अर्ध-विक्षिप्तों! राष्ट्रवाद और हिंदुत्व में अंतर तो बताओ

फेसबुक की आभासी जमीन के दक्षिणपंथी आकाश पर कुछ दिन पूर्व एक नया ‘वामपंथी’ सितारा उदित हुआ है. ‘कुपढ़ दक्षिणपंथियों’ (माफ़ कीजिये पर ये शब्द मेरे नहीं है) को लग रहा है कि बौद्धिकता से सूने पड़े उनके आँगन में ज्ञान की किरणें साकार हो कर उतर आईं हैं. कल उस ‘सितारे’ की पोस्ट पर गया तो ‘लाइक’ और ‘लव सिंबल’ बनाकर अपना प्यार दर्शाने वाले लगभग सब लोग वही थे जो दक्षिणपंथ के भी सिपाही बनते हैं. इस सितारे को देखकर ‘तू ही तो मन्नत मेरी, तू ही रूह का सुकून’ गाने वालों को देखने के बाद अब मेरे लिये ये समझना ज्यादा मुश्किल नहीं रह गया है कि आखिर क्यों और कैसे ज़ाकिर नाइक ने इस देश में करीब बीस साल तक लगातार मतान्तरण की फसल काटी.

शब्दों का मायावी आवरण, प्रपंच, खुद को फंसता देख तुरंत दिशा बदल लेना, मार्केटिंग, प्रभावी और क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग, जगह-जगह से अनगिनत हवाले, यही सब तो उनके चोंचले हैं जिसमें आप पहले भी फंसते थे और आज भी (आज भी मतलब 2014 के बाद) फंसते जा रहे हैं. उसने एक पोस्ट लिखी जिसमें मोदी और शाह को चतुर और धूर्त बनिया, हिटलरवादी, चीख-चीख कर झूठ बोलने वाला, पूरे संघ–विचार-परिवार को मूढ़ों का समूह, पूरी सरकार को नकारा और भविष्य दृष्टि से हीन और हमको-आपको कुपढ़ और जाहिलों का झुण्ड बता दिया और आप कूद-कूद कर उसके पोस्ट को फैलाते रहे.

फिर उसने हिंदुत्व की उन अवधारणाओं मसलन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को निशाने पर लिया जिसके कारण दुनिया में हमारा सम्मान है, आप आनंदित होते रहे. फिर उसने कहा कि तुम और तुम्हारे पूर्वज काहे के राष्ट्रवादी बे… वो सब और तुम सब तो अपने धर्म को ढोते पशु मात्र हो. राष्ट्रीय चेतना के लिये कौन लड़ रहा था तुम्हारे यहाँ? फिर उसने शिवाजी, राणा प्रताप से लेकर सारे हिन्दू राजा-रजवाड़ों को क्षेत्रवादी योद्धा बनाकर खड़ा कर दिया. आप लहालोट होते रहे.

अगले चरण में जाकर उसने कह दिया कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द एक प्रवंचना है और एक ऐसा शब्द-युग्म है जिसमें दो परस्पर विपरीत विचारों का समावेश किया गया है. आप लगातार उसकी बलायें लेते जा रहे थे तो उसकी हिमाकतें बढ़नी ही थी. फिर उसने कह दिया ‘भारतीय चेतना में हिंदुत्व की धारा और राष्ट्र की धारा बिलकुल अलग-अलग बहती है’.

और तो और, जब उसने देखा कि इतना करने के बाद भी आपको उसकी मूल मंशा समझ नहीं आ रही तो उसने हिन्दू द्वेष के पुतले ‘अल्लामा इक़बाल’ को महिमामंडित कर आपको उसकी गोद में जाने के लिये बहकाने लगा. और आज तो सुना है कि उसने आपको ये कह दिया कि आप (हिन्दू) इतने बर्बर, असहिष्णु और हिंसक हो चुके हैं कि आहिस्ते-आहिस्ते आपकी प्रकृति ‘इस्लाम’ में रूपांतरित होती जा रही है. आप गाली सुन कर उस पर प्यार लुटाते रहिये क्योंकि विधाता ने हिन्दुओं की बदनसीबी और भी लिख रखी है.

खैर, इस अर्ध-विक्षिप्त को कौन समझाये कि राष्ट्रीयता का भाव बिना हिंदुत्व के पल्लवित हो ही नहीं सकता. जो जितना अधिक हिंद्वादी होगा वो उतना ही बड़ा राष्ट्रवादी होगा और जिसकी निष्ठा इसमें नहीं है वो राष्ट्र की मुख्यधारा से कभी जुड़ ही नहीं सकता. इस बात को कभी खुद से महसूस करके देखिये कि आपके अंदर हिंदुत्व कितना है और उसके अनुपात में राष्ट्रवाद कितना है. आप खुद को जितना अधिक हिन्दू समझेंगे राष्ट्रवाद उतना अधिक आपके अंदर हिलोरे लेगा. इस अनुभव को आप यहाँ सबके साथ साँझा भी कर सकते हैं.

आपके उस नवोदित सितारे ने कहा कि ‘भारतीय चेतना में हिंदुत्व की धारा और राष्ट्र की धारा बिलकुल अलग-अलग बहती है’ और आपने भी बिना तस्दीक किये इस बात को मान लिया. तो आपको अगर कोई ‘कुपढ़ दक्षिणपंथी’ कहता है तो क्या गलत करता है?

काश कि आपने अतीत में जाकर देखा होता तो आपको पता चलता कि भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के मूल में ही हिन्दू विचार था. जितने भी महान विप्लवी हुये सबके सब हिन्दू-विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रवाद के सिपाही बने थे. महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल ने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से निकलने वाली एक मासिक पत्रिका में एक लेख लिखा था जिसके शब्द थे –

“हिन्दू राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास पूरब में सबसे अधिक विलक्षण बात है. भारत में जातियों तथा पंथों का नानत्व ऐसी रुकावट नहीं जिसके कारण राष्ट्रीय एकता न हो सके… राष्ट्रीय एकता के लिये समान ऐतिहासिक परंपरा अपरिहार्य आधार है, जिसे चार हज़ार बरसों से अधिक काल से भारत की एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी में संचारित किया है…”

लाला हरदयाल चार हज़ार साल पुरानी किस परंपरा की बात कर रहे थे? इस्लाम की या ईसाईयत की? इन्हीं लाला हरदयाल ने कैलिफोर्निया में ‘हिन्दू-राष्ट्रवादी संघ’ की स्थापना की थी साथ ही ये भी तथ्य है कि ‘हिन्दू-दर्शन’ पर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में लाला हरदयाल के भाषण हुआ करते थे. लाला हरदयाल को अमेरिका के कॉलेजों में हिन्दू-दर्शन पढ़ाने के लिये बुलाया जाता था.

मदन लाल धींगरा (जिन्होंने कहा था कि देश की पूजा ही राम की पूजा है) को जब फांसी दी गई तब लाला हरदयाल ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा था कि “धींगरा ने हमें उन मध्यकालीन राजपूतों और सिखों के इतिहास का स्मरण कराया है जो मृत्यु को वधू के समान प्रेम करते थे”. हरदयाल के ये शब्द क्या हिन्दू-विचार प्रवाह में बहते राष्ट्रवाद को नहीं दिखाता हैं ?

अमेरिका के समाचारपत्र लाला हरदयाल को ‘हिन्दू-संत’ कहकर पुकारते थे, पर प्रश्न आप से है कि लाला हरदयाल राष्ट्रवादी थे या हिंदूवादी थे? उस ‘पॉलिश्ड मायामृग’ के बहकावे में आकर क्या आप लाला हरदयाल के राष्ट्रवादी होने पर भी शक करेंगे?

राष्ट्रऋषि बंकिम के नायक जीवानंद और भवानंद जब गृह-त्याग कर नगरों-गाँवों-वनों-गुफाओं और पर्वतों पर जा-जाकर जब राष्ट्रीय चेतना की अलख जगा रहे थे, तब क्या वहां हिन्दू विचार नहीं था? बंकिम के वंदेमातरम् में माँ दुर्गा को भारत माँ के रूप में प्रकट होते देखने के बाद भी आप कहेंगे कि ‘भारतीय चेतना में हिंदुत्व की धारा और राष्ट्र की धारा बिलकुल अलग-अलग बहती है’?

सुभाष के प्रेरणास्रोत रासबिहारी बोस (रासू दा) ने जापानी लड़की से विवाह किया था. रासू दा वो थे जिन्होंने दिल्ली में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाई थी और जो सुभाष के अभिभावक तुल्य थे, वो कहते थे कि भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन आध्यात्मिक भारत के जागरण का सुफल है.

रासू दा जब मृत्यु शैय्या पर थे तब उन्होंने केवल तीन चीजें माँगी थी, गंगाजल, तुलसीदल और रुद्राक्ष की माला. उस ‘पॉलिश्ड मायामृग’ के बहकावे में आकर रासू दा को आप क्रांतिकारी मत मानिये. कभी भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन पर भाई परमानंद के विचारों को पढ़िये, हिंदुत्व और राष्ट्र कोई अंतर ही नहीं दिखेगा आपको.

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का कौन सा नायक है जो हिन्दू विचार से विलग रहा? तिलक और गांधी दोनों को क्या आवश्यकता थी गीता पर भाष्य करने की? देश जब पराधीनता की चक्की में पिस रहा था तभी क्यों तिलक और गांधी दोनों को गीता-भाष्य करने की सूझी? गांधी क्यों कहते थे कि धर्म भी स्वदेशी हो. इसका अर्थ क्या है?

अरविंद ने अलीपुर के जेल में जिस स्वर्गिक-सत्य का साक्षात्कार किया उस साक्षात्कार में क्या राष्ट्र और धर्म को परमेश्वर ने अलग कर बताया था? एक क्रांतिकारी अरविंद को वेदों के भाष्य की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? दयानंद ने “आर्य-आर्यावर्त और आर्यभाषा” का जो उद्घोष दिया था वहां इस देश की मूल धारा को छोड़कर भी कुछ था क्या?

बंगाल के क्रांतिकारी त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती ने अलीपुर जेल में जीवन ने तीस साल काटे, जेल से खुद के बाहर आने की उम्मीद नहीं थी पर मन में ये चिंता थी कि देश का नवयुवक राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े. कैसे जुड़े इसका विचार करते हुए उन्होंने एक पुस्तक लिख डाली. किताब का नाम था ‘गीता के चार अध्यायों की व्याख्या’. अगर हिन्दू और राष्ट्र दोनों विपरीत धारा में बहती है तो क्यों त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती को स्वाधीनता की प्रेरणा देने के लिये गीता ही नज़र आई?

आखिर क्यों पश्चिम और उत्तर भारत के अधिकांश स्वाधीनता सेनानी आर्य समाज में दीक्षित थे? आखिर क्यों दामोदर चापेकर फांसी के फंदे पर चढ़ते हुये गीता के श्लोक गा रहे थे? आखिर क्यों उन्होंने फांसी से पहले तिलक से अंतिम भेंट के रूप में ‘गीता’ माँगी थी? तिलक को गणेश उत्सव शुरू करना राष्ट्रीय भाव को बढ़ाने वाला कदम क्यों लगा?

स्वातंत्र्यवीर विनायक सावरकर तो हिंदुत्व की प्रतिमूर्ति थे और नेताजी सुभाष? अपने संबंधियों को जो पत्र उन्होंने लिखे थे कभी पढ़िए उसे कि उनकी कल्पना का भारत कैसा था. गुलामी की चक्की में पिस रहे अपने भारत की मुक्ति के लिये क्यों कातर होकर वो आर्य ऋषि-कुमारों को ही खोजते थे?

एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने लाला हरदयाल के लिये कहा था कि ये तो देश के लिये पागल हो रहे हैं. उस पर लाला हरदयाल ने जो जवाब दिया था मुझे लगता है कि उनका ये जवाब ‘पॉलिश्ड मायामृग’ के फैलाये भ्रमों का सर्वश्रेष्ठ जवाब है. लाला हरदयाल के शब्द थे –

“मैं तो वास्तव में पागल हूँ और कुछ हिन्दुओं को भी अपने साथ पागल बनाना चाहता हूँ. यदि केवल एक करोड़ हिन्दुओं के ह्रदय और मस्तिष्क में मेरी अपेक्षा आधा पागलपन भी आ जाये तो हिन्दू राष्ट्र न केवल भारत कल भारत का स्वराज्य ले लेगा बल्कि पूर्वी अफ्रीका, फीजी और मॉरिशस जैसे देश भी इसके अधिकार में आ जायेंगें”.

वो आगे कहते हैं, “हिन्दू राज्य में सभी सम्प्रदायों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है. परंतु यदि कोई कपूत विजयादशमी का त्यौहार न मनाये और गुरु गोविन्द सिंह की निंदा करे… तो वह राष्ट्रीय जड़ों को दुर्बल करता है और राष्ट्र की जड़ काटता है”.

अब ये आप सोचिये कि लाला हरदयाल जैसा महान विप्लवी केवल हिन्दुओं को साथ लेने की बात क्यों कर रहा था और क्यों ये कह रहा था कि यदि कोई कपूत विजयादशमी का त्यौहार न मनाये और गुरु गोविन्द सिंह की निंदा करे… तो वह राष्ट्रीय जड़ों को दुर्बल करता है और राष्ट्र की जड़ काटता है? आप चाहें तो उस ‘पॉलिश्ड मायामृग’ के ज्ञान से आलोकित हो कर लाला हरदयाल को क्रांतिकारी ही न माने क्योंकि हिंदुत्व और राष्ट्र तो दो विपरीत ध्रुव है न!

उपरोक्त सारे उदाहरण भी अगर आपको उस ‘पॉलिश्ड मायामृग’ के छलावे से बाहर नहीं निकाल पाता तो फिर इस खेमे का (कम से कम फेसबुक जैसी दुनिया में) भगवान ही मालिक है.

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