मोदी नहीं, चीनी राष्ट्रपति के भविष्य पर प्रश्नचिह्न है डोकलाम में सैन्य तनाव

भूटान की सीमा के डोकलाम क्षेत्र को लेकर चीन व भारत में जो सैन्य तनाव बना हुआ है उस पर काफी समय से लिखना चाहता था, लेकिन इस मुद्दे के इतने आयाम हैं कि इसके वास्तविक परिणामों को लेकर बहुत सटीक भविष्यवाणी करना मेरे बस की बात नहीं है. इसलिये यह लेख बहुत बड़ा हो गया है और यह सिर्फ उनके लिये है जिनमें पढ़ने और समझने का धैर्य है.

जब से भूटान की सीमा पर चीन से टकराव हुआ है तब से पाकिस्तान और स्वयं भारत में विपक्षी दलों में यह उम्मीद की जा रही है कि सीमा पर यह टकराव, चीन और भारत के बीच एक सीमित युद्ध के रूप में परिवर्तित होगा. जहां तक पाकिस्तान की उम्मीद का सवाल है वह बड़ा स्वभाविक है क्योंकि चीन-भारत के किसी भी युद्ध से उसे कश्मीर में और उससे लगी एलओसी पर उसे राहत मिलती हुई दिख रही है, वहीं भारत में जो इस युद्ध के अभिलाषी है वह इस युद्ध में चीन की विजय के भी अभिलाषी है क्योंकि मोदी जी के नेतृत्व में भारत की हार में ही उनको अपना राजनैतिक भविष्य दिख रहा है.

अब सवाल यह है कि क्या वाकई, चीन भारत पर, भूटान सिक्किम सीमा पर आक्रमण की कार्यवाही करेगा और करेगा तो वह क्या भारतीय विपक्षी दलों और पाकिस्तान की अपेक्षाओं को पूर्ण कर पायेगा?

मेरा अपना आंकलन है कि जो सीमा पर हुआ या हो रहा है उसको चीन की विस्तारवादी नीति से पृथक देखना चाहिये. यह जो डोकलाम को लेकर चीन से सैन्य तनाव बढा है वह कुछ अवधारणाओं के आधार पर चीन द्वारा लिया गया फैसला है जिसमें भारत का कोई योगदान नहीं है. जब से 2014 में भारत में नेतृत्व परिवर्तन हुआ है तभी से चीन की दीर्घकालिक योजनाओं, खास तौर से एशिया महाद्वीप के सन्दर्भ में, प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है.

भारत के नेतृत्व की आक्रामक कूटनीति, वैश्विक जगत में विभिन्न राष्ट्रों से नए बनते आर्थिक व सामरिक संबंध व चीन की विस्तारवादी नीति को घेरने के दुस्साहस ने चीन को यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि समय रहते, यदि भारत को नहीं रोका गया और उसके नेतृत्व की राजनैतिक इच्छाशक्ति को कसौटी पर नहीं जांचा गया तो वह कल चीन के विश्व का सर्वशक्तिशाली राष्ट्र बनने के सपने को चुनौती देगा.

इसी लिए इस बार चीन ने लद्दाख या अरुणाचल से लगी सीमा को न चुनकर, भूटान की सीमा को चुना है, जहाँ वह सामरिक रूप से भारत के लिए खतरा बन सकता है. चीन ने यह जगह खास तौर से इसलिये चुनी है ताकि वह बिना भारत की सीमा को छुये, अंदर तक घुस आये और भारत द्वारा OBOR को न स्वीकार करने की सज़ा दी जा सके.

इसी के साथ चीन, भारत की राजनैतिक इच्छाशक्ति की भी टोह लेना चाहता था. चीन यह मान कर चल रहा था कि भारत भूटान के साथ हुई सन्धि को लेकर सीधे अपनी सेना को न डाल कर, राजनयिक चैनल्स का उपयोग करेगा और अपना विरोध दर्ज करायेगा.

भारत का त्वरित सैन्य विकल्प का प्रयोग उनके लिये वास्तव में एक झटका था. जब चीन ने देखा कि मामला खिंचता नज़र आ रहा है तब भारत सरकार पर डोकलाम से पीछे हटने के लिए दबाव बनाने के लिये प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस और भारत में चीनी हितों का ध्यान रखने वाली वामपंथियों और मीडिया में उनके पोषित पत्रकारों को उपयोग किया.

उनको उम्मीद थी कि यह संयुक्त दबाव, भारत के नेतृत्व को डोकलाम में उसकी स्थिति पर फिर से सोचने को मजबूर कर देगा और चीन के इस आग्रह को कि ‘सीमा पर तनाव कम करने के लिये, भारत अपनी सेना को पहले पीछे कर ले’, को वह स्वीकार कर लेगा, जिससे चीन को बिना उसकी अन्तराष्ट्रीय छवि को धक्का लगे, पीछे हटने का मौका मिल जायगा.

लेकिन चीनी नीतिकारों के आंकलन के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. चीन के दबाव में आने के बजाय भारतीय नेतृत्व ने जहां एक तरफ डोकलाम क्षेत्र में अपनी सैन्य शक्ति का जमावड़ा बढ़ा दिया वहीं, भारतीय हितों की अनदेखी करने वालों पर कानूनी पकड़ बनाने के लिये, कश्मीर में आक्रमकता बढ़ा दी.

भारत सरकार को जो कार्यवाही नवम्बर-दिसबंर में करनी थी, वह उन्होंने तुरंत शुरू कर दी और हुर्रियत के नेताओं व उनको भारत के ही भीतर से राजनैतिक, बौद्धिक वा धन से सहयोग करने वालों पर एनआईए के माध्यम से दबाव बनाना शुरू कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि चीन के सरकारी व कम्युनिस्ट पार्टी के अखबारों ने भारत को धमकी देने के साथ अपशब्दों का भी प्रयोग करना शुरू कर दिया.

यह जो चीन द्वारा अपनी मीडिया का इस्तेमाल किया गया है वह चीन की शत्रुओं के मनोबल को तोड़ने की पुरानी मनोवैज्ञानिक युद्ध की तकनीक है. इसी बात को भारत की मीडिया में, मोदी विरोधी पत्रकारों ने अपने अंधविरोध के कारण बढ़ाया है. इन सबका परिणाम यह हुआ है कि आज की स्थिति में भारत यह विश्वास से नहीं कह सकता है कि डोकलाम को लेकर चीन से सीमित युद्ध नहीं होगा.

भारत तो खैर एक थोपा हुआ युद्ध लड़ेगा जो विपक्षी दलों की तमाम उम्मीद के बाद भी मोदी सरकार के भविष्य के लिये कोई खतरा नहीं होगा. लेकिन चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी इस स्थिति में नहीं है कि बिना भारत से सैन्य टकराव किये, बिना शर्त अपनी सीमा पर वापस आ जायें क्योंकि वह उनकी कूटनैतिक रूप से हार होगी जो कि खुद उनकी भविष्य की योजनाओं के लिए, अक्टूबर 2017 में हर पांच साल बाद होने वाली कम्युनिस्ट पार्टी के अति महत्वपूर्ण अधिवेशन को देखते हुये, खतरा होगी.

इसी पार्टी अधिवेशन में शी जिनपिंग को पांच साल के दूसरे कार्यकाल के लिये पार्टी का महासचिव और चीन का राष्ट्रपति बने रहने पर मुहर लगनी है. इसलिये शी जिनपिंग के राजनीतिक भविष्य के लिये 19 वीं पार्टी कांग्रेस की विशेष अहमियत है. इस अधिवेशन में अगले पांच साल के लिये चीन की घरेलू और विदेश नीति की दिशा भी तय की जाती है.

मेरा आंकलन है कि इस पार्टी अधिवेशन के मद्देनजर चीनी राष्ट्रपति अपने पार्टी नेताओं को ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहेंगे कि भारत के सामने चीन किसी भी तरह झुक रहा है.

इस सबका एक पहलू यह भी है कि यह युद्ध कितना सीमित युद्ध होगा और अन्तराष्ट्रीय समुदाय में यह क्या क्या प्रतिक्रिया लायेगा, इसका सही-सही आंकलन करना चीन के लिए भी बहुत मुश्किल है क्योंकि डोकलाम के मुद्दे पर भारत से झड़प, पूर्व में दक्षिण चीनी महासागर में चीन की स्थिति को और जटिल कर सकती है जिसे चीन अभी संभालने की स्थिति में नहीं है. चीन आज किसी भी युद्ध में फंस कर अपनी धीमी होती आर्थिक विकास दर को बेलगाम नहीं होने देना चाहेगा.

वैसे तो भविष्य किसी ने नहीं देखा है लेकिन मैं यह युद्ध 2025 से पहले नहीं देखना चाहूंगा क्योंकि भारत के दूरगामी हित के लिये यह युद्ध अभी टाला जाना चाहिये. वैसे एक संभावना है कि डोकलाम पर यह सैन्य तनाव चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अक्टूबर में होने वाली 19वें अधिवेशन तक वैसा का वैसा ही बना रहे और उसके समाधान की असली पहल, शी जिनपिंग के स्थिर हो जाने पर हो.

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