चलो अंधविश्वास पर कुछ और बातें करते हैं. 1965 के पाकिस्तान युद्ध में हम जोधपुर में रहते थे. बॉर्डर पर चलने वाले गोला बारूद के अलावा अगर सब से ज्यादा बम कहीं फेंके गए थे तो वो दो जगह थीं, जोधपुर और अमृतसर. बड़ा भयानक और हम बच्चों के लिए रोमांचक वातावरण था. स्कूल बंद, गरमागरम जंग की चर्चाएं और मोहल्ले भर की महफ़िलें.
आज भी उस समय को याद करता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. घर के बाहर हम दोनों भाइयों और पिताजी ने मिलकर खाई खोदी थी. रात में सारे मोहल्ले वाले अपनी खाइयों के आसपास दरी या खाट बिछाकर बैठ जाते और तरह-तरह की अफवाहों पर चर्चा करते.
अचानक बिजली गुल हो जाती. शहर अँधेरे समुद्र में डूब जाता और सायरन की आवाज गूँज उठती. साथ ही एक जीप लाउडस्पीकर पर घोषणा करते हुए मोहल्लों में घूमती थी. ‘सावधान, दुश्मन का जहाज हमारे बिलकुल ऊपर है. घरों से बाहर निकल जाएँ. सावधान, खाइयों में शरण ले लें’.
उसकी आवाज़ और आसमान में गड़गड़ाते जहाजों की आवाज़ इतनी डरावनी लगती जैसे ये जिंदगी की आखिरी ध्वनि हो. जब हमला होता तो हम सब खाइयों में दुबक कर बैठ जाते.
तभी भयानक धमाके और पूरे आसमान को लाल करती दहकती लाल रोशनी से ऑंखें चौंधिया जातीं और हम कबूतर के बच्चे की तरह खाई में साँस रोककर बैठ जाते. अनेक धमाकों के बाद फिर सायरन बजता और लाउडस्पीकर की आवाज आती ‘खतरा टल गया है. दुश्मन के जहाज चले गए हैं’.
खैर शायद विषय से भटक गया हूँ. हमारे पड़ोस में एक खांटी मारवाड़ी ‘रावणा राजपूत’ जाति के गणपत जी रहते थे. हफ्ते में किसी भी दिन उसके सर पर देवी सवार हो जाती और खेल शुरू.
वो अपने लम्बे बाल चेहरे पर बिखेर कर अपना शरीर जोर-जोर हवा में लहराता. कभी सर और दोनों हाथ जमीन पर दे मारता, कपडे फाड़ लेता और लाल-लाल आँखों को अजीब तरीके से घुमाता कि बच्चे डरकर भाग जाते.
तब उसकी पत्नी या कोई अन्य पूछता – “कांईं मांगे, कांईं मांगे” (क्या मांगे). कभी जवाब मिलता – ‘लाडू पेड़ा, लाडू पेड़ा’. तुरंत लड्डू पेड़े मंगाए जाते और देवी को समर्पित किये जाते जिन्हें बाद में गणपत जी उड़ाते थे.
महीने में एक आध बार डिमांड अलग होती. ‘कांईं मांगे, कांईं मांगे’. जवाब मिलता – ‘दारू बकरा’. फिर एक बकरा मंगाया जाता और ठाकुर साहब नाचते-नाचते तलवार के एक वार से बकरे की गर्दन उड़ा देते. तब हम बच्चे चीखते हुए घर भाग जाते.
इधर सायरन बजा, घोषणा हुई. जोधपुर सन्नाटे में डूब गया और उधर गणपत जी का ड्रामा चालू था. सब घबराये. गणपत जी लोकल, दबंग जाति के कुछ जादू टोने वाले शख्स थे, सो पंगा कौन ले.
तब पिताजी हमारे पड़ोसी अरोड़ा जी और पुष्करणा साहब को लेकर पुलिस के पास गए और वृतांत बताया. जब जबर मूछों वाले दरोगा जी आये तो गणपत का ड्रामा पूरे शबाब पर था. आग जल रही थी. ढोल बज रहा था और गणपत जी नाच रहे थे.
दरोगा ने गणपत की गिरेबान पकड़ी और घसीट कर बाहर खड़ी जीप के पास ले आये और फुसफुसाकर कान में कहा “जब तक जंग चल रही है ये ड्रामा नहीं चाहिए वर्ना उठाकर बंद कर दूंगा”. ढोलक बंद हो गया. आग बुझा दी गई. गणपत जी शांत होकर दाल रोटी खाकर सो गए. फिर कभी हमने वो मंजर देखा नहीं. कहाँ गई देवी, कहाँ गई चुड़ैल.