1980 में जब जनता पार्टी का प्रयोग फेल हो गया और पार्टी खंड-खंड टूट गयी तो इंदिरा गांधी पुनः धमाकेदार बहुमत से जीत के वापस आ गयीं. उसी काल मे पंजाब में अशांति की शुरुआत हुई.
1982 तक आते-आते, संजय गांधी की मृत्यु हो चुकी थी, राजीव गांधी एयरलाइन्स में पायलट की नौकरी छोड़ भारत लौट आये थे और इंदिरा अम्मा ने उनको पार्टी का महासचिव बना दिया था.
वो AGOC बोले तो Asian Games Organizing Committee के प्रमुख भी थे. 1982 तक जब तक कि Asian Games हुए, मुल्क खेल तमाशे में उलझा रहा. 1982 के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व की पोल खुलनी शुरू हुई.
1984 तक आते-आते मुल्क विघटन के कगार पर पहुंच गया. नेतृत्व क्षमता में विफलता की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी जान दे के चुकानी पड़ी. राजीव गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी अपनी माँ की लाश पर चढ़ के विरासत में मिली.
इंदिरा गांधी की हत्या और सिख समाज के कत्लेआम से उपजी परिस्थितियों के कारण राजीव गांधी को अपने पहले चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला. कुल 408 सीटें.
अगर इंदिरा गांधी 1984 में मारी नही जाती तो उस साल होने वाले आम चुनावों में कांग्रेस का चुनाव हारना तय था. इंदिरा ने अपनी जान दे के अपने बेटे को राजनीति में सेट किया.
इंदिरा और राजीव… दोनों में राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता नही थी. दोनों ने भीषण गलतियाँ की. दोनों को इसकी कीमत अपनी जान दे के चुकानी पड़ी.
किसी राष्ट्र का नेतृत्व जब नाकाम होता है तो उसकी कीमत मुल्क को सदियों तक चुकानी पड़ती है. गांधी और नेहरू की नाकामी की कीमत हम आज तक चुका रहे हैं.
1984 की 410 सांसदों वाली कांग्रेस आज 44 तक आ गिरी है. 1984 में जहां लगभग पूरे मुल्क में, लगभग हर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, आज वही कांग्रेस लुप्तप्राय है.
410 से 44 और अब 4 सांसदों तक का सफर कांग्रेस ने कोई एक दिन में तय नहीं किया. इस सफर में 30 साल लगे. घटिया नाकारा नेतृत्व के कारण ही कांग्रेस की ये दुर्गति हुई.
कल राहुल बाबा ने अपनी गाड़ी पर पत्थर फिंकवा के सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश की. कांग्रेस जितना नीचे गिर चुकी है उसे वापस ऊपर खींचने के लिए सिर्फ लात, मुक्का, घूंसा, थप्पड़ या पत्थर खा के काम नहीं चलेगा.
जैसे इंदिरा ने जान दे के अपने बेटे को सेट किया उसी तरह सोनिया जी को भी अपनी बलि देनी होगी. तब जा के 44 का स्तर बरक़रार हो पायेगा वरना 2019 में कांग्रेस का 4 पर जाना तय है.