ध्यान बाबा फेसबुक पर नहीं हैं, नहीं तो आज इस तस्वीर को अपनी DP ज़रूर बना लेते, भले ही ये तस्वीर एक पाकिस्तानी मुसलमान की है 🙂
आज अनायास ही गूगल देवता की बदौलत हाथ आई इस तस्वीर में दिख रहे साहब का नाम ए. हमीद है और यही हैं वो जनाब जिनका एक उपन्यास ध्यान ने महज़ 9 साल की उम्र में पढ़ा और ऐसा रोमांटियाये कि आज तक उससे बाहर न आए <3
इस उपन्यास ‘मैं फिर आऊंगी’ के बारे में पहले भी लिख चुकी हूँ. मैंने नहीं पढ़ा, पर बाबा से इसके बारे में इतना सुन रखा है कि अजनबी नहीं लगता.
पहले वाक्य में दो शब्द आए हैं – पाकिस्तानी और मुसलमान… बाबा की फेसबुक पर छवि से उलट व्यक्तिगत जीवन में उन्हें पाकिस्तान और मुसलमानों सहित सबसे प्यार ही है.
दरअसल इस शताब्दियों पुराने इंसान की आत्मा आज भी अविभाजित भारत में भटकती है. विभाजन पूर्व का भारत और अब पाकिस्तान में चला गया भूखंड पता नहीं क्यों इन्हें बारंबार पुकारता सा लगता है.
हिंदुत्व पर उग्र विचार रखने वाले इंसान की इस व्यक्तिगत बात को साझा करने की वजह है ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का उद्घोष जो हम हिन्दुओं का आधार है.
फेसबुक पर बेहद सीमित मुस्लिम मित्र वाले बाबा के व्यक्तिगत जीवन के किस्से आदिल भाई, रहीम चचा, सलीम मियां, डॉ अली और हां, साजिदा की आत्मीय चर्चा बिना पूरे ही नहीं हो सकते.
बाबा की ही तरह आप सभी के जीवन में कहीं न कहीं दखल होता ही होगा मंटो का, इस्मत चुगतई का… मेहदी हसन का, ग़ुलाम अली का… नुसरत फ़तेह अली खान का, राहत फ़तेह अली खान का… कुर्रतुलऐन हैदर का, आबिदा परवीन का, परवीन शाकिर का… मिर्ज़ा ग़ालिब का, डॉ राही मासूम रज़ा का…
इन नामों में उस तरफ के नाम भी हैं और इस तरफ के भी… वाकई हालात वैसे नहीं हैं जो अदब की दुनिया (रूमानी दुनिया) में दिखाए-बताए जाते हैं, पर क्या वो दुनिया पाने जैसी नहीं, बनाने जैसी नहीं?