कृष्ण ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का पाठ नहीं पढ़ा रहे अर्जुन को, युद्ध के लिए उकसा रहे, क्यों?

Geeta Updesh

वर्तमान समय में हिन्दुओं का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे बौद्धिक जुगाली में ब्रह्मानंद सहोदर का आनंद आने लगा है. अधिकांश हिन्दुओं को अपने धर्म, दर्शन, इतिहास आदि का बेसिक ज्ञान भी नहीं है. बस कोई भी शातिर वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि से कोई सूत्र उठा ले और उसको जैसे मन हो व्याख्या करे, एक सच्चा फेसबुकिया हिन्दू उस पर लहालोट हुए बिना नहीं रह सकता. बस जरूरत है कि उसकी लेखनशैली रोचक होनी चाहिए. और हां, कुछ विद्वान हिन्दू तो लेखक की लफ्फाजी को समझ भी जाते हैं, पर क्या करें, वो इतने बड़े कला प्रेमी हैं कि वे उसकी लफ्फाजी पर ही फिदा हो जाते हैं. इस प्रकार उस लेखक की सामाजिक स्वीकृति इन्हीं बौद्धिक जुगालीबाजों के कारण बढ़ती चली जाती है और वो अपने किसी भी उद्देश्य को हासिल करने में सफल हो जाता है.

वे लोग मात्र एक सूत्र, “अयं निजः परो वेति गणानाम् लघु चेतसाम् , उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्”, को उठाते हैं और आपको असहज कर देते हैं, आपका इतना समय बरबाद कर देते हैं, आपके पूरे दक्षिणपंथी खेमे को दो गुटों में बांट देते हैं. अभी तो आपलोग एक ही सूत्र में टें कर गए हैं, ऐसे हजारों सूत्र हमारे ग्रन्थों में उपलब्ध हैं जिनकी मनमानी व्याख्यायें की जा सकती है और आपको बुरी तरह कन्फ्यूज किया जा सकता है.

हमारे धर्म ग्रन्थों में एक से बढ़कर एक महावाक्य भरे पड़े हैं जिसके सामने “वसुधैव कुटुम्बकम्” एक बहुत ही मामूली वाक्य है. इसमें यही कहा गया है कि जो व्यक्ति उदार है उसके लिए सारा संसार एक परिवार की तरह है. व्यक्ति और परिवार के संबंध में भी एक दूरी का भाव है, क्योंकि दोनों में द्वैत है. लेकिन एक महावाक्य कहता है “आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पंडितः” अर्थात जो सब में अपना ही रूप देखता है वो पंडित है. ये कितनी ऊँची बात है कि परिवार नहीं बल्कि संपूर्ण चराचर सृष्टि को अपना ही स्वरूप समझना और उसी के अनुकूल व्यवहार करना. हमारे धर्म ग्रन्थ ऐसे ही अनेकों दिव्य मंत्रों का अमूल्य भंडार हैं.

लेकिन हम ये कैसे भूल गयें कि ये धार्मिक व दार्शनिक वाक्य हैं न कि नीति वाक्य. सभी मनुष्य एक समान नहीं होते हैं. सभी व्यक्ति की प्रवृत्ति अलग-अलग है. निस्संदेह जिनके लिए नि:श्रेयस काम्य है और जो मोक्ष मार्ग के पथिक हैं वो अपना चरित्र उदार बनाकर संसार को कुटुम्ब मानें या सभी के भीतर अपने अंतरयामी परमात्मा का दिदार करें. ये उनके लिए अनुकरणीय है.

लेकिन जनसामान्य को न तो यह काम्य है और न ही उसके लिए उचित है, और वो भी तब जब वो संपूर्ण विश्व में वैवर्तवादी सामी (इस्लाम, इसाईयत & यहुदी) धर्मों का सबसे नरम चारा बना हुआ हो. जो जाति अपने अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हो, उसके लिए ये इस आपातकाल में शांतिकाल के मंत्र अनुकरणीय नहीं हैं. इसलिए हमारे ग्रन्थों ने आम आदमी के लिए नीति वाक्यों का आदेश किया है ; जैसे – “सठे साठ्यम् समाचरेत्”, “वीर भोग्या वसुंधरा” आदि. हमारे शास्त्रों की यही व्यवहारिकता और दूरदर्शिता उसे अद्वितीय बनाती है.

भगवान श्री कृष्ण धरती पर अवतरित ही धर्म की स्थापना करने के लिए हुए हैं. इसलिए वे हमारे रोल मॉडल हैं. जहाँ भी दुविधा की स्थिति होगी, हम उनका अनुसरण करेंगे. अर्जुन युद्ध से पलायन करना चाहता है. वो वसुधा को क्या खाक कुटुम्ब मानेगा, उसके तो अपने सगे कुटुम्ब सामने युद्ध के लिए खड़े हैं और वह उनके विरुद्ध युद्ध लड़ना भी नहीं चाह रहा है. वह संन्यासी बनकर भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने को तैयार है लेकिन अपने स्वजनों के विरुद्ध युद्ध लड़ने को तैयार नहीं है. भगवान उसे “वसुधैव कुटुम्बकम्” का पाठ नहीं पढ़ा रहे हैं. वो उसे युद्ध के लिए उकसा रहे हैं. यहाँ तक कि वे अर्जुन को ऐसी तीखी बात कहते हैं जिसे कोई भी वीर योद्धा सहन नहीं कर सकता. वे अर्जुन जैसे वीर को कहते हैं – “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ” अर्थात हे अर्जुन! तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो.

गीता का एक संपूर्ण दूसरा अध्याय युद्ध की प्रेरणा देनेवाला है और वो भी साक्षात नारायण के मुख से उच्चारित है. उस समय तो इस्लाम का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था कि माना जाए कि इस्लाम के प्रभाव से सनातन दूषित हो गया और उसका अवतार भी युद्ध जैसे घोर क्रूर कर्म में प्रवृत्त हो गया.

किसी भी काल में जब कोई आततायी दुर्योधन की तरह युद्धोन्माद से दहाड़ने लगता है – “सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव” अर्थात हे केशव! मैं सुई के नोक के बराबर भूमि का भाग भी बिना युद्ध के नहीं दूँगा. ऐसे में युद्ध अपरिहार्य हो जाता है. ऐसे क्षण में भगवान अर्जुन को विश्व बंधुत्व का प्रवचन नहीं देते हैं, बल्कि इससे इतर वे कहते हैं – “अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि, ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि” अर्थात हे अर्जुन! यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा.

ऐसी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध में एक अरब लोग मारे गए थे. एक अरब न भी हों, अगर इसका एक प्रतिशत भी लें तो एक करोड़ होता है. यदि इतने लोग भी मारे गए हैं तो मानना पड़ेगा कि यह एक विश्वयुद्ध था. और इसकी पूरी जिम्मेदारी भगवान श्री कृष्ण के ऊपर जाती है. इतना व्यापक जनसंहार करवाने वाले भी हमारे आराध्य हैं. उन्होंने “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:” (अर्थात् यदि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है, तो धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है) के सूत्र को अपने जीवन में जी कर हमारे सामने प्रत्यक्ष अपना उदाहरण प्रस्तुत किया, जिससे भविष्य में सनातनी किसी भी प्रकार से भ्रम की स्थिति में न रहें. लेकिन सनातनी की यही विडम्बना कि वे भ्रमित होने के लिए ही पैदा हुए हैं.

इतना बड़ा नरसंहार होने के बाद भी हिन्दू जाति को आततायी क्रूर पतित जाति नहीं माना गया. फिर आज का वर्तमान हिन्दू समाज ऐसा कौन सा कुकर्म कर दिया है या कर रहा है कि इसके लिए कोई हिन्दू-द्रोही इसे “इस्लामिक हिन्दू” शब्द जैसे गाली का प्रयोग करे. कहीं ये हिन्दुओं को वैचारिक रूप से नपुंसक बनाने का प्रयास तो नहीं? कहीं ये जागरूक हो रहे हिन्दू समाज को शब्दों के आडम्बर में गुमराह कर देने का षड़यंत्र तो नहीं?

वामपंथियों ने हमें सिखाया कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है और हम कुपढ़ हिन्दू इसका राग अलापने लगे, बिना इस पर विचार किये कि खुद इन वामपंथियों के भगवान “माओ” ने कहा था -“सत्ता का जन्म बंदूक की नाल से होता है और उसकी हिफाजत भी उसी से होगी”.

वामपंथियों को जहाँ भी सत्ता हासिल हुई, इन्होंने अपने विरोधियों का “स्टेट-स्पॉन्सरड मर्डरस्/राज्य द्वारा प्रायोजित हत्यायें” की और अपने शासन को निष्कंटक बनाया. उनका ये फॉर्मूला काफी सफल रहा. पश्चिम बंगाल में चौंतीस वर्ष का सत्ता सुख भोगने का ये सबसे हिट फॉर्मूला रहा. हमें अगर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करना है तो इस फॉर्मूला को देरसबेर आत्मसात करना ही पड़ेगा.

ये कह रहे हैं कि इन मसिजीवियों को अगर सिस्टम में समुचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं दिया गया तो ये कोहराम मचा देंगे, सत्ता की ईंट से ईंट बजा देंगे. लेकिन जहाँ-जहाँ इनकी सत्ता थी इन्होंने किसी विरोधी को उभरने नहीं दिया, उसे हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सुला दिया. हमें इनसे ये सिखना ही पड़ेगा कि बुद्धिजीवियों का मुँह जो टुकड़े फेंककर बंद कराया जाता है, वो मात्र क्षणिक उपाय ही है, परमानेंट सॉल्यूशन इन्हें शांति से सुलाना ही है.

भले ही सारे राज्यों से इनकी सरकार चली जाए, भले ही केंद्र सरकार की सत्ता में इनकी भागीदारी न हो तब भी हिन्दू राष्ट्र का मार्ग तबतक निष्कंटक नहीं माना जा सकता जबतक एक भी शब्दछली मायावी वामपंथी जीवित है. ये रक्तबीज की तरह हैं, अगर इनका समूल नाश नहीं किया गया तो ये पुन:-पुनः उत्पन्न हो जायेंगे. राज्य प्रायोजित हत्यायें आज समय की मांग है. महान अहिंसक भगवान बुद्ध ने राजनीतिक हिंसा को हिंसा नहीं माना, बल्कि वे इसे एक “आवश्यक बुराई” मानते हैं अर्थात ये एक ऐसी बुराई है जो बुराई तो है पर व्यवहारिक दृष्टि से अपरिहार्य है.

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