रिश्तों में दोस्ती तत्व की अहमियत

सुबह की चाय और विचार प्रवाह… चाय वो भी बॉन चाइना के कप में… विचार प्रवाह जा रहा है मिट्टी से बने कुल्हड़ से बॉन चाइना तक के तय सफर की अनुभूतियों की ओर… यद्यपि जो फर्क हुआ वो चाय की क्वालिटी और बनाने के तरीके का असर है…

मेरा प्रवाह शीतल जल धारा से उष्ण विचारों की तपिश की ओर खिंचा जा रहा है. कुल्हड़ का वजूद लगभग मिट चुका ये ही दंश चुभ रहा है इंसानी वज़ूद के लिए. जिह्वा में उभर रहा है, इंसानी वज़ूद के लिए रिश्ते बेहद ज़रूरी थे, है और रहेंगे…

स्थापित मूल्यों की अनिवार्यता थी. पर अब इस के बजाय लचीला होना होगा, माँ-बाप के रिश्ते को, पति-पत्नी के रिश्ते को, बहू-बेटी के रिश्ते को, पारिवारिक रिश्तों को, दोस्ती के रिश्ते को, मनुवादी संस्कृति के रिश्तों को, मालिक नौकर रिश्तों को, सभी को लचीला होना होगा, कोई गुलामी के लिए तैयार नहीं.

और हो भी क्यों? जितना खीचेंगे उतना टूटेंगे. आज व्यक्ति का विकास चरम की ओर है. एक का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व से उत्तर दक्षिण है. हमें दूसरे को उसकी नज़र से देखना, समझना होगा, उसे सुनना होगा, अच्छा श्रोता होना होगा, सिर झुका कर आज्ञा मानने के संस्कृति विलोपित हो रही है.

रिश्तों में दोस्ती तत्व की अहमियत बढ़ रही है. हर माँ बाप को अपने बच्चों से दोस्ती करनी और निभाने की कला में पारंगत होना है. तभी बच्चे निर्भय हो कर वह सब कुछ कह सकेगा जिसे कहने को वह एक गहरे दोस्त के रूप में किसी लड़की या लड़के की तलाश करता है. मेरे माता पिता ने रिश्तों को जो प्रेम दिया वो अनुवांशिक, कुदरती था और है, जैसे पहाड़ से झरना नीचे आता है, नदी ऊंचाइयों से धरातल की ओर बहती है. हमें समझना होगा इस तत्व को. बिना मांगे देना, मांग की और प्रेम खत्म.

पर आज ज्यादतर हम माँ-बाप, बच्चों की आलोचना करते हैं. ये ठीक नहीं. आज का बच्चा अपने से मुठभेड़ कर रहा है. उसका साथ देना होगा. उसको सुनना होगा. उसकी नज़र से उसकी दुनिया को देखना होगा. उसे समझना होगा.

याद आता है हमारा और उससे पहले का ज़माना… भारी अंतर है.. स्वीकारना होगा… साहस करना होगा. सभी प्राचीन संस्कृतियां माँ बाप के आदर को स्थापित करती हैं. इसके लिए समूची संस्कृति का वातारण चाहिये. पर संसार चलायमान है, ये सिद्धान्त यहाँ भी काम करता है. आदर की जगह प्रेम दोस्ती को देनी होगी, बेशर्त प्रेम का प्रवाह रिश्तों को सचेतन करेगा.

……बस आज इतना ही, इस प्रवाह से मैं स्वयं को भी किनारे पर लेता हूँ… विश्राम के लिये…

– सत्येन्द्र शर्मा

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