमा करो ना मौन धरो, दुष्टदलन धर्म की धुरी है.
खड्ग उठाओ या तूलिका पर देखो ऐसे आग उगलते हो,
भस्म करने भस्मासुर को जैसे महारुद्र तांडव करते हो.
बिना जलधि को मथे कहो! कब संभव अमृतपान हुआ?
जब जब हृदय विचलित हुआ, स्वपक्ष का ही नुकसान हुआ.