जाते तो हम हैं बाज़ार, बाज़ार तो घुस नहीं आता घर में. बाज़ार मतलब व्यापार और मुनाफे की कोशिश. हर व्यापारी का अधिकार, और दायित्व भी है व्यापार बढ़ाने की कोशिश और यथासंभव मुनाफा कमाना. दायित्व यूं कि बढ़ती अर्थव्यवस्था भी तो एक पैमाना है विकास का.
तो हर त्यौहार पर ही क्यों, हर अवसर पर होने दीजिए न बाज़ारवाद को हावी. हमें क्या फर्क पड़ता है, हम जो बाज़ार का मतलब सब्ज़ी मंडी, गल्ला मंडी और बच्चों की स्कूली किताबें और ड्रेस, बस इतना ही समझते हैं.
त्यौहार, टीवी देख कर मनाते हों तो ज़रूर आत्मग्लानि होती होगी, अपनी परंपरा अनुसार मनाने में आज भी क्या दिक्कत है.
पूरे साल भर मेरी कलाई पर बंधी रहने वाली राखी, कोई डिज़ाइनर राखी या चाइनीज़ राखी तो नहीं हो सकती, एक साल तक टिकेगी ही नहीं. साल भर मतलब, इस राखी से अगली राखी तक.
सो, बांधने वालियां जानती हैं कि रक्षा के किस बंधन में बांधी जा सकती है ये कलाई… सूत से ज़रा ही अलग होते हैं ये धागे… जिनमें कुछ मनके (beads) पड़े होते हैं, ना भी हों तो कोई दिक्कत नहीं.
मुंह भी मीठा कराया जाता है… कराओ न यार, मीठा तो अपनी कमज़ोरी है… पर न मिठाई की दूकान जाने की ज़रुरत है और न अमिताभ बच्चन के ‘कुछ मीठा हो जाए’ वाले विज्ञापन से प्रभावित होने की… बेसन के सेव बनाने आते हैं न, बस उन्हें गुड़ की चाशनी में पाग दे न यार… हो गई मिठाई तैयार…
अब इसके बाद क्या बचा??? माथे पर लगाने वाली रोली और रूमाल, और हाँ नारियल भी… ठीक है ये तो, अपने जीवन में कभी अपने लिए रूमाल खरीदे हों, मुझे याद नहीं… और रहा नारियल… अब क्या सारा बाज़ारवाद नारियल के मत्थे मढ़ोगे? नारियल है, तुम्हारा ही मत्था फूट जाएगा 🙂
हो गई राखी, मन गया रक्षाबंधन… अब यही बाज़ारवाद वाला जुमला दीपावली पर उछालना, तब दीपोत्सव मनाने का अपना तरीका भी बता दूंगा… हाँ, अभी के लिए एक आखिरी बात… राखी बंधवाने के बाद बहन के हाथ में कुछ रखें, न रखें… उसके पांव छुएँ, न छुएं… उसके सर पर ज़रूर हाथ रखिएगा… हर तरह से सक्षम होने के बाद भी बहनों को आज भी आपके जैसे भाइयों के संबल की ज़रुरत है.