पिछले लेख के बाद मुझे उम्मीद थी कि ये बात स्पष्ट हो जायेगी कि राष्ट्र और राज्य दोनों नितांत अलग हैं, दोनों एक नहीं है. ये पहले भी एक नहीं था और आज भी एक नहीं है. मैंने ये भी कहा कि हमारी नज़र में राज्य की तुलना में राष्ट्र कहीं अधिक वृहत्तर महत्व का रहा है, हमारे पूर्वजों ने जो पद्धति विकसित की थी उसके उसकी सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि कितनी ही शताब्दियों तक इस विस्तृत भूभाग पर शासन की कोई एक केन्द्रीय इकाई नहीं थी, सार्वभौमत्व नहीं थे पर तब भी हमारा राष्ट्र जीवित था, समृद्ध था, संपन्न था.
[राज्य निर्मित हो तो क्षणिक, राष्ट्र निर्मित एकात्मता ही स्थायी]
आपने अंग्रेजी पढ़ीं और ‘राष्ट्र’ का भाषांतर करते हुये उसे अंग्रेजी में “नेशन” कह दिया फिर उसके सिद्धांत भी आप राष्ट्र पर लागू करने की कोशिश करने लगे. आप जब ये बात कहतें हैं कि ‘जिस भी स्थान विशेष की सीमारेखाओं का उल्लेख प्राचीन पुस्तकों में मिल जाए, वह एक राष्ट्र-राज्य है, ऐसी विलक्षण सुमति को दूर से ही नमस्कार’ तो आप अपने बौद्धिक अहंकार में ये भूल जाते हैं कि आप राष्ट्र-राज्य की आधुनिक परिभाषा को अतीत में जाकर स्थापित करने की कोशिश कर रहें हैं. नूतन सिद्धांत के चश्मे से अतीत को देखने की कोशिश? ग़ालिब होते तो कहते “गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा/ एक ही रंग है दुनिया को जिधर से देखा.”
ये मैंने कब लिखा कि भारत एक राजनीतिक इकाई इसलिये है क्योंकि शंकराचार्य ने चार दिशाओं में पीठाधीश्वर नियुक्त किए थे? हाँ! ये बात मैंने धर्म और राष्ट्र के संबंधों के अर्थ में जरूर कही थी. मेरे शब्द थे ‘राष्ट्र अलग और धर्म अलग होता तो शंकराचार्य को कोई जरूरत नहीं थी कि वो गंगाजल से रामेश्वरम् के अभिषेक का विधान तय करते या चारों कोनों पर मठों की स्थापना करते‘, पर आप अगर जबरदस्ती अपने शब्द मेरे मुंह में डाल के देखेंगें तो आपको ऐसा ही दिखेगा. “खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब/ क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की”.
[हिंदुत्व बचा है इसलिये भारत है और भारत है इसलिये हिंदुत्व भी है]
एक उदाहरण देते हुए कल मैंने कहा था कि राजा क्षयर्ष की सीमा हिन्दुस्तान की सीमा से लगती है ऐसा ओल्ड-टेस्टामेंट के ‘बुक ऑफ़ एस्तेर’ में लिखा है, तो क्या ‘बुक ऑफ़ एस्तेर’ का लेखक राजा क्षयर्ष के राज्य की चौहद्दी भारत को राजनैतिक रूप से एक ईकाई मान कर नहीं कर रहा था? क्या दुनिया ने हमेशा भारत को राजनैतिक रूप से एक इकाई मानकर नहीं देखा?
ये तो बड़ी सहज बात है जिसे एक छोटा बालक भी समझ सकता है पर आपकी समझ इतनी ही है कि आप कोलम्बस के अमेरिका तक पहुँचने के उदाहरण को (जिसका इसके साथ कोई ताअल्लुक ही नहीं है) इस तर्क से जोड़ने लग गये. ये तो जहालत की इन्तेहा है कि इस तर्क को इसके साथ जोड़ा जाये. “अर्जे-अहवाल को गिला समझे/ क्या कहा मैंने आप क्या समझे.”
आपका आरोप है कि ‘अगर आप भारत को एक राजनीतिक इकाई के बजाय एक सांस्कृतिक इकाई मान लेंगे तो इससे भारत के विचार की अवमानना नहीं हो जाएगी, जो एक ऐतिहासिक भ्रम को सत्य सिद्ध करने का हठ ठानकर बैठे हुए हैं’.
मैंने कब और कहाँ ये कहा कि भारत एक सांस्कृतिक इकाई नहीं है और मैंने कब ज़िद की कि भारत को एक राजनैतिक इकाई ही माना जाये? ताज्जुब है! इसे कहते हैं, तुम कहो कुछ भी पर मैं मानूंगा वही जो मैंने ठान रखा है. “ज़ाहे-करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब/ कि बिन कहे ही उन्हें सब खबर है, क्या कहिये”.
दरअसल आपकी मंशा खुल कर अब सामने आ ही गई जिसके लिये आपने इतना ताना-बना अब तक रचा था. “शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द/ राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ”. आप दरअसल हमसे ये जबरन कबूल करवाना चाहते हैं कि संघ, मोदी और हमारी इस संविधान में आस्था है ही नहीं.
आपको हमसे ये भी सुनना है कि मोदी जो संविधान के प्रति सम्मान और निष्ठा प्रदर्शित करते हैं वो दरअसल एक ढोंग है. आपको हमसे ये सुनना है कि हम संविधान को फाड़ कर हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहते हैं. आपके शब्द-जाल में फंसकर अगर हमने ये बातें बोलनी शुरू कर दी तो आप अपना नकाब उतार कर खुल कर सामने आ जायेंगे ये कहते हुये कि देखो, “ये है इन आरएसएस वालों का असली चेहरा, ये है इनकी असल मंशा, ये साले संघी… नाज़ी साले..”
आपको मोदी का “सबका साथ, सबका विकास” और लोकतांत्रिक समावेश की बात करना बेशक दुविधा में डालता होगा पर हमें नहीं डालता क्योंकि हमारा चिंतन राजा के लिये इसी आदर्श की अपेक्षा करता है. महाभारत में राजा पृथु से जब ऋषियों ने वचन लिया था तो दूसरा वचन यही था कि “प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मोह को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति सद्भाव रखोगे”.
इसी आदर्श का अनुपालन अगर मोदी कर रहे हैं तो आपको तकलीफ हो रही है? तकलीफ से अधिक बात ये है कि आप हमसे ये सुनना चाहते हैं कि मोदी को केवल ये बोलना चाहिये “हिन्दू का साथ-हिन्दू का विकास”. आप चाहते हैं कि हम ये बोले और आपको हमको नोंचने का मौका मिल जाये.
जहाँ तक विधान की बात है तो वर्तमान विधान भी किसी इल्हाम के रूप में नहीं उतरा है जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता. आवश्यकताओं के अनुरूप इसमें परिवर्तन किये भी गये हैं और किये जाने भी चाहिये पर अगर ये बात आप कहें तो बड़ा अच्छा विचार और यही बार अगर इस खेमे से उठे तो आप कहेंगें ‘मैं जानता हूँ, संविधान के प्रति आपके विचार बहुत सदाशयतापूर्ण नहीं हैं’.
अफ़सोस की बात है कि इतने बड़े विद्वान होने के दावों के बावजूद आपने संघ को ठीक से समझा ही नहीं, संघ की तो बड़ी स्पष्ट मान्यता है कि समाज स्वायत्त और स्वयंशासित रहना चाहिए, अगर किसी राष्ट्र का राष्ट्रजीवन और समाजजीवन शासनाभिमुख और शासन पर अवलंबित रहेगा तो वो टूट जायेगा पर इसके विपरीत अगर वो स्वायत्त रहा, अनुशासित रहा और संगठित रहा तो वो चिरंजीवी भी होगा. सरकारें आयेंगी-जायेंगी पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ अखंड चलता रहेगा. मोदी या कोई और इसके लिये प्रयत्न करे या न करे उससे कोई अंतर नहीं आने जाना.
इल्तज़ा यही है कि जैसे विमर्श के इस मसले को घुमाते-फिराते आपने अपनी मूल मंशा को अंततः उजागर कर दिया उसी तरह बाकी के एजेंडे पर भी खुल कर आ जाइये. “दो रंगी छोड़ दे एक रंग हो जा/ सरापा मोम हो या फिर संग हो जा”.
व्यक्तिगत आक्षेप में मेरी रूचि नहीं है वर्ना ये शेर तो जरूर कहता, “हद से बढ़े जो इल्म तो है ज़हर दोस्तों/ सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं”.
रणक्षेत्र सजा है, इतनी जल्दी आहत होकर घमंड प्रदर्शन ठीक नहीं है, जवाब का सामना तो करना ही होगा और कलई भी खोली जायेगी “अगर ये ज़िद है कि मुझसे दुआ-सलाम न हो/ तो ऐसी राह से गुजरो जो राहे-आम न हो”.